राज कुमार सिंह। भाजपा के स्वीकार न करने से यह सच नहीं बदल जाएगा कि 18वीं लोकसभा चुनाव में उसे बड़ा झटका लगा। पांच साल के शासन के बाद 2019 में पिछली बार से भी 21 सीटें ज्यादा जीतने वाली भाजपा इस बार 240 पर सिमट गई। 1984 में दो सीटों से 2019 में 303 सीटों तक का सफर तय करने वाली भाजपा इस झटके को नजरअंदाज नहीं कर सकती, लेकिन चुनावी प्रदर्शन की समीक्षा से कई राज्यों में असंतोष के जो स्वर मुखर हो रहे हैं, उनसे लगता है कि कमजोरियों की जांच-पड़ताल गलत दिशा में जा रही है। कमजोर प्रदर्शन के कारणों की पहचान अंतर्कलह को हवा दे रही है।

निश्चय ही कमजोर प्रदर्शन के कुछ कारण रहे होंगे, पर उनकी पहचान नीति-रणनीति के बजाय सिर्फ व्यक्तियों के रूप में किए जाने का रास्ता अंतत: आत्मघाती अंतर्कलह को जन्म देता है। 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 400 से भी ज्यादा सीटें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति से मिली थीं, लेकिन वही कांग्रेस 2014 में 44 और 2019 में 52 सीटों पर सिमट गई तो उसके लिए उसका अंतर्कलह भी जिम्मेदार रहा।

18 वीं लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने लिए 370 और राजग के लिए 400 सीटों का नारा दिया था, लेकिन परिणाम दावों से बहुत कम आए। चुनाव से पहले जुड़े तेदेपा और जदयू जैसे सहयोगियों की बदौलत राजग ने बहुमत से भी 19 ज्यादा यानी 293 सीटें हासिल कर लीं, लेकिन उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक और बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक भाजपा का चुनावी प्रदर्शन निराशाजनक रहा।

हर राज्य के अपने राजनीतिक-सामाजिक समीकरण होते हैं। इसलिए हर राज्य में हार के कारणों की समीक्षा में एक फार्मूला नहीं चल सकता। हां, एक कारण ज्यादातर राज्यों में समान हो सकता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री मोदी के करिश्मे पर निर्भर संगठन ज्यादा सक्रिय नहीं हुआ। कार्यकर्ता कमर कसकर मैदान में नहीं उतरे। जब बड़े नेता दावा कर रहे थे कि देश ने इस बार 400 पार का मन बना लिया है तो शायद कार्यकर्ताओं को पिछले दो चुनावों की तरह ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ जैसे जुनून के साथ काम करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई।

इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव वाले महाराष्ट्र में राजग की सीटें आधी से भी कम रह जाना, हरियाणा में आधी सीटें हार जाना और झारखंड में 12 से आठ पर आ जाना भाजपा के लिए कम झटका नहीं है। बंगाल में सीटें बढ़ने के दावों के बीच 18 से भी घटकर 12 रह जाना भी बड़ा झटका है। झटका कर्नाटक और राजस्थान में भी लगा। हाल में जिन सात राज्यों में 13 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुए, उनमें भी मध्य प्रदेश के अलावा भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा।

ऐसे में कमतर प्रदर्शन के कारणों की समीक्षा और भी जरूरी है, लेकिन यह सुनिश्चित करना आलाकमान की जिम्मेदारी है कि इसकी आड़ में महत्वाकांक्षी नेता अंतर्कलह को हवा न दें पाएं। पार्टी में ही अपने विरोधियों पर निशाना साधने की कोशिश अन्य राज्यों में भी है, लेकिन उत्तर प्रदेश में तो यह कवायद पूरी तरह अंतर्कलह में तब्दील नजर आती है।

जब भाजपा के अंदर से ही यूपी में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों को हवा दी जा रही हो तो फिर मुख्य विपक्षी दल सपा के मुखिया अखिलेश यादव ‘सौ लाओ, सरकार बनाओ’ का मानसूनी आफर देने से क्यों चूकेंगे? सच है कि भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बदलने का संकेत नहीं दिया, लेकिन यह भी तो सच है कि लोकसभा चुनाव बाद और जोर पकड़ गईं ऐसी अटकलों का खंडन भी नहीं किया।

2014 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 80 में 71 सीटें जीतने का करिश्माई प्रदर्शन किया था, तब योगी सिर्फ एक सांसद थे। उस समय केशव प्रसाद मौर्य प्रदेश अध्यक्ष और अमित शाह मुख्य चुनावी रणनीतिकार थे, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद योगी राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी के स्टार प्रचारक के रूप में उभरे। आज प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह के साथ वही भाजपा का तीसरा बड़ा चेहरा हैं।

बुलडोजर न्याय की चौतरफा आलोचना के बावजूद राज्य की शासकीय व्यवस्था में सुधार से इन्कार नहीं किया जा सकता। निःसंदेह 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटें घट कर 62 रह गई थीं और 2022 के विधानसभा चुनाव में भी सीटें घटीं, लेकिन क्या उसके लिए अकेले योगी को जिम्मेदार ठहराना तर्कसंगत है? केशव प्रसाद मौर्य तो अपनी विधानसभा सीट हारने के बाद भी उप मुख्यमंत्री बनाए गए।

क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन बड़ा कारक नहीं रहा? क्या दिल्ली की सीमाओं पर साल भर चला किसान आंदोलन 2022 के विधानसभा चुनाव में प्रमुख कारक नहीं था? फिर भी भाजपा लोकसभा की 80 में से 62 सीटें जीत गई और सुविधाजनक बहुमत से दूसरी बार सरकार भी बना ली तो क्या उसका तनिक भी श्रेय मुख्यमंत्री को नहीं मिलना चाहिए?

योगी की अपनी कार्यशैली है। वह राजनीतिक हानि-लाभ के गुणा-भाग और किसी दबाव के बिना जो सही लगता है, वही फैसला लेते हैं, पर क्या मुख्यमंत्री बनाते समय यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता नहीं थी? असल कारण तो आलाकमान ही बेहतर जानता होगा, लेकिन अगर दोनों उप मुख्यमंत्री ही कैबिनेट समेत जरूरी बैठकों में शामिल होना जरूरी न समझें तो सार्वजनिक रूप से मुख्यमंत्री की क्या छवि बनेगी?

राज्य में समीक्षा बैठकों के बाद शायद पहली बार दिल्ली में दोनों उपमुख्यमंत्री मुख्यमंत्री के साथ नजर आए। किसी राज्य का मुख्यमंत्री बदलना कोई अनहोनी घटना नहीं। कांग्रेस में तो एयरपोर्ट पर ही मुख्यमंत्री बदलने का फरमान सुना दिया जाता था। भाजपा ने भी कभी दिल्ली तो कभी उत्तराखंड में बीच कार्यकाल मुख्यमंत्री बदले।

गुजरात में तो पहली बार के विधायक भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाते हुए पूरा मंत्रिमंडल ही बदल दिया गया, पर क्या चेहरा बदल देना भर चुनाव जीतने की गारंटी है? जिन राज्यों में चुनावी प्रदर्शन निराशाजनक रहा, वहां बेहतरी के लिए भाजपा आलाकमान को कदम उठाने ही चाहिए, लेकिन इस तरह नहीं कि अनुशासित पार्टी की परंपरागत छवि को तार-तार होकर अंतर्कलह मीडिया की सुर्खियों से लेकर चौपालों तक पर चर्चा का विषय बन जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)