संजय गुप्त। संसद का बजट सत्र शुरू होने जा रहा है और यह स्वाभाविक ही है कि सबकी निगाहें मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के पहले आम बजट पर होंगी। बजट में क्या होगा, यह तो उसके सामने आने पर ही पता चलेगा, लेकिन सरकार को जिन पहलुओं पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए, उनमें प्रमुख है भारत मैन्यूफैक्चिरंग का गढ़ कैसे बने? चार वर्ष पहले जब गलवन में चीनी सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों की खूनी भिड़ंत हुई थी, तब भारत में चीन के प्रति आक्रोश की लहर उमड़ पड़ी थी और तमाम लोगों ने चीनी वस्तुओं को जलाने के साथ उनके बहिष्कार का अभियान छेड़ दिया था। गलवन की घटना के कारण भारत ने चीनी एप्स पर प्रतिबंध लगाने के साथ अपने आत्मनिर्भर अभियान को और तेज किया था। चूंकि उन्हीं दिनों चीन की अमेरिका के साथ तनातनी बढ़ रही थी, इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि इसका लाभ भारत को मिलेगा।

जब चीन से निकली कोरोना महामारी ने दुनिया भर में कहर ढाया और चीन के प्रति लोगों की नाराजगी बढ़ने के चलते पश्चिमी देशों ने यह समझा कि चीन पर निर्भरता कम करने की जरूरत है तो इन देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वहां से निकलना शुरू किया। तब यह माना गया था कि पश्चिमी देशों की चीन में स्थापित बहुराष्ट्रीय कंपनियां वहां से निकलकर भारत आएंगी। उन दिनों भारत सरकार भी यह आशा कर रही थी कि दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से पलायन कर भारत को अपने मैन्यूफैक्चरिंग केंद्र के रूप में प्राथमिकता देंगी। एपल जैसी कुछ कंपनियों ने तब भारत में अपने पैर भी जमाए और भारत में अपनी मैन्यूफैक्चरिंग का दायरा भी बढ़ाया। उसी दौरान सरकार पीएलआइ यानी उत्पादन आधारित प्रोत्साहन जैसी पहल के साथ आगे आई। पीएलआइ का उद्देश्य देसी-विदेशी कंपनियों को भारत में अपनी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना था और इसीलिए उनके लिए राहत का पिटारा भी खोला गया।

निःसंदेह पीएलआइ के जरिये कुछ सफलता हासिल हुई, लेकिन यह आयात पर एक बड़ी हद तक कायम निर्भरता को दूर करने में नाकाम रही। आज स्थिति यह है कि लगभग हर क्षेत्र की कंपनियां विभिन्न श्रेणियों में आयात पर निर्भर हैं। इस आयात में एक बड़ा हिस्सा चीन से आने वाली वस्तुओं का है। बीते एक दशक से जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग की हिस्सेदारी करीब 15 प्रतिशत के स्तर पर अटकी हुई है। यह तब है, जब एक के बाद एक सरकारों के दौर में इसे 25 प्रतिशत तक ले जाने की योजनाएं बनाई गईं। स्पष्ट है कि ये योजनाएं अभी तक सिरे चढ़ती नहीं दिख रहीं।

मोदी सरकार को अपने आगामी बजट का उपयोग औद्योगिक गतिविधियों में नई जान फूंकने के लिए करना चाहिए। सरकार को एमएसएमई और लार्ज स्केल मैन्यूफैक्चरिंग के मोर्चे पर कायम चुनौतियों के समाधान को अपनी प्राथमिकता सूची में शामिल करना होगा। सरकार को इस मामले में गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि आखिर भारतीय विनिर्माताओं की उद्यमशीलता की भावना पर क्यों ग्रहण लगता जा रहा है? क्या कारण है कि वे चीनी कंपनियों का मुकाबला करने के लिए कमर नहीं कस पा रही हैं? आखिर ऐसा परिवेश किन कारणों से कायम है कि भारतीय कंपनियां आयात पर निर्भरता घटाने के लिए शोध एवं विकास में निवेश के बजाय चीनी वस्तुओं से लेकर वहां बने पुर्जों के आयात को प्रथामिकता देती आ रही हैं?

यह प्रश्न अनुत्तरित रहना ठीक नहीं कि जिन तमाम वस्तुओं का देश में सहजता से निर्माण संभव है, उन्हें तमाम एशियाई देशों और खासतौर से चीन से क्यों मंगाया जा रहा है? इस प्रश्न की तह तक जाने से यह पता चलता है कि देश में उन सुधारों का अभाव दिखता है, जो विनिर्माताओं में भरोसे का संचार कर सकें। मिसाल के तौर पर श्रम सुधारों की कड़ी एमएसएमई से जुड़ी हुई है। पुराने श्रम कानूनों से उनके हित प्रभावित हो रहे हैं। श्रम कानूनों के मामले में जटिल नियमों का मकड़जाल बना हुआ है। इनके चलते किसी भी कारोबारी गतिविधि के मोर्चे पर अनावश्यक रूप से अधिक समय लगता है। यह स्थिति केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर बनी हुई है, जिसका लगातार असर विनिर्माताओं के मनोबल पर पड़ता है। सरकार की ओर से इन नियमों को सरल एवं सहज बनाने के अनगिनत दावे किए जाने के बावजूद वास्तविकता यही है कि इनमें से तमाम नियम-कानून अभी भी पुराने जमाने के हैं, जिनकी प्रकृति शोषणकारी है। इसमें विनिर्माताओं के लिए वैसे प्रोत्साहनों का अभाव है, जो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की तमाम अर्थव्यवस्थाओं में बहुत आसानी से उपलब्ध हैं। यही कारण है कि ये देश निवेश के आकर्षक ठिकाने और मैन्यूफैक्चरिंग गतिविधियों के गढ़ बने हुए हैं।

यह एक तथ्य है कि चीन से निकली कंपनियां भारत आने के स्थान पर दक्षिण पूर्वी एशियाई देश जाना पसंद कर रही हैं। स्पष्ट है कि उन कारणों का भी पता लगाने की जरूरत है, जिनके चलते तमाम भारतीय उद्यमी अपनी जमीनों पर नए मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट लगाने या अपने कारोबार का विस्तार करने के बजाय इन जमीनों को बेचना कहीं अधिक पसंद कर रहे हैं। इसके क्या कारण हो सकते हैं? क्या उन्हें श्रम सुधारों को लेकर सरकारी नीतियों पर भरोसा नहीं है या फिर कोई अन्य नियम-कानून उनकी राह रोकते दिख रहे हैं? समय आ गया है कि इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाए। ऐसा करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना चीन की चुनौती का सामना नहीं किया जा सकता। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि चीन के साथ अनेक देशों से व्यापार घाटा बढ़ने का एक कारण भारतीय कंपनियों का उन अनेक वस्तुओं का निर्माण न कर पाना है, जो देश में आसानी से निर्मित हो सकती हैं। भारतीय कंपनियों की इस कमजोरी का कारण इनोवेशन का अभाव, औसत भारतीय श्रमिकों की कम उत्पादकता और चीन से मुकाबला करने की इच्छाशक्ति का अभाव है। भारत सरकार को यह देखना होगा कि भारतीय कंपनियों की यह कमजोरी दूर हो। इस पर इसलिए भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि इससे रोजगार के नए अवसर पैदा करने में भी आसानी होगी। सरकार को यह समझना होगा कि बेरोजगारी की समस्या को दूर करने में लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योग कहीं अधिक सहायक है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]