श्रीदेवी जैसी अदाकारा को असमय खो देने से बहुत याद आएंगी हिंदी सिनेमा की पहली लेडी सुपरस्टार
श्रीदेवी मध्य वर्ग में ग्लैमर का पर्याय थीं, उस तिलिस्म को इस शताब्दी में जन्मने वाली नई पीढ़ी समझ ही नहीं सकती है।
नई दिल्ली [ यतींद्र मिश्र ]। जिस पीढ़ी में मैं किशोर हो रहा था, उस दौर में श्रीदेवी हिंदी सिनेमा का प्रतिनिधि चेहरा बनकर सेल्युलाइड पर चमक रही थीं। एक अजेय सितारे की मानिंद। हिंदी सिनेमा की पहली लेडी सुपरस्टार। मुझे याद है कि बीती सदी के नब्बे वाले दशक तक उनकी कीर्ति का परचम सदी के महानायक से होड़ ले रहा था। जिस किसी फिल्म में अमिताभ बच्चन की अनिवार्य उपस्थिति रहती थी, उसमें यदि नायिका के बतौर श्रीदेवी को कास्ट किया जाता था तो नायक के समकक्ष ही श्रीदेवी का किरदार विशेष तौर पर गढ़ा जाता था। ‘ख़ुदा गवाह’ ऐसी ही फिल्म का नमूना है। मैं आठवीं क्लास में रहा होऊंगा जब ‘मिस्टर इंडिया’ रिलीज हुई थी और ‘हवा हवाई’ की सुंदरता और सहज अभिनय ने उनका मुरीद बना दिया था। वर्ष 1983 से 1993 के दौरान वाले उस वीडियो कैसेट युग में किस तरह श्रीदेवी मध्य वर्ग में ग्लैमर का पर्याय थीं, उस तिलिस्म को इस शताब्दी में जन्मने वाली नई पीढ़ी समझ ही नहीं सकती है।
चहेती अभिनेत्री का यूं चले जाना मन कचोटता है
‘नगीना’ के गीत ‘मैं तेरी दुश्मन’ से लेकर ‘चांदनी’ के ‘मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां हैं..’ पर ऑडियो कैसेट लगाकर घर-घर डांस करने वाली उस दौर की लड़कियों को आज अपनी चहेती अभिनेत्री का यूं चले जाना कतई अच्छा न लगा होगा। अपने कॅरियर की शुरुआत में जितेंद्र के साथ जोड़ी बनाते हुए श्रीदेवी ने दर्जन भर सुपरहिट, मगर चालू मसाला सिनेमा का पात्र बनना पसंद किया, जिन फिल्मों को आज उनकी फिल्मोग्राफी में ठीक से याद भी नहीं किया जाता है। ‘हिम्मतवाला’, ‘मवाली’, ‘जस्टिस चौधरी’, ‘अक्लमंद’, ‘धर्म अधिकारी’, ‘सुहागन’, ‘औलाद’ और ‘तोहफा’.... ऐसी फिल्मों की सूची अंतहीन है। उनका बाकायदा हिंदी सिनेमा की दुनिया में संज्ञान ‘नगीना’ की आमद के बाद लिया गया, जिसकी आशातीत सफलता उनके कंधे की हकदार थी। इच्छाधारी नागिन की भूमिका से मिली सफलता के बाद जैसे श्रीदेवी ने खुद को नए ढंग से गढ़ना, समझना शुरू किया। पहले जो उनके संवाद हिंदी में डब होकर आते थे, अब उनकी आवाज में दुनिया के सामने थे।
उनकी असाधारण अभिनय क्षमता को सिनेप्रेमियों ने खूब सराहा
उन्होंने कॉमिक तत्व का समावेश अपने किरदारों में किया, जिसे अक्सर अभिनेताओं के क्षेत्र का काम जाना जाता है। उस समय की अधिकांश फिल्मों में उन्होंने अपने चरित्रों में हास्य का यह काम बहुत खूबसूरती से अंजाम दिया, जिसने उनकी असाधारण अभिनय क्षमता से दर्शकों का परिचय करवाया। ‘मिस्टर इंडिया’ में चार्ली चैपलिन से प्रभावित उनके बेजोड़ अभिनय का एक लंबा दृश्य आज भी सिनेप्रेमियों के स्मृतिपटल पर बखूबी अंकित होगा। बाद में, ‘चालबाज’ और ‘लम्हे’ के कुछ दृश्य उनकी कॉमिक समझ और जबर्दस्त टाइमिंग को बख़ूबी दर्शाने में समर्थ हैं।
