एस.के. सिंह, नई दिल्ली। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस समय यूरोप के तीन देशों के दौरे पर हैं। उन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और यूरोपियन कमीशन की प्रेसिडेंट उर्सुला वॉन डेर लियेन से मुलाकात की है। इसके बाद वे सर्बिया और हंगरी भी जाएंगे। इससे पहले जिनपिंग 2019 में यूरोप गए थे और तब उनका भव्य स्वागत हुआ था। इस बार स्वागत तो फीका है ही, यूरोप और चीन के संबंध भी पांच साल में काफी बदल गए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन, अमेरिकी चुनाव को लेकर काफी चिंतित है। अगर डोनाल्ड ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बनते हैं तो चीन के साथ ट्रेड वॉर फिर शुरू हो सकती है। इसलिए जिनपिंग नहीं चाहते कि यूरोप के साथ रिश्ते खराब हों। यूरोप चीन के खिलाफ डंपिंग की जांच कर रहा है। हाल में चीन के जासूसी कांड ने जर्मनी, स्वीडन, नीदरलैंड, बेल्जियम और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देशों को नाराज किया है। इटली उसके बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) से बाहर हो गया है क्योंकि उसे उसमें कोई आर्थिक लाभ नजर नहीं आया।

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जिनपिंग को इस दौरे में कोई बड़ी सफलता मिलती नजर नहीं आ रही है। यह जिनपिंग से मुलाकात के बाद उर्सुला के बयान से साफ होता है। बैठक के बाद अपने बयान में उर्सुला ने कहा, “हम अपनी कंपनियों को बचाएंगे, हम अपनी इकोनॉमी को बचाएंगे… ऐसा करने से हम हिचकेंगे नहीं।” उन्होंने कहा, “दो सप्ताह पहले हमने कुछ आयात की जांच शुरू की है। यूरोप ऐसी बाजार व्यवस्था स्वीकार नहीं कर सकता जिससे यहां के उद्योग बंद हो जाएं।”

जिनपिंग के साथ बैठक में मैक्रों ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय हालात को देखते हुए यूरोप और चीन के बीच संवाद की जरूरत पहले से ज्यादा है। जवाब में जिनपिंग ने कहा, व्यापार से लेकर मानवाधिकार तक अनेक विवादों के बावजूद चीन और यूरोपियन यूनियन को रणनीतिक सहयोग मजबूत करना चाहिए और साझीदार बने रहना चाहिए।

चीन की जूझती अर्थव्यवस्था के लिए सहारा ढूंढ रहे जिनपिंग

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ चाइनीज एंड साउथईस्ट एशियन स्टडीज में प्रोफेसर बी.आर. दीपक जागरण प्राइम से कहते हैं, “चीन के नजरिए से देखें तो जिनपिंग की यह यात्रा महत्वपूर्ण कही जा सकती है, खासकर ऐसे समय जब चीन की अर्थव्यवस्था संकट से जूझ रही है। यूक्रेन युद्ध में रूस का समर्थन करने की वजह से अमेरिका तथा पश्चिमी देशों में चीन के छवि खराब हुई है। दक्षिण चीन सागर में चीन ने जो नीति अपनाई है, अमेरिका और पश्चिमी देश उससे भी खुश नहीं हैं।”

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर गुंजन सिंह कहती हैं, “ट्रंप के पहले कार्यकाल में जब अमेरिका ने चीन पर टैरिफ लगाया तब यूरोप ने भी कुछ हद तक उसका साथ दिया था। चीन पहले ही आर्थिक संकट से गुजर रहा है। दोबारा वैसा होने पर उसके लिए झेलना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। ट्रंप के समय लगाए गए टैरिफ मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कम नहीं किए हैं, लेकिन ट्रंप और ज्यादा आक्रामक रवैया अपना सकते हैं। उनके चुनाव का एजेंडा भी चीन विरोधी है। अगर यूरोपियन यूनियन भी अमेरिका के साथ हो गया तो यूरोप और चीन के बीच नए सिरे से ट्रेड वॉर शुरू हो सकती है।”

