एस.के. सिंह, नई दिल्ली। ल्यूमियर ब्रदर्स ने 7 जुलाई 1896 को मुंबई के साधारण से वॉटसन होटल में अपनी शॉर्ट फिल्में दिखाई थीं। दर्शकों में ज्यादातर अंग्रेज और कुछ भारतीय थे। यहां लोगों ने पहली बार मोशन पिक्चर देखी थी। तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री में एक होगा और मुंबई शहर उसका सबसे बड़ा केंद्र बनेगा। देश में हर साल 1500 से 2000 फिल्में बनती हैं। मीडिया कंसल्टेंसी फर्म ऑर्मैक्स मीडिया के अनुसार 2023 में भारत की सभी भाषाओं का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 12,226 करोड़ रुपये रहा, जिसमें हिंदी सिनेमा या कहें बॉलीवुड का कलेक्शन 5,380 करोड़ रुपये था।

मुंबई शुरू से भारत में फिल्म इंडस्ट्री का मक्का रही है। मुंबई में ही बॉलीवुड के बसने का पहला कारण दादा साहब फाल्के को कहा जाता है। दूसरा कारण है मराठी रंगमंच और मराठी सिनेमा जो काफी समृद्ध रहा है। प्री-टॉकीज काल में हिंदी सिनेमा के समानांतर मराठी सिनेमा भी काफी डेवलप हो रहा था। महाराष्ट्र की अपनी संस्कृति भी काफी समृद्ध रही है। मुंबई का भारत की आर्थिक राजधानी होना तीसरा बड़ा कारण है। एक और कारण है वहां की सरकार का रुख। राज्य की सभी सरकारों ने हमेशा फिल्म इंडस्ट्री को प्रोत्साहित किया।

दादा साहब फाल्के से शुरुआत

दरअसल ल्यूमियर ब्रदर्स (Lumière brothers) ने 1895 में सिनेमाटोग्राफ (कैमरा, फिल्म प्रोसेसिंग और प्रोजेक्शन सिस्टम एक साथ) का आविष्कार किया था। उनकी उस स्क्रीनिंग से प्रेरित होकर दादा साहब फाल्के लंदन गए और फिल्म निर्माण की तकनीक सीखी। वहां से लौटकर कुछ असफल प्रयोगों के बाद उन्होंने ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बनाई जो 1913 में रिलीज हुई। वह भारत में बनी पहली फिल्म थी।

आउटलुक हिंदी पत्रिका के संपादक और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म आलोचक गिरिधर झा कहते हैं, “शुरुआत मूक फिल्मों से हुई और दादा साहब फाल्के उस दौर के पायनियर थे। दूसरा दौर 1931 में शुरू हुआ जब भारत की पहली बोलती फिल्म आर्देशिर ईरानी की ‘आलम आरा’ आई।”

वैसे, ल्यूमियर ब्रदर्स की उस स्क्रीनिंग से जुड़ी एक और बात है। स्क्रीनिंग के समय वहां पर स्थानीय फोटोग्राफर हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर (सावे दादा) भी थे। फिल्म देखने के बाद उन्होंने इंग्लैंड से अपना कैमरा खरीदने का ऑर्डर किया। सावे दादा ने 1899 में मुंबई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती मैच की रिकॉर्डिंग की। प्रोसेसिंग के लिए उसकी रील को इंग्लैंड भेजना पड़ा। उसे किसी भारतीय द्वारा पहली फिल्म रिकॉर्डिंग माना जाता है।

आजादी से पहले और ठीक बाद का समय

विभाजन से पहले चार जगहों पर फिल्म स्टूडियो हुआ करते थे- मुंबई, कलकत्ता, मद्रास और लाहौर। कलकत्ता और मद्रास में तो ज्यादातर क्षेत्रीय फिल्में बनती थीं, लेकिन मुंबई और लाहौर हिंदी-उर्दू भाषाई (हिंदुस्तानी) फिल्मों के केंद्र थे। उत्तर और मध्य भारत में इनकी ऑडियंस भी काफी बड़ी थी। इसलिए मुंबई और लाहौर की फिल्म इंडस्ट्री के बीच गहरा संबंध बन गया था।

1940 के दशक में के.एल. सहगल, पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद जैसे अभिनेता और मोहम्मद रफी, नूरजहां और शमशाद बेगम जैसे गायक-गायिका मुंबई आ गए थे। विनोद, श्याम सुंदर, गुलाम हैदर, फराज निजामी, खुर्शीद अनवर जैसे संगीत निर्देशक भी वहां आए थे। लगभग उसी समय कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री से भी कई बड़े निर्माता और कलाकार मुंबई आए। इनके अलावा फिल्म निर्माण से जुड़े टेक्नीशियन भी यहां काम की तलाश में आ गए।

