संजय गुप्त। चार वर्ष पहले जब चीनी सेना ने लद्दाख में गलवन घाटी में घुसपैठ की थी तो उसकी भारतीय सैनिकों से खूनी झड़प हुई थी। इस झड़प में 20 भारतीय सैनिक बलिदान हुए थे और चीनी सेना को भी अच्छी-खासी क्षति उठानी पड़ी थी। यह बात और है कि चीन ने यह नहीं बताया कि उसके कितने जवान भारतीय सैनिकों के हाथों मारे गए। इस घटना के बाद चीन और भारत के संबंध पटरी से उतर गए। कुछ समय बाद गलवन घाटी और आसपास तो पहली जैसी स्थिति बहाल हो गई थी, लेकिन चीनी सेना ने लद्दाख में ही अन्य स्थानों और विशेष रूप से देपसांग और डेमचोक में अतिक्रमणकारी रवैया अपना लिया। इसी कारण चीन जाने वाली अपनी विमान सेवाओं को बंद कर करने के साथ उसके खिलाफ जो अन्य कदम उठाए गए, उन्हें वापस लेने के लिए भारत तैयार नहीं हुआ। इन कदमों में चीनी निवेश पर रोक लगाना और चीनी कारोबारियों को वीजा देने के नियम सख्त करना भी था।

सीमा पर तनाव के चलते भारत और चीन में आर्थिक-व्यापारिक सहयोग की पहल भी ठंडे बस्ते में चली गई। जहां भारत का जोर इस पर था कि सीमा पर चार वर्ष पहले वाली स्थिति बहाल की जाए, वहीं चीन का आग्रह था कि सीमा विवाद भूलकर आगे बढ़ा जाए। यह चीन की चालाकी थी। भारत ने उसकी चालबाजी को समझा और अपने रवैये से टस से मस नहीं हुआ। इसी के चलते पिछले दिनों ब्रिक्स सम्मेलन के पहले चीन नियंत्रण रेखा पर चार वर्ष पहले वाली स्थिति बहाल करने को राजी हुआ और दोनों देशों में इसे लेकर सहमति बनने की खबर आई-पहले भारत की ओर से, फिर चीन की ओर से। इस सहमति के कारण ही रूस में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच करीब पांच वर्षों बाद द्विपक्षीय वार्ता हुई, जिसमें सीमा पर यथास्थिति कायम रखने पर बल दिया गया। भारत-चीन में बनी सहमति को लागू करने के लिए दोनों देश मिलकर काम कर रहे हैं। आशा है कि इसी माह के अंत तक यथास्थिति बहाल हो जाएगी।

भारत और चीन में सैन्य तनाव घटाने को लेकर जो सहमति बनी, उसे लेकर किस स्तर पर क्या बात हुई, यह तो शायद ही कभी सामने आए, लेकिन दोनों देशों के बीच तनाव दूर होना स्वागतयोग्य है। इसके बाद भी बहुत अधिक उत्साहित नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि चीन अपने विस्तारवादी एजेंडे के तहत रह-रहकर नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति में बदलाव की कोशिश करता रहता है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि वह आगे भारत को तंग करने के प्रयास नहीं करेगा। इस पर हैरानी नहीं कि सैन्य तनाव घटाने को लेकर सहमति बनने के बाद देश में यह स्वर आम है कि चीन से सावधान रहा जाना चाहिए। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि नियंत्रण रेखा पर चीन इसलिए पीछे हटने को तैयार हुआ, क्योंकि उसे अपने आर्थिक हितों की रक्षा करने में कठिनाई पेश आ रही थी। चीनी कारोबारियों को भारत में निवेश करने में समस्या तो हो ही रही थी, चीन इससे भी चिंतित था कि भारत उसके विस्तारवादी एजेंडे के खिलाफ पश्चिमी देशों का सहयोग ले रहा है और उसके यहां से होने वाले आयात को कम करने की कोशिश भी कर रहा है। भारत यह कोशिश अवश्य कर रहा था, लेकिन वह उसमें बहुत सफल नहीं हो पा रहा था। तमाम उपायों के बाद भी चीन से होने वाले आयात में कमी नहीं आ पा रही थी। भारत से चीन को होने वाले निर्यात में भी कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हो पा रही थी। इसके अलावा कारोबार जगत में यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय उद्योगों को आगे बढ़ने के लिए चीनी निवेश का सहारा चाहिए।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गलवन की घटना के बाद चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करने और भारत को आत्मनिर्भर बनाने की तमाम बातों के बाद भी भारतीय कारोबारी चीनी कारोबारियों का सामना करने की स्थिति में नहीं आ पाए। आज शायद ही कोई भारतीय उदयोग ऐसा हो, जिसकी निर्भरता चीन से आयात होने वाले कलपुर्जों या अन्य उत्पादों पर न हो। चीन भारत के कारोबारियों की जरूरत की प्रत्येक सामग्री उपलब्ध कराने में जिस आसानी से सक्षम है, उतनी सक्षमता अन्य किसी देश में नहीं। इसी कारण भारतीय कारोबारियों को चीन पर निर्भर रहना पड़ रहा है। इस निर्भरता का संज्ञान भारत सरकार के अर्थशास्त्रियों ने भी लिया और पिछले आर्थिक सर्वे में यह कहा गया कि भारत को चीन से आयात बढ़ाए बिना चीनी निवेश के लिए अपने दरवाजे खोलने चाहिए। इस सर्वे के अनुसार ऐसा करके भारत ग्लोबल सप्लाई चेन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा सकता है। आज यदि चीन ग्लोबल सप्लाई चेन का केंद्र है तो इसीलिए कि उसके कारोबारी अपने उत्पादों की गुणवत्ता विश्वस्तरीय बनाने में सक्षम हो गए हैं। भारत को ग्लोबल सप्लाई चेन का हिस्सा बनने की जरूरत है। इसके लिए चीनी निवेश की मदद ली जा सकती है, लेकिन इसके प्रति सतर्क रहना होगा कि चीनी वस्तुओं के आयात के कारण चीन के साथ व्यापार घाटा और न बढ़ने पाए। सीमा पर सैन्य तनाव दूर होने के बाद चीन के साथ संबंध सामान्य करने के नाम पर ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, जिससे वह अपने आर्थिक-व्यापारिक एजेंडे को पूरा करने में समर्थ हो जाए।

इससे इन्कार नहीं कि मोदी सरकार ने पिछले चार सालों में देश में मैन्‍यूफैक्‍चरिंग को बढ़ावा देने के लिए पीएलआइ स्‍कीम और मेक इन इंडिया के जरिये तमाम उपाय किए, लेकिन उनका असर कुछ ही सेक्‍टरों में दिख रहा है और अभी यह नहीं कहा जा सकता कि ये सेक्‍टर चीन से आ रहे कच्‍चे माल या उपकरणों पर निर्भर नहीं हैं। इसका एक कारण देश के पूंजीपतियों का रवैया है, जो रिसर्च और डेवलपमेंट में निवेश करने और अपने उत्पादों की गुणवत्ता विश्वस्तरीय बनाने को प्रतिबद्ध नहीं। हमारे पूंजीपतियों की यही कमी चीन को भारत में आर्थिक-व्यापारिक तौर पर अपनी पकड़ बरकरार रखने का मौका दे रही है। भारत को नियंत्रण रेखा पर सतर्क रहने के साथ इससे भी सावधान रहना होगा कि चीन उस पर आर्थिक रूप से हावी न होने पाए।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]