चीन के लिए यूरोप सबसे बड़ा निर्यात बाजार है। यूरोपियन यूनियन उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। वर्ष 2023 में ईयू और चीन के बीच 794 अरब डॉलर का कारोबार हुआ। 2022 में तो यह आंकड़ा 923 अरब डॉलर था। यानी पिछले साल रोजाना 2.2 अरब डॉलर और 2022 में 2.5 अरब डॉलर का आयात-निर्यात हुआ। पिछले साल अमेरिका के साथ उसका 575 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था।

इसलिए गुंजन कहती हैं, “अगर अमेरिका के साथ यूरोप ने भी चीन पर प्रतिबंध लगाया तो चीन के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी। चीन चिप बनाने के लिए टेक्नोलॉजी अमेरिका और यूरोप से ही लेता है। अगर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर या एक्सचेंज बंद हो गया तब चीन क्या करेगा?”

किंग्स कॉलेज लंदन में लाउ चाइना इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर और चीन मामलों के दुनिया के जाने-माने विशेषज्ञ प्रो. केरी ब्राउन के अनुसार, “यूरोप और यूरोपीय यूनियन चीन के बड़े ट्रेडिंग पार्टनर हैं। वे बड़े रणनीतिक साझेदार होने के साथ प्रतिस्पर्धी भी हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि जिनपिंग और चीन यूरोप और यूरोपीय यूनियन के साथ अच्छे संबंध रखें। इसे पेरिस में जुलाई में होने वाले ओलंपिक की तैयारी से भी जोड़ कर देखा जा सकता है, जिसमें चीन बड़ी टीम भेजने वाला है। चीन इसे बड़ा रणनीतिक महत्व भी देता है।”

यूरोपीय देशों में मतभेद का फायदा उठाने की कोशिश

जिनपिंग ने इस दौरे में यूरोप के जिन तीन देशों को चुना है वे सब अमेरिका के वर्चस्व को नकारने वाले रहे हैं। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि जिनपिंग यूरोपीय देशों के बीच मतभेद का फायदा उठाना चाहते हैं।

प्रो. ब्राउन कहते हैं, “यह बात सही है कि यूरोपीय देशों में मतभेद हैं, लेकिन जिनपिंग जिन तीन देशों का दौरा कर रहे हैं उनके चीन के साथ संबंध और हित अलग-अलग तरह के हैं। इनको मिलाकर एक नैरेटिव बनाना मुश्किल है। फ्रांस के लिए मुख्य मुद्दा ट्रेड और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बेहतर आदान-प्रदान और ग्लोबल वार्मिंग से निपटने में सहयोग है। इसके अलावा वह यूक्रेन युद्ध में रूस के साथ चीन के स्टैंड पर भी स्पष्ट होना चाहता है। सर्बिया यूरोपीय यूनियन का हिस्सा नहीं है और उसका फोकस आर्थिक सहयोग पर अधिक है। उसे रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर समेत विभिन्न सेक्टर में चीन से ज्यादा निवेश की उम्मीद है। हंगरी में प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन का मुख्य फोकस रूस-यूक्रेन युद्ध रहने वाला है। हंगरी चाहता है कि यूक्रेन युद्ध जल्दी खत्म हो।”

जिनपिंग से पहले आए चीनी अधिकारियों ने भी यूरोप को विशेष महत्व देने की कोशिश की। प्रो. दीपक के अनुसार, “यूरोप, अमेरिका का पुराना और महत्वपूर्ण सहयोगी रहा है। चीन हमेशा यह कहता रहा है कि यूरोप को रणनीतिक स्वायत्तता रखनी चाहिए। चाहे वह भू-राजनीति का मामला हो, अधिक उत्पादन क्षमता का मामला हो अथवा चीन पर आर्थिक निर्भरता की बात हो। चीन को उम्मीद है कि वह टेक्नोलॉजी, इनोवेशन और इलेक्ट्रिक वाहन जैसे क्षेत्रों में यूरोप के साथ नए व्यापार समझौते कर सकता है।”