गिरिधर झा कहते हैं, “इस तरह मुंबई बड़े स्टार का हब बन गई। कोलकाता की फिल्मों पर बांग्ला भाषा वहां की संस्कृति का प्रभाव था। यही स्थिति मद्रास में बनने वाली फिल्मों की थी। लेकिन मुंबई की प्रकृति लंबे समय से कॉस्मोपॉलिटन रही है।” ऐसा शहर जहां अनेक भाषाएं और अनेक संस्कृतियां एक साथ पल-बढ़ सकती हैं। कोलकाता या मद्रास की फिल्मों को भारत के दूसरे हिस्सों में दर्शक कम ही मिलते थे, लेकिन हिंदी फिल्में न सिर्फ हिंदी भाषी बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी देखी जाती थीं। झा के अनुसार, “मुंबई राष्ट्रीय स्तर पर सबको जोड़ने वाले हिंदी सिनेमा का केंद्र बन गई।”

फिल्म इंडस्ट्री के विकास के लिए कलाकारों के साथ और भी अनेक चीजें चाहिए। स्टूडियो का इन्फ्रास्ट्रक्चर, पैसा लगाने के लिए प्रोडक्शन हाउस, सिनेमाटोग्राफर, एडिटर, साउंड इंजीनियर जैसे टेक्नीशियन। मुंबई में इसका पूरा इकोसिस्टम डेवलप हुआ। देश के किसी अन्य हिस्से में फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा नहीं था। इसलिए कोलकाता और दक्षिण से भी कई बड़े फिल्म निर्माता और कलाकार यहां आए।

मराठी संस्कृति और रंगमंच का योगदान

मराठी थिएटर भारत की सबसे समृद्ध रंगमंच परंपराओं में एक माना जाता है। सिनेमा में मराठी रंगमंच का क्या योगदान रहा है, इस सवाल पर जाने-माने अभिनेता नाना पाटेकर कहते हैं, “रंगमंच से जो कलाकार सिनेमा में जाते हैं, वही उनका योगदान होता है। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी जैसे बड़े कलाकार रंगमंच से ही सिनेमा में आए।”

करीब चार दशक से मराठी रंगमंच से जुड़े और मुंबई यूनिवर्सिटी में अकादमी ऑफ थियेटर आर्ट्स के डायरेक्टर योगेश सोमण का कहना है, “मराठी सिनेमा पर रंगमंच का प्रभाव बहुत ही नेचुरल है क्योंकि अनेक लेखक, निर्देशक और एक्टर मराठी सिनेमा में भी गए।” सोमण लिमिटेड मानुषकी, दृश्यम, दृश्यम 2, ऊरी द सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कई मशहूर फिल्मों में भी काम कर चुके हैं।

आर्थिक राजधानी होने का फायदा

फिल्म निर्माण के चार केंद्रों में से सबसे अधिक पैसा मुंबई में था। शुरुआती दिनों में मुंबई के कपास कारोबारियों ने भी फिल्मों में पैसा लगाया जो कॉटन फाइनेंस नाम से जाना जाता है। मुंबई के मिल मजदूरों के रूप में फिल्मों को ऑडियंस भी मिल रही थी। भारत की राजधानी कोलकाता से बदलकर (1911 में) दिल्ली हो गई, तो उससे कोलकाता का आकर्षण भी कम हो गया था। हालांकि बाद में वहां भी सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे बड़े फिल्मकार हुए।

गिरिधर झा कहते हैं, “मुंबई को पैसे वालों की नगरी भी कहा जाता रहा है। आज की तरह मुंबई तब भी भारत की आर्थिक राजधानी थी। इसका फायदा फिल्म इंडस्ट्री को बहुत मिला। शुरुआती दौर में फिल्मों में पैसा लगाने वाले पारसी और सिंधी थे, जो मुंबई में ही थे। बाद में गुजराती फाइनेंसर भी यहां आए। मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री विकसित होने का यह एक बड़ा कारण रहा है।”

बड़े स्टूडियो का दौर

मुंबई में फिल्म निर्माण शुरू होने के कुछ समय बाद ही बड़े स्टूडियो का दौर शुरू हुआ तो हिमांशु राय ने पत्नी देविका रानी के साथ 1934 में बॉम्बे टॉकीज की स्थापना की। जर्मनी से डायरेक्टर फ्रेंज ऑस्टेन (Franz Osten) बुलाए गए जिनके निर्देशन में देविका रानी ने कई फिल्मों में काम किया।

