प्रधानमंत्री ने एक बार फिर रेवड़ी संस्कृति का उल्लेख किया। इस बार उन्होंने कहा कि यदि देश को विकसित बनाना है तो रेवड़ी संस्कृति से छुटकारा पाना होगा। उनकी इस बात से असहमत होना कठिन है, लेकिन विडंबना यह है कि कई राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति की न केवल पैरवी कर रहे हैं, बल्कि उसे बढ़ावा भी दे रहे हैं।

जब कभी चुनाव होते हैं तो राजनीतिक दलों में रेवड़ियां बांटने की होड़ लग जाती है, ताकि लोगों के वोट हासिल किए जा सकें। हालांकि प्रधानमंत्री पिछले कुछ समय में कई बार रेवड़ी संस्कृति से होने वाली हानि के बारे में बोल चुके हैं, लेकिन विडंबना यह है कि चुनाव के अवसर पर भाजपा भी लोकलुभावन घोषाणाएं करती हुई दिखती है। यह एक तथ्य है कि कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल-एस के साथ भाजपा भी लोकलुभावन घोषणाएं कर रही है।

एक समय था, जब रेवड़ी संस्कृति केवल तमिलनाडु तक सीमित थी, लेकिन धीरे-धीरे उसने सारे देश में जड़ें जमा लीं। आज स्थिति यह है कि जिस भी राज्य में चुनाव होते हैं, वहां राजनीतिक दल मुफ्त में सुविधाएं और सामग्री देने की घोषणा करने लग जाते हैं। चिंताजनक बात यह है कि ऐसा उन राज्यों में भी किया जाता है, जिनकी आर्थिक हालत पस्त होती है।

कई बार तो राजनीतिक दल यह जानते हुए भी लोकलुभावन घोषणाएं कर देते हैं कि वे उन्हें पूरा नहीं कर पाएंगे। स्पष्ट है कि जैसे-तैसे चुनाव जीतने की ललक में वे आर्थिक अनुशासन की जानबूझकर अनदेखी करते हैं। यह सिलसिला बंद होना चाहिए, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? रेवड़ी संस्कृति पर तभी लगाम लग सकती है, जब सभी राजनीतिक दल इस संस्कृति से होने वाले नुकसान को लेकर सतर्क होंगे और इस पर कोई आम राय कायम करेंगे कि किन योजनाओं को जन कल्याण के दायरे में रखा जा सकता है और किन्हें रेवड़ियों की संज्ञा दी जा सकती है।

समस्या यह है कि कोई राजनीतिक दल जिस लोकलुभावन योजना को रेवड़ी संस्कृति का हिस्सा बताता है, उसे अन्य राजनीतिक दल जन कल्याण या फिर सामाजिक उत्थान का कार्यक्रम करार देते हैं। यही कारण है कि जिस राजनीतिक दल के मन में जो आता है, वह उसकी घोषणा कर देता है। निःसंदेह यह समझ आता है कि बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए सरकारें उदारता से धन खर्च करें, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं लागत से कम मूल्य पर प्रदान की जाएं और वह भी तब, जब राज्य की आर्थिक स्थिति इसकी अनुमति न देती हो। चूंकि राजनीतिक दल अपने स्तर पर रेवड़ी संस्कृति का परित्याग नहीं करने वाले, इसलिए उचित यह होगा कि चुनाव आयोग ऐसी कोई व्यवस्था बनाए, जिससे वे चुनाव जीतने के लिए अनाप-शनाप घोषणाएं न कर सकें।