वे कहते हैं, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ताइवान के मसले पर अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ा तो चीन ने यूरोप को बीच में न आने की चेतावनी दी थी। मेरा मानना है कि अमेरिका और यूरोप के बीच सुरक्षा संबंधों को अलग करना चीन के लिए लगभग नामुमकिन होगा, क्योंकि यूरोप सुरक्षा गारंटी के लिए काफी हद तक अमेरिका पर निर्भर है।” इकोनॉमिस्ट मैगजीन से मैक्रों ने कहा भी, “यह बात बिल्कुल साफ है कि अमेरिका और चीन के साथ हमारी दूरी एक समान नहीं, हम अमेरिका के मित्र देश हैं।”

गुंजन कहती हैं, फ्रांस, हंगरी और सर्बिया तीनों अमेरिका के प्रभुत्व को नकारने वाले रहे हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने कहा भी कि जरूरी नहीं कि फ्रांस अमेरिका के ब्लॉक में रहे। मैक्रों चाहते हैं कि अमेरिका के प्रभुत्व से निकल कर यूरोप अलग ताकत बने। बिजनेस के स्तर पर भी फ्रांस ने चीन के खिलाफ कोई बात नहीं कही है, बल्कि वह उसके साथ व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने की बात ही करता रहा है। वैसे, जिनपिंग का दौरा शुरू होने से पहले मैक्रों ने फ्रेंच अखबार ला ट्रिब्यून से कहा था कि चीन के साथ रिश्तों में बदलाव जरूरी है, क्योंकि चीन ने अनेक सेक्टर में जरूरत से ज्यादा उत्पादन क्षमता हासिल कर ली है और वह यूरोप को बड़े पैमाने पर निर्यात कर रहा है।

डॉ. गुंजन के अनुसार, “यूरोपीय यूनियन का मामला फ्रांस से अलग है। वह चीन को लेकर ज्यादा सख्त है। चीन अपने यहां ज्यादा उत्पादन कर यूरोप के बाजारों में सस्ते दामों पर सामान बेच रहा है।”

पिछले 5 साल में यूरोप और चीन के रिश्ते काफी बदले हैं। वर्ष 2019 में इटली बीआरआई में शामिल हुआ था और ऐसा करने वाले शुरुआती देशों में एक था। उस समय ज्यादातर देश बीआरआई को लेकर उत्साहित थे। लेकिन आज महामारी, ईवी, सोलर पैनल मामलों में चीन बैकफुट पर नजर आ रहा है। उसकी इकोनॉमी भी पहले ही कमजोर हुई है। बीआरआई को लेकर उसकी छवि नकारात्मक हो गई है। इसके प्रोजेक्ट में काफी देरी हो रही है और इसे चीन का कर्ज जाल भी माना जा रहा है।

ईयू ने सितंबर 2023 में चीन से इलेक्ट्रिक वाहनों के आयात की डंपिंग की जांच शुरू की थी। इसके जवाब में चीन ने जनवरी में ईयू से ब्रांडी आयात की एंटी-डंपिंग जांच शुरू कर दी। ऑस्ट्रेलिया की वाइन पर चीन 200% ड्यूटी लगा चुका है। वैसे, जिनपिंग के साथ मुलाकात में मैक्रों ने उन्हें उसी ब्रांडी की एक बोतल तोहफे के रूप में दी। ईयू चीन के खिलाफ कार, विंड टरबाइन और मेडिकल डिवाइस समेत 20 मामलों की जांच कर रहा है। हाल के वर्षों में चीन से यूरोप को कारों का निर्यात पांच गुना बढ़ा है।

उर्सुला ने जिनपिंग के सामने स्पष्ट कहा, “चीन इलेक्ट्रिक वाहन और स्टील जैसे सब्सिडी वाले प्रोडक्ट से यूरोपीय बाजारों को पाट रहा है। चीन अपने मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बड़े पैमाने पर सपोर्ट करता है। वहां घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है और दुनिया चीन के सरप्लस उत्पादन को खपाने की स्थिति में नहीं है। चीन के इस रवैये से प्रभावित जी-7 देशों और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ हम बात करेंगे।”

