उमेश चतुर्वेदी : जिस मणिपुर में कान्हा की रासलीला का जोर रहा है, जिसे डा. राममनोहर लोहिया महाभारतकालीन उर्वशी के सौंदर्य के साथ जोड़कर देखते रहे, वही मणिपुर इन दिनों जल रहा है। गत तीन मई को राज्य में भड़की हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। किसी भी राज्य में हिंसा होती रहे तो वहां की सरकार पर सवाल उठने ही हैं। सवाल भाजपा शासित इस राज्य के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह पर भी उठ रहे हैं। सवाल केंद्र सरकार पर भी उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि यह मोदी सरकार की नाकामी है। ऐसी राय जाहिर करने वाले लोगों की नजर में यह हिंसा महज दो समुदायों मैती और कुकी के बीच की है।

यह सच है कि यह हिंसा मणिपुर हाई कोर्ट के उस आदेश के बाद फैली, जिसमें उसने मैती समुदाय को भी अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखने को लेकर जरूरी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दिया, लेकिन हकीकत तो यह है कि हाई कोर्ट का आदेश पहले से सुलग रही आग को भड़काने का ही बहाना बना।

सवाल है कि आखिर यह आग सुलग क्यों रही थी? इसे जानने के लिए पहले मणिपुर की भौगोलिक और जनसांख्यिकीय स्थिति को जानना जरूरी है। मणिपुर में मुख्यत: तीन समुदाय हैं- मैती, नगा और कुकी। नगा और कुकी बुनियादी रूप से आदिवासी और जनजातीय समुदाय के समूह हैं। मणिपुर का करीब 90 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है, जबकि सिर्फ दस प्रतिशत हिस्सा ही मैदानी है। इसी दस प्रतिशत इलाके में मैती समुदाय रहता है, जबकि 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाके में नगा और कुकी समुदाय के लोग रहते हैं।

राज्य में मैती समाज 53 प्रतिशत जनसंख्या के साथ बहुसंख्यक है। मैती समुदाय में ज्यादातर हिंदू समुदाय के लोग हैं। हालांकि ईसाई मिशनरियों के प्रयासों से कुछ मैती भी मतांतरित हुए हैं। मैती समुदाय में कुछ लोग इस्लाम मानने वाले भी हैं। राज्य में मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी करीब आठ प्रतिशत है। इसी तरह कुकी और नगा की आबादी करीब 16 और 24 प्रतिशत है। नगा और कुकी जनजातियों में ईसाई मिशनरियों का प्रभाव ज्यादा है। कह सकते हैं कि मोटे तौर पर ये समूह ईसाई हैं। मणिपुर में हिंदू और ईसाइयों की आबादी करीब बराबर यानी 41-41 प्रतिशत है। दिलचस्प यह है कि मैती की बड़ी जनसंख्या राज्य के सिर्फ दस प्रतिशत इलाके में रहती है। उन्हें पहाड़ों में जमीन खरीदने का हक नहीं है, जबकि नगा और कुकी को मैदानी इलाके में जमीन खरीदने का अधिकार है। यही वजह है कि मैती समुदाय खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग कर रहा है। बहुसंख्यक होने के बावजूद मैती समुदाय खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है।

करीब ढाई दशक पहले केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के तत्कालीन महानिरीक्षक एपी लिडिल कुमार ने कहा था कि जिन इलाकों में अफीम की खेती होती है, वहीं आतंकवाद पनपता है। तब उन्होंने पूर्वोत्तर के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही अफगानिस्तान के भी आंकड़े दिए थे। पहाड़ियों पर बसा कुकी समुदाय भी कुछ इसी अंदाज में अफीम की खेती में शामिल है। यह सच है कि पहाड़ी इलाकों में बेरोजगारी बहुत है। ऐसे में अफीम की खेती ज्यादा रास आ रही है। म्यांमार से लगातार घुसपैठ भी बढ़ी है। म्यांमार से आने वाले लोगों के लिए पहाड़ी इलाकों में आसानी से छिपना और स्थानीय समुदायों में खपना आसान है। इन लोगों को भी रोजगार का सबसे आसान साधन अफीम की खेती लगती है।

मणिपुर में 2017 में सरकार बनाने के बाद से ही भाजपा की कोशिश राज्य में अफीम की खेती और घुसपैठ रोकने की रही है। इसके लिए राज्य सरकार ने पहले ड्रोन के जरिये अफीम की खेती की जानकारी हासिल की। फिर उन्हें नष्ट करने की कोशिश शुरू हुई। कुकी समुदाय को लगा कि इससे उसके रोजगार का साधन छिन जाएगा। इसके बाद से ही कुकी समुदाय नाराज था। रही-सही कसर पूरी कर दी, यहां सक्रिय उग्रवादी समूहों ने। मणिपुर में करीब 26 उग्रवादी समूह सक्रिय हैं। उनमें से एक ऐसा भी है, जिसकी कोशिश बांग्लादेश, दक्षिणी म्यांमार और मणिपुर के हिस्सों को मिलाकर अलग देश बनाना है। म्यांमार में बैठे उग्रवादी समूहों ने कुकी की नाराजगी को हवा दी।

भाजपा की सरकार आने के बाद राज्य में सक्रिय कुछ भारत विरोधी ईसाई भी परेशान हैं। उन्होंने भी कुकी के गुस्से को हवा दी। इसी बीच मणिपुर हाई कोर्ट का आदेश आ गया और फिर मणिपुर सुलग उठा। हिंसा में राज्य के कुकी बहुल इलाकों के वन विभाग के सारे दफ्तर और चौकियां जला दी गई हैं। कहा जा रहा है कि वन विभाग के दफ्तरों को निशाना इसलिए बनाया गया, क्योंकि अफीम की खेती और मादक पदार्थों की तस्करी की ज्यादातर जानकारी इन्हीं दफ्तरों में रिकार्ड के रूप में रखी गई थी। जाहिर है उन्हें जलाकर एक तरह से रिकार्ड को खत्म करने की कोशिश हुई है।

आजादी के बाद कई वर्षों तक पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों को नेफा यानी नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी के नाम से संगठित किया गया था। डा. लोहिया की प्रेरणा से सामाजिक कार्यों के लिए पूर्वोत्तर में कई लोगों ने आश्रम शुरू किए गए थे। इसकी वजह से मणिपुर में समाजवादी धारा का असर भी रहा। कुछ साल पहले तक समाजवादी धारा के विधायक चुने जाते रहे, लेकिन अब यहां न तो समाजवाद रहा, न ही आश्रम। अगर वे रहते तो शायद मौजूदा संघर्ष को रोक पाने में अपनी कुछ भूमिका निभाते। इन संदर्भों को जाने बिना मणिपुर के संघर्ष को रोक पाना आसान नहीं होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)