डॉ. ऋतु सारस्वत। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने मनीषा रविंद्र पानपाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले की सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र के जलगांव जिले के विचारखंड़ा पंचायत की महिला सरपंच को तकनीकी आधार पर अयोग्य ठहराए जाने पर महिला प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासन के सभी स्तरों पर व्याप्त भेदभावपूर्ण रवैये पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की।

सुप्रीम कोर्ट ने महिला सरपंच को राहत देते हुए टिप्पणी की कि ‘यह प्रकरण तब और भी गंभीर हो जाता है, जब हम एक देश के रूप में सार्वजनिक कार्यालयों और निर्वाचित निकायों में पर्याप्त महिला प्रतिनिधित्व सहित सभी क्षेत्रों में लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण के प्रगतिशील लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं।

जमीनी स्तर पर इस तरह के उदाहरण हमारे द्वारा हासिल की गई किसी भी प्रगति पर गहरा आघात करते हैं।’ शीर्ष न्यायालय की यह टिप्पणी संपूर्ण सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़े करती है। राजनीति का क्षेत्र पुरुषों का गढ़ माना जाता रहा है।

इसलिए जब 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत स्थानीय सरकारों यानी गांव से लेकर जिला स्तर तक की संस्थाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिया गया तो संभावना जताई गई कि यह राजनीति में पुरुषों के एकाधिकार की समाप्ति का नवीन अध्याय लिखेगा। इसके बाद ग्रामीण अंचलों में महिलाएं नेतृत्व करते दिखाई देने लगीं, परंतु यह एक छद्म तस्वीर थी, क्योंकि वास्तविक सत्ता पुरुष सदस्यों के हाथ में बनी रही और आज भी कई जगह यह परंपरा यथावत कायम है।

‘सरपंच पति’ स्थानीय राजनीति से जुड़ी वह सच्चाई है, जो राजनीतिक क्षेत्र में लैंगिक समानता के प्रयासों को ठेंगा दिखाती है। अमूमन सभी के मन में यह प्रश्न कौंधता है कि क्यों महिला सरपंच स्वयं इसका विरोध नहीं करतीं? प्रशासन की नाक के नीचे सरपंच पतियों का अस्तित्व कई प्रश्न खड़े करता है।

प्रशासन की अवहेलना से कहीं अधिक यह मुद्दा सामाजिक स्तर पर सुषुप्त चेतना का है। सरपंच पति सर्वस्वीकार्य व्यवस्था का वह स्वरूप है, जो किसी को भी विचलित नहीं करता। इसके विपरीत सामाजिक स्तर पर तब असहजता उत्पन्न होती है, जब कोई महिला सरपंच स्वतंत्र रूप से अपने दायित्व का निर्वहन करे। तब उसे उसके पद से हटाने के लिए नए-नए तरीके आजमाए जाते हैं, जैसा कि मनीषा रविंद्र के साथ आजमाए गए।

उन्हें इस आरोप के आधार पर हटाने का फैसला लिया गया था कि वह कथित तौर पर सरकारी जमीन पर बने घर में रह रही थीं। इस आरोप को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लगता है कि ग्रामीण इस वास्तविकता को स्वीकार करने में असमर्थ थे कि एक महिला सरपंच उनकी ओर से निर्णय लेगी और उन्हें उसके निर्देशों का पालन करना होगा।

ऐसा विरले ही होता है कि किसी गांव विशेष में सरपंच पति के अनुचित अधिकार अतिक्रमण का विरोध हुआ हो। राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व एक बहुत बड़ी चुनौती है और ऐसा नहीं है कि यह एकमात्र भारत की समस्या हो। विकसित देश की अग्रणी पंक्ति में खड़े जी-7 समेत कुछ प्रमुख यूरोपीय देशों की भी यही स्थिति है।

‘द रेक्जाविक इंडेक्स फॉर लीडरशिप 24’ का एक अध्ययन बताता है कि ‘महिलाएं स्वयं भी नेतृत्व के पदों के लिए महिलाओं को पुरुषों के समान योग्य नहीं मानतीं।’ यह तथ्य चौंकाता है, परंतु अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो यह वह वास्तविकता है, जिसके संबंध में कभी भी गहन शोध करने के प्रयास नहीं किए गए।

अमूमन यही माना जाता रहा है कि महिला नेतृत्व पुरुषों को चुभता है, परंतु यह आंशिक सत्य है। आम तौर पर यही सोच महिलाओं का भी है, परंतु उन्हें कठघरे में खड़ा करना न्यायोचित नहीं। सामाजिक मनोविज्ञानी फेय क्रास्बी कहते हैं कि पित्तृसत्तात्मक सोच इस कदर समाज में घुल-मिल गया है कि अधिकांश महिलाओं को इसका पता नहीं होता कि वे समुदाय में लैंगिक भेदभाव का शिकार हुई हैं।

‘मीजरिंग बायस अगेंस्ट फीमेल पालिटिकल लीडरशिप’ नामक अध्ययन बताता है कि इतिहास, समाज और पितृसत्ता ने सदियों से महिलाओं की भूमिका को आकार दिया है। रूढ़िवादी विचार राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति में बाधा डालते हैं। गहराई से उकेरी गई मानसिकता न केवल बाहरी दुनिया की धारणा को प्रभावित करती है, अपितु महिलाओं के मस्तिष्क पर भी असर डालती है और उन्हें यह विश्वास दिलाती है कि वे राजनीति के योग्य नहीं हैं।

महिलाओं पर थोपे गए दोहरे मापदंड उनके आत्म-मूल्यांकन कौशल को कम करते हैं। इस संदर्भ में मास राकुसिन का शोध बताता है कि महिलाओं का आत्मविश्वासी होना सामाजिक दृष्टिकोण में ‘दुस्साहसी’ होना है, जो सामाजिक सुसंगतता को चुनौती देता है। महिलाओं को निरंतर इसका बोध भी कराया जाता है।

इससे वे स्वयं ही राजनीति के क्षेत्र से पीछे हट जाती हैं। सफलता आत्मविश्वास के साथ उतनी ही निकटता से जुड़ी है, जितनी योग्यता के साथ। राजनीति में महिलाओं के सफल-असफल, योग्य-अयोग्य होने का प्रश्न इसलिए खड़ा नहीं हो पता, क्योंकि रूढ़िवादिता की कठोर परंपराएं उनकी राह में कांटें बिछा देती हैं। राजनीति में महिलाओं के प्रति माहौल इतना नकारात्मक है कि महिलाएं यही बेहतर समझती हैं कि वे इस क्षेत्र से दूर ही रहें।

अगर हम यह समझ रहे हैं कि युवा पीढ़ी के विचार लैंगिक रूढ़ियों के विरुद्ध हैं तो यह भ्रम है। ‘मीजरिंग सोसाइटीज परसेप्सन्स आफ इक्वलिटी फॉरवूमेन एंड मेन इन लीडरशिप सींस’ रेखांकित करता है कि युवा पीढ़ी का यह मानना है कि राजनीति के समीकरण महिलाओं की समझ से परे हैं। राजनीति में महिलाओं के प्रवेश की सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक समाजीकरण का अभाव है और इसके लिए प्रशासनिक एवं सामाजिक स्तर पर जब तक प्रयास नहीं होंगे, तब तक नेतृत्व पदों में महिलाओं की स्वीकार्यता सहज नहीं होगी।

(लेखिका समाजशास्त्री हैं)