सोहराब मोदी ने भाई रुस्तम के साथ मिलकर 1936 में मिनर्वा मूवीटोन थियेटर की स्थापना की। उसी दौर में चंदूलाल शाह और गौहर कयूम मामाजीवाला ने रंजीत मूवीटोन की स्थापना की थी। वह अपने समय के सबसे बड़े स्टूडियो में एक था, जिसने 1929 में मूक फिल्मों से शुरुआत की थी।

उन दिनों अशोक कुमार सुपरस्टार थे, वह भी मुंबई आ गए थे। उनके बहनोई शशधर मुखर्जी जैसे बड़े फिल्मकार मुंबई आए और 1943 में अशोक कुमार तथा अन्य के साथ मिलकर फिल्मिस्तान स्टूडियो और 1958 में फिल्मालय की स्थापना की। दरअसल, बंगाल से कई बड़े फिल्मकार मुंबई आए जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली।

झा के अनुसार, “जहां सब रहेंगे वहीं टेक्नीशियन भी होंगे, वहीं स्टूडियो भी होंगे। उस दौर में अगर कोई चाहता कि किसी दूसरे शहर में जाकर फिल्म बना लें, तो उसे पूरा सेटअप नहीं मिलता। बाद के दिनों में भोजपुरी तथा उस इलाके की अन्य भाषाओं में जो फिल्में बनती थीं, उनमें भी पोस्ट प्रोडक्शन काम मुंबई में ही होता था। आज भी उन फिल्मों का 95% काम मुंबई में ही होता है क्योंकि संसाधन यहीं हैं। इस तरह मुंबई राष्ट्रीय सिनेमा की राजधानी बन गई।”

वैसे देखा जाए तो मुंबई से पहले पुणे फिल्म के लिहाज से अधिक डेवलप था। पुणे महाराष्ट्र का सांस्कृतिक केंद्र रहा है। उन दिनों वहां कई बड़े स्टूडियो थे। देवानंद जैसे कलाकार भी ऑडिशन के लिए पुणे जाते थे। दिलीप कुमार जैसे बड़े अभिनेता वहां के स्टूडियो में काम करते थे।

लोकेशन का फायदा

मुंबई की लोकेशन भी अपने आप में एक कारण है। समुद्र तट पर बसा होने के कारण मुंबई ने पहले अंग्रेजों को आकर्षित किया और उसके बाद भारत के एलीट वर्ग को। यहां लंबे समय से कॉस्मोपॉलिटन कल्चर रहा है। पुर्तगालियों से मिलने के बाद अंग्रेजों ने मुंबई को काफी डेवलप किया था। मरीन लाइंस और विक्टोरिया रेलवे स्टेशन का बहुत क्रेज था। यहां 1903 में गेटवे ऑफ इंडिया के सामने ताज होटल बना। यहां एंग्लो इंडियन बड़ी संख्या में थे, जिससे पश्चिमी प्रभाव बहुत था।

झा कहते हैं, “जिस दौर में 90% भारत में गांव वाली संस्कृति थी, लोगों में गरीबी थी, उस समय मुंबई काफी विकसित हो चुकी थी। उस दौर में किसी और राज्य में वैसी समृद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती थी। दिल्ली राजनीतिक केंद्र थी, लेकिन आजादी से पहले दिल्ली में फिल्म इंडस्ट्री का कुछ भी नहीं था।”

आजादी के बाद के दौर में फिल्में काफी बिजनेस करने लगीं। अशोक कुमार, राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद जैसे बड़े स्टार की फिल्में काफी पैसा कमाती थीं। पूरे देश में जैसे-जैसे हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ती गई, मुंबई की स्थिति और मजबूत होती गई। 1970 के दशक में हॉलीवुड की तर्ज पर इसे बॉलीवुड कहा जाने लगा।

झा के अनुसार, फिल्मों के जरिए बॉम्बे को रोमांटिसाइज भी किया गया। ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां… मुंबई मेरी जान’ गाना इसका उदाहरण है। एक तरह से लोगों के मस्तिष्क में यह बात बिठाई गई कि मुंबई माया नगरी है, अद्भुत शहर है। इन सबका भी असर हुआ और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई की पहचान बन गई।

लेकिन आज बॉलीवुड के सामने कुछ चुनौतियां भी खड़ी हो रही हैं। हाल के वर्षों में बाहुबली, पुष्पा- द राइज, केजीएफ, कल्कि जैसी फिल्में आईं। ये फिल्में बनीं तो दक्षिण में लेकिन हिंदी इलाकों में भी बड़ा कारोबार किया। कल्कि में तो कलाकार भी पैन-इंडिया हैं। अब देखना है कि बॉलीवुड इस चुनौती से कैसे निपटता है।

(पहले जागरण मराठी में प्रकाशित)