उर्सुला ने शी जिनपिंग से यह भी कहा कि कच्चे माल के लिए यूरोप चीन पर बहुत ज्यादा निर्भर है और वह इस निर्भरता को कम करना चाहता है। उन्होंने कहा, “अगर इससे हमारी सुरक्षा को नुकसान पहुंचता है और हमारे लिए जोखिम बढ़ता है तो यह यूरोप के लिए ठीक नहीं।”

यूक्रेन युद्ध में चीन का रूस को समर्थन यूरोप को नागवार

गुंजन के मुताबिक, “इस बार यूक्रेन युद्ध बड़ा फैक्टर है। चीन लगातार रूस का समर्थन कर रहा है। यह यूरोप के लिए समस्या वाली बात है। चीन से रूस को हथियार बेचने की भी खबरें आई हैं। इसके अलावा जिनपिंग का रवैया भी थोड़ा आक्रामक है। हाल में ऑस्ट्रेलिया के साथ बातचीत में चिनपिंग का रवैया ऐसा था कि वे ऑस्ट्रेलिया को बराबर का साझेदारी नहीं मानते हैं।”

इकोनॉमिस्ट मैगजीन से मैक्रों ने कहा, बीजिंग ने खुद को निष्पक्ष दिखाने की कोशिश की है लेकिन उसने हमले के लिए मॉस्को की निंदा भी नहीं की। अगर रूस यूक्रेन फतह कर लेता है तो कौन कह सकता है कि वह वहीं रुक जाएगा। यह पूरे यूरोप के लिए खतरा है।

गुंजन जिनपिंग की यात्रा के समय को भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानती हैं। फ्रांस ने 27 जनवरी 1964 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता थी और ऐसा करने वाला वह पहला पश्चिमी देश है। फ्रांस और चीन के इस रिश्ते के 60 साल पूरे हुए हैं। इस वर्ष सर्बिया की राजधानी बेल्ग्रेड में चीनी दूतावास पर अमेरिकी हमले की भी बरसी है। बेलग्रेड बॉम्बिंग के 25 साल पूरे होने पर जिनपिंग के सर्बिया जाने का एक मतलब यह बताना है कि अमेरिका दूसरे देशों की सार्वभौमिकता को स्वीकार नहीं करता है। इन दोनों देशों के अलावा हंगरी के साथ भी चीन के अच्छे रिश्ते रहे हैं। हंगरी उन शुरुआती देशों में है जिन्होंने चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव को स्वीकार किया था।

सर्बिया और हंगरी का दौरा एक तरह से यह दिखाने की कोशिश है कि चीन उनका मजबूत साझीदार है। सर्बिया में सबसे अधिक चीन ने ही निवेश किया है। इसलिए प्रो. दीपक कहते हैं, “जिनपिंग बाकी जिन दो देशों का दौरा कर रहे हैं वे चीन के करीबी हैं और अंतरराष्ट्रीय मसलों में उसका समर्थन करते रहे हैं। यूरोपीय बाजारों में अपने इलेक्ट्रिक वाहनों की पैठ बढ़ाने के लिए चीनी कंपनी बीवाइडी हंगरी में फैक्ट्री लगाना चाहती है, जिसकी क्षमता डेढ़ लाख कार सालाना की होगी। इस फैक्ट्री में 2 से 3 साल में उत्पादन शुरू हो सकता है।”

“रोचक बात यह है कि फ्रांस पहले ही चीन में बने इलेक्ट्रिक वाहनों को अपने यहां सब्सिडी की स्कीम से बाहर कर चुका है। उसने ग्रीन इंडस्ट्री प्लान के तहत इलेक्ट्रिक कारों पर सब्सिडी की घोषणा की है। यूरोपीय यूनियन भी कार्बन फुटप्रिंट के नाम पर चीनी इलेक्ट्रिक वाहनों पर अंकुश लगा सकता है क्योंकि चीन में ज्यादातर मैन्युफैक्चरिंग काफी हद तक कोयले पर निर्भर करती है।”