उमेश चतुर्वेदी। दो महत्वपूर्ण राज्यों-महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। अभी-अभी हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में नई विधानसभाओं का गठन हुआ है। विपक्षी मोर्चे आइएनडीआइए के लिए ये चुनाव चुनौतीपूर्ण और महत्वपूर्ण भी हैं। इसलिए इसके नेताओं की सक्रियता इन दिनों बढ़ गई है।

अतीत में ऐसे मौकों पर विपक्षी गठबंधन की एक प्रमुख नेता ममता बनर्जी न सिर्फ मुखर रहती थीं, बल्कि खूब सक्रियता से भाजपा को शिकस्त देने की रणनीति बनाने में जुटी भी रहती थीं, लेकिन इन दिनों वह चुप हैं। लगातार सक्रिय और संघर्षरत रहने वाली कोई राजनीतिक हस्ती जब चुप्पी साध लेती है तो सवाल उठना स्वाभाविक होता है। दिलचस्प है कि इस चुप्पी पर सवाल भी नहीं उठ रहे हैं।

नरेन्द्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए पिछले साल 23 जून को पटना में विपक्षी दलों की बैठक की अगुआई भले ही नीतीश कुमार ने की थी, लेकिन उसकी अहम रणनीतिकार बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी थीं। उन्होंने ही नीतीश कुमार को पटना में बैठक बुलाने का सुझाव दिया था। तब प्रधानमंत्री मोदी को शिकस्त देने की हर रणनीति और बैठक में ममता बनर्जी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं, लेकिन संघर्ष और सक्रियता के लिए राजनीतिक हलकों में विख्यात ममता बनर्जी इन दिनों चुप हैं।

देश की कौन कहे, अब तो बंगाल तक में उनकी मुखर आवाज नहीं सुनाई दे रही। बंगाल में छह विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में भी उनकी कहीं उपस्थिति नजर नहीं आ रही है। कहा जा रहा है कि कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कालेज की प्रशिक्षु डाक्टर के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या से उबले बंगाल ने ममता बनर्जी को झकझोर दिया है। इससे उन्हें गहरा सदमा लगा है।

बंगाल का समाज अपने बुद्धिजीवियों की बड़ी इज्जत करता है। आरजी कर मेडिकल कालेज कांड के बाद बंगाल का बुद्धिजीवी समाज ममता सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आया। सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलन के दौरान तत्कालीन बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार के खिलाफ भी कुछ इसी अंदाज में बंगाल का बौद्धिक तबका सड़कों पर उतर आया था। बंगाल में जब भी वहां का बुद्धिजीवी सड़कों पर उतरता है, तब राज्य में सत्ता परिवर्तन जरूर होता है। प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल बताया है।

हिंदीभाषी क्षेत्रों में उनका कथन कम ही चरितार्थ होता नजर आया है, लेकिन बंगाल के संदर्भ में प्रेमचंद का यह कथन सटीक बैठता है। कभी ममता बनर्जी के साथ बंगाल का जो बुद्धिजीवी वर्ग उठ खड़ा हुआ था, वही बुद्धिजीवी समाज अब उनके खिलाफ आक्रोश से उबलता दिख रहा है। वह सिर्फ सड़कों पर ही नहीं उतर रहा, बल्कि ममता सरकार के भ्रष्टाचार और नाकामियों को लेकर नाटक भी खेल रहा है। इस प्रकार वह नुक्कड़ सभाओं में ममता सरकार की कारगुजारियों को जनता के सामने गिना रहा है।

आज भाजपा को लोकसभा में बहुमत नहीं है तो इसकी बड़ी वजह बंगाल भी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा ने 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी, लेकिन 2024 के चुनाव में उसे छह सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। जबकि पार्टी वहां से 30 सीटों की उम्मीद कर रही थी। भाजपा की इस नाकामी की एक बड़ी वजह ममता बनर्जी का संघर्षशील चरित्र रहा।

उन्होंने अपने संघर्ष और जुझारू रुख से पासा पलट दिया। लोकसभा में कांग्रेस और सपा के बाद ममता की तृणमूल कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी है। बंगाल की भूमि पर भाजपा के अश्वमेध रथ को रोककर ममता बनर्जी विपक्षी गठबंधन में और अहम तथा ताकतवर होकर उभरी थीं, मगर आरजी कर मेडिकल कालेज की भयावह घटना ने उनकी नाकामियों और प्रशासनिक खामियों के साथ ही उनकी संकीर्ण राजनीति की भी पोल खोलकर रख दी है। बंगाल के लोकमानस में उबाल और उसे मिल रहे बौद्धिकों के नेतृत्व ने तृणमूल कांग्रेस को एक तरह से बैकफुट पर धकेल दिया है।

इसमें दोराय नहीं कि महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में सीधे तौर पर ममता बनर्जी का कुछ भी दांव पर नहीं है, लेकिन इसके साथ बंगाल में हो रहे उपचुनाव में उनकी पार्टी के प्रदर्शन पर सबकी नजरें होंगी। ममता बनर्जी अपने उभार के शुरुआती दिनों यानी 2012 के हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अलग पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतर गई थीं। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी ताल ठोकने का उन्होंने एलान कर दिया था।

तब की तरह भले ही वह आज झारखंड या महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में नहीं उतरतीं, लेकिन भाजपा को शिकस्त देने के लिए ये विधानसभा चुनाव और उपचुनाव ममता बनर्जी के लिए महत्वपूर्ण मौका हो सकते थे, लेकिन वह अपने स्वभाव के अनुरूप आक्रामक अंदाज में इस मौके की अनदेखी कर रही हैं। संघर्षशील और जुझारू ममता के स्वभाव में बदलाव आना मामूली बात नहीं है।

इसे भारतीय राजनीति पता नहीं कितना समझ रही है, लेकिन बंगाल में महसूस होने लगा है। अब उनके समर्थक भी मानने लगे हैं कि ममता के लिए आने वाले दिन आसान नहीं रहने वाले। बेशक बंगाल विधानसभा चुनावों में अभी करीब पौने दो साल का वक्त है। तब तक क्या होगा, कहना मुश्किल है। कई बार कोई छोटी घटना भी राजनीतिक हालात को बदल देती है और उसके चलते संभावित चुनावी नतीजे भी बदल जाते हैं।

बंगाल के अगले विधानसभा चुनाव नतीजों को लेकर अभी से सटीक अंदाजा लगा पाना संभव नहीं है, लेकिन अगर आज के हिसाब से ममता बनर्जी के स्वभाव में दिख रहे बदलाव को परखें तो पाएंगे कि वह अपने सियासी जीवन के कठिन दौर से गुजर रही हैं। यही वजह है कि विपक्षी खेमे की धुरी के तौर पर खुद को देखने-दिखाने की आदी रहीं ममता बनर्जी विधानसभा चुनावों और उपचुनावों में सक्रिय नहीं दिख रहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)