कपिल सिब्बल। आगामी आम चुनाव की नियति हिंदी पट्टी तय करेगी। इस क्षेत्र में लोकसभा की 225 सीटें हैं जो कुल संसदीय सीटों का 40 प्रतिशत हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को इनमें से 190 सीटें मिलीं तो वहीं 2019 के चुनाव में 177 सीटें उसके खाते में गईं। विपक्षी मोर्चा आइएनडीआइए जब तक इस हिंदी पट्टी में भाजपाई प्रभाव में सेंध नहीं लगाता तब तक भाजपा को केंद्र की सत्ता से हटाने की संभावनाएं बहुत कमजोर होंगी।

हालांकि ऐसा नहीं है कि भाजपा अजेय है। कम से कम तीन ऐसे कारण हैं जो हिंदी पट्टी में भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ाकर उसका विजय रथ रोक सकते हैं। पहला कारण तो एक बड़े वर्ग के भीतर हो रही यह अनुभूति है कि मोदी सरकार के दो कार्यकाल में गरीबों के जीवन स्तर में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।

खाद्य तेल, सब्जियों, दूध और रसोई गैस आदि आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में आई तेजी ने आम आदमी को बुरी तरह प्रभावित किया है। लोगों की क्रय शक्ति घटी है। इससे भाजपा की छवि पर पहले ही आघात हुआ है। ट्रेड यूनियन सरकार की नीतियों का विरोध कर रही हैं। उन्होंने दिल्ली में व्यापक स्तर पर विरोध-प्रदर्शन किया। यह बात अलग है कि गोदी मीडिया ने उसे दिखाया नहीं। बेरोजगारी भी एक बड़ा मुद्दा है। देश में 21 से 29 वर्ष की आयु वाले युवाओं में बेरोजगारी दर करीब 29 प्रतिशत है। ये पहलू आम चुनाव के नतीजों पर असर डालेंगे।

दूसरा कारण लोगों का गोदी मीडिया के उस रवैये से ऊब जाना भी है, जिसमें पूरी कवरेज एक या दो लोगों के इर्द-गिर्द होती है। इस हद दर्जे की आत्ममुग्धता और कुछ लोगों के सुनियोजित चित्रण ने लोगों को मुख्यधारा के मीडिया से दूर कर दिया है। लोग इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म का रुख कर रहे हैं, जहां मोदी सरकार का वैसा महिमामंडन नहीं किया जाता। इस लिहाज से एक्स (पूर्व में ट्विटर) और अन्य इंटरनेट मीडिया मंचों पर बढ़ती सक्रियता न केवल लोगों के ऊबने, बल्कि एक वैकल्पिक दृष्टिकोण के उभार का भी संकेत है। ये नजरिये भी अब तेजी से जगह बना रहे हैं, जो वर्तमान शासन के प्रति बदलते रुझान को दर्शाता है।

संभव है कि भाजपा नेतृत्व को भी इस परिवर्तन का अंदाजा है और इसी कारण जी-20 के भव्य आयोजन के तुरंत बाद संसद के विशेष सत्र में महिलाओं को आरक्षण का सब्जबाग दिखाया गया, जिसके 2029 में जाकर ही साकार रूप लेने के आसार हैं। हालांकि महिला आरक्षण के दांव का उतना असर पड़ता नहीं दिख रहा। इसी कारण विधानसभा चुनावों से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान करने के बजाय विपक्षी दलों पर हमले को प्राथमिकता दी है।

जहां तक जी-20 का सवाल है तो अध्यक्षता के लिए भारत की बारी तो 2022 में थी, लेकिन उसे 2023 के लिए खिसका दिया गया। इसके पीछे यही मंशा थी कि आम चुनाव से पहले भारत को ग्लोबल लीडर के रूप में दिखाकर उसका चुनावी लाभ लिया जाए। इसी प्रकार राम मंदिर की 22 जनवरी को प्रस्तावित प्राण प्रतिष्ठा भी यही संकेत करती है कि आम चुनाव से पहले भाजपा का एजेंडा क्या रहने वाला है। अब मोदी वर्ष 2047 तक भारत को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का सपना दिखा रहे हैं, लेकिन लगता नहीं कि बड़ी संख्या में लोग इस पर भरोसा करेंगे।

