डा सुशील पांडेय : सत्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। और सत्य अनुकूल समय पर स्वयं प्रमाणित होता है। हाल में कश्मीर के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने ध्यान आकर्षित किया है और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक नया विचार और दृष्टिकोण प्रदान किया है। डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी के प्रमुख गुलाम नबी आजाद का यह कथन कि कश्मीर में मतांतरण द्वारा इस्लाम का प्रचार-प्रसार हुआ और यहां इस्लाम के आगमन से पूर्व सभी हिंदू थे, न केवल सत्य की स्वीकारोक्ति है, अपितु आत्ममंथन के द्वारा समस्या के समाधान का नवीन दृष्टिकोण भी है।

दूसरी महत्वपूर्ण घटना कश्मीर में स्वतंत्रता दिवस का नागरिकों द्वारा हर्षोल्लास के साथ मनाया जाना और पूरी दुनिया को यह संदेश देना रहा कि अब कश्मीर आधुनिक,प्रगतिशील और लोकतांत्रिक शक्तियों द्वारा आगे बढ़ाया जाएगा।

कश्मीर प्राचीन काल से ही शैव मत का महत्वपूर्ण केंद्र था। सम्राट अशोक ने वितस्ता नदी किनारे श्रीनगर नामक नगर की स्थापना की। प्रथम शताब्दी में कश्मीर के कुंडल वन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। जवाहर लाल नेहरू लिखते हैं कि लगभग 2000 या इससे भी अधिक साल पहले कश्मीर बौद्ध धर्म का महान केंद्र था और बौद्धों की कुछ महत्वपूर्ण सभाएं यहां हुईं। तब से वह संस्कृत भाषा के अध्ययन का प्रमुख केंद्र बना रहा।

लगभग 1000 वर्ष पहले अरब और फिर फारसी प्रभाव कश्मीर पर पड़ा। इस प्रकार कश्मीर ने हिंदू, बौद्ध और मुस्लिम प्रभावों का अनुभव किया और वहां एक मिश्रित, किंतु समन्वित संस्कृति का सृजन हुआ। कश्मीर में मंगोलों के आक्रमण के बाद सदरुद्दीन नामक शासक ने बुलबुल शाह नामक सूफी के प्रभाव में इस्लाम का प्रसार किया। उसने कश्मीर में पहली मस्जिद बनवाई। सुल्तान सिकंदर के शासनकाल में उसके सेनापति सुहा भट्ट ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और वह उसी संप्रदाय का कट्टर शत्रु हो गया, जिसे उसने त्याग दिया था। सिकंदर ने आदेश दिया कि सभी ब्राह्मण और अन्य हिंदू मुसलमान बन जाएं और जो इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे, उन्हें निकाल दिया जाएगा। उसने हिंदुओं का बड़े पैमाने पर दमन और उत्पीड़न किया और उनके मंदिर ध्वस्त किए। उसके अत्याचारों से बचने के लिए अनेक हिंदुओं ने मजबूरी में इस्लाम स्वीकार कर लिया। यही काम देश के अन्य हिस्सों में हुआ। लोग क्रूर आक्रांताओं के दमन के चलते या फिर उनके आतंक से त्रस्त होकर हिंदू-बौद्ध से मुस्लिम बने। देश के तमाम मुसलमान आज भी यह स्वीकारते हैं कि उनके पूर्वज हिंदू, बौद्ध या जैन थे।

कुछ मुस्लिम नेताओं को गुलाम नबी आजाद का बयान पसंद नहीं आया, लेकिन वे सच से मुंह नहीं मोड़ सकते और सच यही है कि अधिकांश लोग मजबूरी में या अपनी संपदा अथवा मान-सम्मान बचाने के लिए हिंदू से मुसलमान बने। आज भारत के ही नहीं, पाकिस्तान के भी तमाम मुसलमान अपने नाम के आगे चौहान, चौधरी, राणा, बाजवा, भट्ट आदि उपनाम का प्रयोग करते हैं। कश्मीर में तो कुछ मुस्लिम तो अपने नाम के साथ पंडित का इस्तेमाल करते हैं। फारूक अब्दुल्ला भी यह मानते हैं कि उनके पूर्वज हिंदू थे। जिन्ना और इकबाल के पुरखे भी हिंदू थे। यह भी एक सत्य है कि मुस्लिमों की अनेक परंपराएं हिंदुओं वाली ही हैं। गुलाम नबी आजाद के इस कथन को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि भारत में चंद मुसलमान ही बाहर से आए और अधिकतर तो हिंदुस्तानी मुसलमान हैं।

1941 की जनगणना के अनुसार कश्मीर की जनसंख्या करीब 40 लाख थी, जिसमें 77प्रतिशत मुस्लिम, 20 प्रतिशत हिंदू तथा 3 प्रतिशत सिख एवं बौद्ध थे। आतंक के चलते अब घाटी में हिंदुओं, सिखों और बौद्धों की संख्या नगण्य सी हो गई है। कश्मीर के हिंदू शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा भारत में विलय के संबंध में तत्काल निर्णय न लेने के कारण स्थिति जटिल हो गई और अंत में उन्हें पाकिस्तानी आक्रांतओं से बचने के लिए जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में करना पड़ा। पाकिस्तान द्वारा बार-बार युद्ध की रणनीति अपनाए जाने के बाद भी सफलता ने मिलने पर अप्रत्यक्ष युद्ध के रूप में आतंकवाद का सहारा लिया गया। यह एक तथ्य है कि पाकिस्तान ने मजहब के आधार पर कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ाया।

अनुच्छेद 370 हटने के बाद से कश्मीर की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आया है। भारत सरकार के सकारात्मक प्रयासों से आम जनता का विश्वास लोकतांत्रिक व्यवस्था में तेजी से बढ़ा है। कश्मीरी युवाओं का सिविल सेवा सहित अन्य सेवाओं में तेजी से प्रतिनिधित्व बढ़ा है। युवाओं में रोजगारपरक शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से रुझान बढ़ा है। भारत सरकार द्वारा कश्मीर में मूलभूत ढांचे के विकास के लिए अभूतपूर्व प्रयास किया गया है, जिससे पूरे क्षेत्र में संचार,परिवहन,ऊर्जा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। इन सभी सकारात्मक परिवर्तनों से आम जनता और युवा अलगाववादी विचारधारा से हटकर न केवल मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं, अपितु अपने वास्तविक इतिहास और साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यह काम पूरे देश में होना चाहिए।

कश्मीर महान हिंदू संतों, दार्शनिकों, बौद्ध भिक्षुओं और सूफी संतों की भूमि है, जहां साझा सांस्कृतिक विरासत सदियों से विद्यमान है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में उदार सांस्कृतिक मूल्य और लोकतांत्रिक जीवन पद्धति सभी समस्याओं का सार्थक समाधान है। कश्मीर समस्या का मूल भावनात्मक एकीकरण में आ रही बाधाएं हैं, जो सम्यक इतिहास बोध को सामने आने से रोकती हैं और सार्थक संवाद को हतोत्साहित करती हैं। इतिहास सिर्फ अतीत की विषय वस्तु नहीं है। इतिहास वर्तमान चुनौतियों के लिए सार्थक समाधान प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम है। आत्ममंथन से जो अमृत निकलेगा, वही समस्या का सार्थक समाधान देगा और समाज में व्याप्त कटुता को समाप्त करेगा।

(लेखक बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ में इतिहास के प्राध्यापक हैं)