‘जितना दुख था, उससे बहुत अधिक सुख मिल रहा है- न केवल भव्यतम मंदिर बना है, बल्कि श्रेष्ठतम नगरी निर्मित हो रही है'
यह आशंका निर्मूल है। पुराने विग्रह की प्रामाणिक गरिमा है। सुप्रीम कोर्ट से सफलता भी विराजमान रामलला को मिली जो 22 जनवरी 1949 को प्रकट हुए और आज वैकल्पिक गर्भगृह में स्थापित हैं और कल को नए गर्भगृह में भी स्थापित किए जाएंगे। भव्य मंदिर में भव्य विग्रह की आवश्यकता स्वाभाविक थी और इसी तथ्य को ध्यान में रख कर नए विग्रह की स्थापना की जा रही है।
जागरण संवाददाता, अयोध्या : गत 32 वर्षों से रामलला को जितनी निकटता से उनके प्रधान अर्चक आचार्य सत्येंद्रदास ने अनुभूत किया है, उतनी निकटता से शायद ही किसी अन्य ने किया हो। इस दौरान उन्होंने विवादित ढांचे से लेकर टेंट के अस्थाई मंदिर और वैकल्पिक गर्भगृह में विराजे रामलला का पूजन किया।
22 जनवरी को रामलला वैकल्पिक गर्भगृह से भव्यता का प्रतिमान गढ़ने वाले नवनिर्मित मंदिर के गर्भगृह में विराजमान करा दिए जाएंगे।
इसी के साथ आचार्य सत्येंद्रदास को भी नया मुकाम मिलेगा और वह नए गर्भगृह में भी रामलला की पूजा करते रहेंगे। संस्कृत महाविद्यालय में व्याकरण विभागाध्यक्ष रहे सत्येंद्रदास को रामलला की पूजा का अवसर तो तात्कालिक संयोग के चलते मिला, किंतु रामलला से सरोकार उन्हें विरासत में मिला।
वह अभिरामदास के शिष्य थे, जिन्होंने 22-23 दिसंबर 1949 की रात प्राकट्य के बाद रामलला की मूर्ति उनकी जन्मभूमि से हटाए जाने के प्रयासों को विफल करने के लिए जान लड़ा दी थी। रामलला का विग्रह नए गर्भगृह में स्थापित किए जाने की तैयारियों के बीच आचार्य सत्येंद्रदास से हमारे संवाददाता रघुवरशरण ने विभिन्न पहलुओं पर बातचीत की -
प्रश्न - आप 32 वर्ष से रामलला के दुख-सुख के साथी हैं। आज जब उनकी नव्य-भव्य मंदिर में स्थापना होने जा रही है, तब कैसा अनुभव हो रहा है?
उत्तर - बहुत प्रसन्नता-बहुत आनंद। जितना दुख था, उससे बहुत अधिक सुख मिल रहा है। मैं तो फरवरी 1992 में रामलला का पुजारी बना। तब रामलला को अपनी गरिमा के अनुरूप निर्विवाद मंदिर की जरूरत थी।
उस समय भी रामलला की गरिमा से न्याय नहीं हो पा रहा था, किंतु छह दिसंबर 1992 को ढांचा गिराए जाने के बाद से रामलला की पूजा-अर्चना एवं भोग-राग की व्यवस्था और भी संकुचित हो गई थी।
साल में एक बार कपड़े सिले जाते थे। सिर पर छत के नाम पर बांस के जर्जर ढांचे पर पड़ा तिरपाल था। इस विडंबना के विपरीत आज की भव्यता तो कल्पनातीत है। न केवल भव्यतम मंदिर बना है, बल्कि श्रेष्ठतम नगरी निर्मित हो रही है और प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन की तैयारी भी कीर्तिमान गढ़ रही है।
प्रश्न - नव्य-भव्य मंदिर के निर्माण से पूरी दुनिया के रामभक्त उत्साहित हैं। इस परिदृश्य पर क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर - Ram Mandir : यह स्वाभाविक है। यह अवसर वैसा ही है, जैसा श्रीराम के वन से लौटने के बाद का था। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, रामराज बैठे त्रैलोका/ हरषित भए गए सब सोका। यानी राम के सिंहासन पर बैठने के बाद हर्ष व्याप्त हो गया और सारे शोक तिरोहित हो गए।
22 जनवरी को विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा वस्तुत: श्रीराम का राज्याभिषेक ही है। इस अवसर पर न केवल भारत अखंड, विश्व गुरु और सोने की चिड़िया बनने की ओर होगा, बल्कि दुनिया का भी शोक दूर होगा। राम का अर्थ ही आनंद है।
प्रश्न - आप लंबे समय से उस विग्रह का पूजन करते रहे, जो 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में प्रकट हुआ था। 22 जनवरी से आपको नवनिर्मित मंदिर में नवनिर्मित विग्रह का पूजन करना है। इसके लिए क्या तैयारी है?
उत्तर- मैं बहुत उत्साहित हूं। उपास्य पात्रों के आह्वान में किंचित संशोधन के संकेत हैं, किंतु मैं उसी भाव और समर्पण से ही नए गर्भगृह में रामलला की पूजा करूंगा।
प्रश्न - नए विग्रह की प्रतिष्ठा के बाद पुराना विग्रह उपेक्षित तो नहीं हो जाएगा?
उत्तर- यह आशंका निर्मूल है। पुराने विग्रह की प्रामाणिक गरिमा है। सुप्रीम कोर्ट से सफलता भी विराजमान रामलला को मिली, जो 22 जनवरी 1949 को प्रकट हुए और आज वैकल्पिक गर्भगृह में स्थापित हैं और कल को नए गर्भगृह में भी स्थापित किए जाएंगे।
भव्य मंदिर में भव्य विग्रह की आवश्यकता स्वाभाविक थी और इसी तथ्य को ध्यान में रख कर नए विग्रह की स्थापना की जा रही है। दोनों विग्रह देखने में भले अलग होंगे, किंतु वह श्रीराम की परात्पर शक्ति और चेतना से एक समान अनुप्राणित होंगे।
प्रश्न - रामजन्मभूमि की मुक्ति असंभव प्रतीत होती थी। एक पुजारी के रूप में आप क्या उम्मीद करते थे?
उत्तर- यह संभावना मुझे कभी असंभव नहीं प्रतीत हुई। मुझे सदैव यह विश्वास रहा कि न्याय और सत्य की जीत होगी, जिसकी इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता, उस भगवान श्रीराम के मंदिर को लेकर कोई संदेह नहीं था।
प्रश्न - भगवान की ही इच्छा से यदि मंदिर बन रहा है, तो क्या टूटा भी उन्हीं की इच्छा से?
उत्तर- हां। वह अपने भक्तों की परीक्षा लेना चाहते थे। भक्तों को 495 वर्ष का वक्त लगा, किंतु अंतत: वे इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।