जागरण संपादकीय: स्वच्छता की महत्ता, स्वास्थ्य के साथ समृद्धि की भी वाहक
बीते दस वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान ने अपना एक प्रभाव छोड़ा है और लोगों को साफ-सफाई के प्रति जागरूक भी किया है। इस जागरूकता के चलते सार्वजनिक स्थलों को साफ-स्वच्छ रखने को लेकर लोगों में एक जिम्मेदारी का भाव भी आया है लेकिन इसके बाद भी यह ध्यान रहे तो अच्छा कि स्वच्छता अभियान को अभी लंबा सफर तय करना है।
स्वच्छ भारत अभियान के दस वर्ष होने पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह सही कहा कि देश जितना साफ होगा, उतना ही चमकेगा। स्वच्छता स्वास्थ्य के साथ समृद्धि की भी वाहक है। स्वच्छता लोगों को गंदगी से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाती है। इससे विभिन्न रोगों के उपचार में खर्च होने वाला पैसा बचता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह आंकड़ा स्वच्छ भारत अभियान की सफलता को बयान करता है कि 2014 से 2019 के बीच डायरिया आदि से होने वाली तीन लाख मौतों को रोका गया। इसी तरह हाल का एक अध्ययन यह बताता है कि इस अभियान के चलते प्रति वर्ष साठ से सत्तर हजार बच्चों की जान बचाने में सफलता मिली और शिशु मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आई। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अब आम तौर पर सार्वजनिक स्थलों में साफ-सफाई देखने को मिलती है।
बीते दस वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान ने अपना एक प्रभाव छोड़ा है और लोगों को साफ-सफाई के प्रति जागरूक भी किया है। इस जागरूकता के चलते सार्वजनिक स्थलों को साफ-स्वच्छ रखने को लेकर लोगों में एक जिम्मेदारी का भाव भी आया है, लेकिन इसके बाद भी यह ध्यान रहे तो अच्छा कि स्वच्छता अभियान को अभी लंबा सफर तय करना है। स्पष्ट है कि सरकारों और उनकी नौकरशाही को यह देखना होगा कि यह सफर आसान कैसे हो और स्वच्छ भारत अभियान के लक्ष्य किस तरह पूरे हों। निःसंदेह ये लक्ष्य तभी पूरे होंगे, जब समाज भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करेगा। उसे स्वच्छता के प्रति जागरूक होने के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। लोग जिस तरह अपने घर और आसपास साफ-सफाई रखना पसंद करते हैं, उस तरह सार्वजनिक स्थानों की सफाई के लिए तत्पर नहीं दिखते।
बीते दस वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान को जो सफलता मिली, वह उल्लेखनीय अवश्य है, लेकिन इस अभियान के समक्ष कई चुनौतियां अभी भी हैं। बतौर उदाहरण कचरे का निस्तारण अभी भी एक समस्या है। यह समस्या शहरी इलाकों में भी है और ग्रामीण इलाकों में भी। इसका एक बड़ा कारण यह है कि स्थानीय निकाय स्वच्छता अभियान को समग्रता से लागू करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं। प्रतिबद्धता के इसी अभाव के चलते जिन शहरों में कचरे के पहाड़ खड़े हो गए हैं, उन्हें कम करने में सफलता नहीं मिल रही है।
समझना कठिन है कि आखिर स्वच्छता के मामले में जो कुछ इंदौर ने अर्जित किया, वह देश के अन्य शहर क्यों नहीं अर्जित कर सकते? इंदौर पिछले कई वर्षों से देश का सबसे स्वच्छ शहर बना हुआ है तो इसके लिए वहां के स्थानीय निकाय के अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ आम लोगों को भी श्रेय जाता है। आखिर इंदौर सारे देश के लिए उदाहरण क्यों नहीं बन पा रहा है? इस पर विचार करने के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि भारत विकसित देशों जैसा साफ-स्वच्छ कैसे बने?