जागरण संपादकीय: स्थानीय निकायों पर निगाह, आवारा कुत्तों की समस्या कैसे होगी खत्म?
अपने देश में आवारा कुत्तों के काटने और लोगों के रैबीज से ग्रस्त होने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रतिवर्ष रैबीज से संक्रमित कुत्तों के काटने के कारण मरने वालों की संख्या 18 से 20 हजार के बीच है और स्पष्ट है कि यह सही संख्या नहीं है क्योंकि न जाने कितने मामले दर्ज ही नहीं होते।
यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य था कि आवारा कुत्तों की समस्या के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के संशोधित अंतरिम फैसले के बाद केंद्र सरकार भी अपने स्तर पर सक्रियता दिखाती। उसने सभी राज्यों को 70 प्रतिशत आवारा कुत्तों की नसबंदी और उनके टीकाकरण का जो निर्देश दिया, वह समय की मांग है। केंद्र सरकार ने यह निर्देश देते हुए राज्यों को वित्तीय मदद देने का भी आश्वासन दिया है और हर माह आवारा कुत्तों के बंध्याकरण और टीकाकरण की प्रगति रिपोर्ट लेने की भी पहल की है।
स्पष्ट है कि अब राज्य सरकारों को इस मामले में गंभीरता का परिचय देना होगा। इसका सीधा अर्थ है कि स्थानीय निकायों को अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा। यह किसी से छिपा नहीं कि आवारा कुत्तों की समस्या का समाधान करने के मामले में स्थानीय निकाय एक बड़ी हद तक अक्षम और असफल ही साबित हुए हैं। इसी कारण इस समस्या ने इतना गंभीर रूप लिया।
अपने देश में आवारा कुत्तों के काटने और लोगों के रैबीज से ग्रस्त होने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रतिवर्ष रैबीज से संक्रमित कुत्तों के काटने के कारण मरने वालों की संख्या 18 से 20 हजार के बीच है और स्पष्ट है कि यह सही संख्या नहीं है, क्योंकि न जाने कितने मामले दर्ज ही नहीं होते। क्या यह सामान्य बात है कि प्रतिवर्ष 18 से 20 हजार लोग रैबीज से ग्रस्त होकर मर जाएं? ध्यान रहे कि इनमें एक बड़ी संख्या बच्चों और किशोरों की होती है।
समझना कठिन है कि आवारा कुत्तों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के संशोधित आदेश पर कुछ कथित पशु प्रेमी लोग और संगठन असंतोष क्यों व्यक्त कर रहे हैं? असंतोष तो उन्हें व्यक्त करना चाहिए जो इससे चिंतित हैं कि क्या देश भर के नगर निकाय आवारा कुत्तों का बंध्याकरण और टीकाकरण कर पाएंगे?
इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वे आक्रामक और रैबीज ग्रस्त कुत्तों को आश्रयगृहों में रख पाएंगे? यह एक तथ्य है कि देश के महानगरों तक में पर्याप्त संख्या में आवारा कुत्तों के लिए आश्रयगृह नहीं हैं। यह ठीक है कि अधिकांश स्थानीय निकाय वित्तीय कठिनाइयों से दो चार हैं और संख्याबल के अभाव से भी ग्रस्त हैं, लेकिन ज्यादा बड़ी समस्या उनकी ओर से अपने हिस्से की किसी भी जिम्मेदारी के निर्वहन में ढिलाई बरतना है।
इसी कारण हमारे छोटे-बड़े शहर अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। इनमें से एक समस्या आवारा कुत्तों के आतंक की भी है। यदि राज्य सरकारों ने स्थानीय निकायों को जवाबदेह नहीं बनाया तो भारत 2030 तक कुत्तों से होने वाले रैबीज के खात्मे के अपने लक्ष्य को पाने में नाकाम ही रहेगा।
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