जाति भारतीय राजनीतिक दांव-पेचों के मूल में होती है। हिंदी पट्टी की राजनीति में जाति और भी गहराई से समाई है। अनुसूचित जाति और जनजातियों को छोड़ दिया जाए तो केवल पिछड़ा वर्ग की आबादी ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, झारखंड और राजस्थान में करीब 50 प्रतिशत है। संभवत: इसी वजह से संसद के विशेष सत्र के दौरान भाजपा के एक सदस्य ने मोदी को देश का पहला ओबीसी प्रधानमंत्री बताया। यकीनन इसके पीछे राजनीतिक लाभ का उद्देश्य था, पर सत्य की कसौटी पर यह बात सही नहीं थी।

प्रधानमंत्री जिस मोदी-घांची समुदाय से आते हैं, उसे गुजरात में 2002 में ही पिछड़ा वर्ग का दर्जा मिला। जबकि मोदी खुद को ओबीसी बताकर ही चुनाव प्रचार करते हैं। आगामी चुनाव का नतीजा भी एक बड़ी हद तक ओबीसी वर्ग ही तय करेगा। यही कारण है कि बिहार में जातीय गणना के बाद मोदी सार्वजनिक रूप से गरीबी को सबसे बड़ी जाति बता रहे हैं।

भाजपा अब कुछ असमंजस में दिखती है। भाजपा बिहार की जातीय गणना का समर्थन नहीं कर सकती, क्योंकि उसमें पिछड़ों के भीतर पिछड़ों के अधिकारों की बहस का नया पिटारा खुल सकता है। भाजपा इसका विरोध भी नहीं कर सकती, क्योंकि इससे पिछड़ों के भीतर पिछड़ों के वोट से हाथ धोना पड़ सकता है। इंदिरा साहनी मामले में पिछड़ों की संख्या 50 प्रतिशत मानते हुए इस वर्ग के लिए आरक्षण को 27 प्रतिशत के स्तर पर निर्धारित किया गया।

जनगणना के रुझानों में ओबीसी की 60 प्रतिशत अनुमानित संख्या को देखते हुए हिंदी पट्टी के अधिकांश राज्यों में 27 प्रतिशत की इस सीमा को बढ़ाने की मांग और मुखर हो सकती है। इसका भी मोदी न विरोध कर सकते हैं और न ही समर्थन। अगर वह समर्थन करेंगे तो उन ऊंची जातियों के वोट फिसल सकते हैं जो भाजपा के पारंपरिक मतदाता रहे हैं। अगर वह विरोध करेंगे तो पिछड़े वर्ग के वोटों के छिटकने का खतरा होगा। इस दुविधा का भाजपा की संभावनाओं पर असर पड़ना तय है, क्योंकि 2019 के चुनाव में भाजपा ने हिंदी पट्टी में विरोधियों का सूपड़ा साफ कर भारी जीत हासिल की थी।

सांप्रदायिकता की राजनीति भी एक बड़ा मुद्दा है। एक ऐसे दौर में जब हम ग्लोबल लीडर बनना चाहते हैं तो समतावादी मानसिकता ही हमारी प्रगति सुनिश्चित करेगी। मोदी की विभाजनकारी नीतियां उनके उसी बयान का मखौल उड़ाती हैं कि ‘भारत लोकतंत्र की जननी है।’ भारत में लोकतंत्र का ह्रास देश को उस राह पर ले जा रहा है जहां समुदाय एक दूसरे के साथ सहयोग के बजाय टकराव की अवस्था में हैं। गरीबों की आकांक्षाएं तभी फलीभूल हो सकती हैं जब हम मोदी की विभाजनकारी राजनीति को नकारते हुए युवाओं विशेषकर धर्म, लिंग और जाति के आधार पर भेदभाव के शिकार लोगों का सशक्तीकरण करने पर ध्यान केंद्रित करें। भेदभाव आज की राजनीति में साफ झलक रहा है। एक बेहतर भविष्य के लिए हमें यह रवैया बदलना होगा।

(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)