द्रौपदी मुर्मु : गत वर्ष संविधान दिवस के अवसर पर मैं उच्चतम न्यायालय द्वारा आयोजित समारोह में समापन भाषण दे रही थी। न्याय के बारे में बात करते हुए मुझे अंडर-ट्रायल कैदियों का खयाल आया और उनकी दशा के बारे में बोलने से मैं स्वयं को रोक नहीं पाई। मैंने अपने दिल की बात कही और उसका प्रभाव भी पड़ा। आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैं आपसे उसी तरह कुछ विचार साझा करना चाहती हूं, जो सीधे मेरे दिल की गहराइयों से निकले हैं।

मैं बचपन से ही समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर व्याकुल रही हूं। एक ओर तो किसी बच्ची को ढेर सारा प्यार-दुलार मिलता है और शुभ अवसरों पर उसकी पूजा भी की जाती है। वहीं दूसरी ओर उसे जल्द ही यह आभास हो जाता है कि हमउम्र लड़कों की तुलना में उसके जीवन में अवसर एवं संभावनाएं कम हैं। महिलाओं को उनकी सहज बुद्धिमत्ता के लिए आदर मिलता है। पूरे कुटुंब में सबका ध्यान रखने वाली, परिवार की धुरी के रूप में उनकी सराहना की जाती है तो दूसरी ओर परिवार से जुड़े और यहां तक कि उनके ही जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णयों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती और यदि होती भी है तो अत्यंत सीमित।

एक छात्रा, अध्यापिका और बाद में एक समाज सेविका के रूप में घर के बाहर के परिवेश में ऐसे विरोधाभासी रवैये ने मुझे स्वयं हैरान किया। अक्सर मैंने यही महसूस किया है कि हममें से अधिकांश लोग व्यक्तिगत स्तर पर तो पुरुषों और महिलाओं की समानता को स्वीकार करते हैं, लेकिन सामूहिक स्तर पर वही लोग आधी आबादी को सीमाओं में बांधना चाहते हैं। यद्यपि मैंने अधिकांश व्यक्तियों को समानता की प्रगतिशील अवधारणा की ओर बढ़ते देखा है, किंतु सामाजिक स्तर पर पुराने रीति-रिवाज और परंपराएं पुरानी आदतों की तरह हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। विश्व की सभी महिलाओं की यही व्यथा-कथा है। महिलाएं अपना जीवन बाधाओं के बीच ही शुरू करती हैं। 21वीं सदी में जब हमने हर क्षेत्र में कल्पनातीत प्रगति कर ली है, तब भी कई देशों में कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकी है। इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि दुनिया के तमाम हिस्सों में आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। यहां तक कि स्कूल जाना भी किसी लड़की के लिए जिंदगी और मौत का सवाल बन जाता है।

हालांकि, सदैव ऐसी स्थिति नहीं रही। भारत में ही ऐसे कालखंड भी रहे, जब महिलाएं निर्णय लिया करती थीं। हमारे शास्त्रों और इतिहास में ऐसी महिलाओं का उल्लेख मिलता है जो अपने शौर्य, विद्वत्ता और प्रभावी प्रशासन के लिए जानी जाती थीं। आज भी अनगिनत महिलाएं अपनी पसंद के क्षेत्रों में कार्य करके राष्ट्र निर्माण में योगदान दे रही हैं। अंतर केवल इतना है कि उन्हें एक साथ दो स्तरों पर अपनी योग्यता तथा उत्कृष्टता सिद्ध करनी पड़ती है-अपने कार्यक्षेत्र में भी और घरों में। फिर भी वे शिकायत नहीं करतीं, लेकिन समाज से केवल इतनी आशा जरूर करती हैं कि वह उन पर भरोसा करे।

इधर एक विचित्र स्थिति भी उत्पन्न हुई है। हमारे यहां जमीनी स्तर पर निर्णय लेने वाली संस्थाओं में महिलाओं का अच्छा प्रतिनिधित्व है, लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ते हैं तो महिलाओं की संख्या घटती जाती है। यह तथ्य राजनीतिक संस्थाओं के संदर्भ में भी उतना ही सच है जितना नौकरशाही, न्यायपालिका और कारपोरेट जगत के लिए। जिन राज्यों में साक्षरता दर बेहतर है, वहां भी यही स्थिति दिखती है। स्पष्ट है कि केवल शिक्षा द्वारा ही महिलाओं की आर्थिक और राजनीतिक आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि समाज में व्याप्त मानसिकता को बदलने की जरूरत है। एक शांतिपूर्ण और समृद्ध समाज निर्माण के लिए महिला-पुरुष असमानता पर आधारित जड़वत पूर्वाग्रहों को समझना तथा उनसे मुक्त होना जरूरी है। सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने के लिए सुविचारित प्रयास किए गए हैं, परंतु ये प्रयास महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की दिशा में पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए। जैसे शिक्षा प्राप्त करने तथा नौकरियां हासिल करने में महिलाएं पुरुषों की तुलना में बहुत पीछे रहती हैं। उनके इस पिछड़ेपन का कारण सामाजिक रूढ़ियां हैं न कि कोई साजिश।

तमाम दीक्षा समारोहों में शामिल होने का मेरा अनुभव यही बताता है कि यदि महिलाओं को अवसर मिले तो वे शिक्षा में पुरुषों से प्रायः आगे निकल जाती हैं। भारतीय महिलाओं तथा हमारे समाज की इसी अदम्य भावना के बल पर मुझे विश्वास होता है कि भारत महिला-पुरुष के बीच न्याय के मार्ग पर विश्व समुदाय का पथ-प्रदर्शक बनेगा। ऐसा कतई नहीं है कि पुरुषों ने आधी आबादी को पीछे रखकर कोई बढ़त हासिल की है। सच यही है कि यह असंतुलन मानवता को हानि पहुंचा रहा है, क्योंकि मानवता के रथ के दोनों पहिए बराबर नहीं। मुझे विश्वास है कि यदि महिलाओं को मानवता की प्रगति में बराबरी का भागीदार बनाया जाए तो हमारी दुनिया अधिक खुशहाल होगी।

महिलाओं के लिए हानिकारक पूर्वाग्रहों और रीति-रिवाजों को कानून बनाकर अथवा जागरूकता के माध्यम से दूर किया जा रहा है। इसका सकारात्मक प्रभाव होता है। वर्तमान संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है। कहने की आवश्यकता नहीं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रपति के रूप में मेरा चुनाव महिला सशक्तीकरण की गाथा का एक अंश है। मेरा मानना है कि महिला-पुरुष न्याय को बढ़ावा देने के लिए ‘मातृत्व में सहज नेतृत्व’ की भावना को जीवंत बनाने की आवश्यकता है।

महिलाओं को प्रत्यक्ष रूप से सशक्त बनाने के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकार के अनेक कार्यक्रम सही दिशा में बढ़ते हुए कदम हैं। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि श्रेष्ठ तथा प्रगतिशील विचारों के साथ तालमेल बनाने में समाज को समय लगता है। समाज मनुष्यों से ही बनता है, जिनसें आधी संख्या महिलाओं की होती है। ऐसे में सामाजिक प्रगति को गति देने के लिए आज मैं आप सबसे अपने परिवार, आस-पड़ोस अथवा कार्यस्थल में एक बदलाव लाने के लिए स्वयं को समर्पित करने का आग्रह करना चाहती हूं। ऐसा कोई भी बदलाव जो किसी बच्ची के चेहरे पर मुस्कान बिखेरे। ऐसा बदलाव जो उसके लिए जीवन में आगे बढ़ने के अवसरों में वृद्धि करे।