‘चांदनी’ ने सिनेमाघरों में दर्शकों को टिके रहने के लिए मजबूर कर दिया
एक समय जब श्रीदेवी महिला किरदारों के अनुसार लिखी गई पटकथा का सबसे अपरिहार्य अंग बन चुकी थीं, ‘चांदनी’ जैसी फिल्म ने आकर बता दिया कि सिर्फ श्रीदेवी और मधुर संगीत के चलते दर्शक तीन घंटे तक सिनेमाघरों में टिके रह सकते हैं.... जब यश चोपड़ा ने अपने समय से बहुत आगे जाकर एक बोल्ड कथानक को चुनते हुए ‘लम्हे’ बनाई, तो उसके प्रमुख किरदार में जैसे श्रीदेवी ने जान डाल दी।
‘लम्हे’ ने श्रीदेवी जैसी अदाकारा को एक बड़े फलक का कलाकार बना दिया
‘लम्हे’ की अभिनेत्री के चरित्र में पुराने समय की कुछ प्रमुख स्त्री किरदारों के अंतरसूत्र मिलते हैं जो श्रीदेवी जैसी अदाकारा को एक बड़े फलक का कलाकार बनाते हैं। ‘लम्हे’ से गुजरते हुए आपको एक भिन्न धरातल पर ‘अनुराधा’ की लीला नायडू, ‘ममता’ की सुचित्रा सेन और ‘साधना’ की वैजयंती माला के किरदार बरबस याद आते हैं... यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि संवेदनशील अभिनेत्रियों की एक बहुत छोटी-सी सूची में श्रीदेवी का स्थान प्रमुखता से शामिल है। हम जब कभी ‘सदमा’, ‘चांदनी’ ‘लम्हे’ और उनकी पिछली रिलीज फिल्म ‘मॉम’ जैसी फिल्मों का आकलन करेंगे तो हर हाल में इस अभिनेत्री का नाम उन समर्थ अभिनेत्रियों के साथ लिया जाएगा, जिनकी सशक्त परंपरा में लगभग एक दशक तक श्रीदेवी ने सिनेमा में कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही सफलता को बड़े नाजुक संतुलन के साथ साध रखा था।
जटिल दृश्यों को सहज बनाकर पेश करने की युक्ति श्रीदेवी की सबसे बड़ी ताकत थी
जटिल दृश्यों को सहज बनाकर पेश करने की युक्ति, श्रीदेवी की सबसे बड़ी ताकत रही है। अलग से उनका हास्य-बोध और कुशल नर्तकी होना, उनकी फिल्मों में गजब का सम्मोहन पैदा करता था... पिछली शताब्दी के बिल्कुल अंतिम दशक के अधिकांश स्तरीय नृत्य गीत भी श्रीदेवी को जेहन में रखकर लिखे, रेकॉर्ड हुए और फिल्माए गए। ‘मैं नागिन तू सपेरा’, ‘हवा हवाई’, ‘नौ-नौ चूड़ियां’, ‘मोरनी बागां मा बोले आधी रात मा’, ‘मेघा रे मेघा’, ‘धर धमचक लग गई जंगल में ओ बाजे पैजनिया’, ‘मैं ससुराल नहीं जाऊंगी’, ‘तेरे मेरे होठों पे मीठे-मीठे गीत मितवा’ ढेरों उदाहरण हैं, जिन्होंने एक समय शादी के पंडालों को अपनी धमक से गुंजायमान बना रखा था।
‘मिस्टर इंडिया’, ‘ख़ुदा गवाह’ की समर्थ अभिनेत्री को हमने असमय खो दिया
आज उनके जाने से ‘सदमा’, ‘मिस्टर इंडिया’, ‘चांदनी’, ‘लम्हे’, ‘ख़ुदा गवाह’, ‘चालबाज’, ‘गुमराह’, ‘जुदाई’ और ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ की समर्थ अभिनेत्री को हमने असमय खो दिया है। उनसे अभी ढेरों स्तरीय फिल्मों की उम्मीदें शेष थीं जो हिंदी सिनेमा को कहीं से समृद्ध जरूर करतीं। जिस दौर में मैंने फिल्मों को चाव से देखना शुरू किया था, उस ‘श्रीदेवी युग’ की चमक आज भी स्मृति में पूरी चकाचौंध के साथ दर्ज है। आप बहुत याद आएंगी ‘चांदनी’! आपकी स्मृति को श्रद्धांजलि....
[ लेखक स्तंभकार, कवि एवं ‘लता-सुरगाथा’ के लेखक हैं ]