राज कुमार सिंह। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के रिश्ते लोकसभा चुनाव के बाद फिर बदल रहे हैं। आईएनडीआईए में शामिल इन दोनों दलों ने दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, गुजरात और गोवा में लोकसभा चुनाव मिल कर लड़ा था, पर परिणाम अपेक्षित नहीं आए। चंडीगढ़ से कांग्रेस उम्मीदवार मनीष तिवारी की जीत के अलावा दोनों दलों की दोस्ती कहीं करिश्मा नहीं दिखा सकी।

चार जून को लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से ही आप की ओर से संकेत आने लगे थे कि अगले साल होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव दोनों दल अलग-अलग लड़ सकते हैं। अब कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने दो टूक कह दिया है कि दोनों दलों में गठबंधन लोकसभा चुनाव के लिए ही था, जो विधानसभा चुनावों में संभव नहीं हो पाएगा। उन्होंने हरियाणा में भी गठबंधन से स्पष्ट इन्कार कर दिया, जहां लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आप के लिए कुरुक्षेत्र सीट छोड़ी थी।

हरियाणा में नौ लोकसभा सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस अप्रत्याशित रूप से पांच सीटें जीत गई। ऐसा मानने वालों की कमी नहीं कि अगर कुरुक्षेत्र सीट आप को नहीं दी गई होती तो शायद कांग्रेस उसे भी जीत लेती। गठबंधन कमाल तो गुजरात में भी नहीं कर पाया, जहां कांग्रेस ने लंबे समय तक पार्टी के लिए चाणक्य की भूमिका निभाने वाले अहमद पटेल की भरूच के साथ ही भावनगर लोकसभा सीट भी आप को दे दी थी, लेकिन सबसे निराशाजनक परिणाम दिल्ली ने दिए।

वर्ष 2017 में लगातार तीसरी बार अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली विधानसभा चुनाव में जबरदस्त बहुमत से आप की सरकार बनी, लेकिन लोकसभा चुनाव में आप का कभी खाता नहीं खुला। आप के उभार का सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ है, लेकिन दोनों ने सोचा कि शायद मिल कर लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोका जा सकता है।

भाजपा ने सात में से छह सीटों पर उम्मीदवार बदले, तो लगा भी कि शायद पार्टी आशंकित है, लेकिन परिणाम फिर शत-प्रतिशत रहा। दिल्ली में एक भी सीट पर ऐसा नजदीकी मुकाबला नहीं हुआ कि लगता बाजी पलट भी सकती थी। ऐसा क्यों? उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम के मद्देनजर देखें तो लगता है कि दोनों ही न तो दिल से मिल कर चुनाव लड़ पाए और न ही अपने वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर करा पाए।

आप के साथ गठबंधन के विरोध में दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली समेत कई वरिष्ठ नेता कांग्रेस भी छोड़ गए। दिल्ली के संदर्भ में एक कोण और भी है। यहां आप की लगातार तीसरी सरकार है। इसलिए उसके विरुद्ध भी सत्ता विरोधी भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। तब क्या कांग्रेस-आप गठबंधन के चलते सत्ता विरोधी वोट बिना विभाजित हुए भाजपा के लिए मददगार साबित हुए? इस सवाल का सटीक उत्तर संभव नहीं, लेकिन पंजाब के लोकसभा चुनाव परिणाम इसी ओर संकेत करते हैं।

दिल्ली की तरह पंजाब की सत्ता भी आप ने कांग्रेस से छीनी। फर्क इतना रहा कि कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ जैसे प्रमुख नेताओं के पार्टी छोड़ जाने के बावजूद कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल बनने में सफल रही। सत्ता विरोधी वोटों का विभाजन रोकने के मकसद से दोनों दल पंजाब में अलग-अलग चुनाव लड़े और प्रदर्शन अच्छा रहा।

लोकसभा चुनाव से पहले आप के एकमात्र सांसद सुशील कुमार रिंकू तथा कांग्रेस के दो सांसद परनीत कौर एवं रवनीत सिंह बिट्टू भी भाजपा में शामिल हो गए। फिर भी पिछली बार आठ लोकसभा सीटें जीतने वाली कांग्रेस इस बार सात और मात्र एक सीट जीतने वाली आप तीन सीटें जीतने में सफल रहीं। इससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस और आप के अलग-अलग लड़ने की रणनीति ने पंजाब में भाजपा का खाता नहीं खुलने दिया।

अब कांग्रेस-आप गठबंधन टूटने से संभावित परिदृश्य की बात करते हैं। हरियाणा में इसी साल अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। पिछली बार 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा बहुमत के आंकड़े से छह सीटें पीछे रह गई थी और उसे 10 विधायकों वाली जजपा से गठबंधन कर दुष्यंत चौटाला को उपमुख्यमंत्री बनाना पड़ा था। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाई कांग्रेस ने उसी साल हुए विधानसभा चुनावों में 31 सीटों के साथ चौंकाने वाला प्रदर्शन किया था।

अब पांच लोकसभा सीटें जीतने से उत्साहित कांग्रेस विधानसभा में किसी के साथ सीटें नहीं बांटना चाहती। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा जिस तरह अन्य दलों के नेताओं को शामिल कर रहे हैं, उससे कांग्रेस में ही टिकट वितरण बड़ी चुनौती साबित होगा, पर क्या बहुकोणीय मुकाबला होने पर पिछले चुनाव जैसे नतीजों की आशंका नहीं रहेगी?

शायद दिल्ली और हरियाणा में कांग्रेस-आप के अलग-अलग चुनाव लड़ने से अलग-अलग परिदृश्य भी होगा, क्योंकि दोनों राज्यों की चुनौतियां भी अलग हैं। दिल्ली में सत्ता विरोधी मतों का विभाजन करना है, जबकि हरियाणा में वही विभाजन रोकना है। हां, आप को हरियाणा में जो भी वोट मिलेंगे, वे होंगे कांग्रेस के ही संभावित वोट। इसलिए उसकी मौजूदगी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाते हुए भाजपा को अप्रत्यक्ष लाभ ही पहुंचाएगी, जैसे कि गुजरात और गोआ विधानसभा चुनावों में हुआ था।

वैसे हरियाणा में आप की जो जमीनी हालत है, दिल्ली में कांग्रेस उससे तो ज्यादा ही मजबूत है। इसलिए सत्ता विरोधी वोटों में हिस्सा बांट कर वह भाजपा को नुकसान और आप को फायदा पहुंचा सकती है। यानी राज्य-दर-राज्य विपक्ष को अलग चुनावी रणनीति की जरूरत होगी।

जाहिर है, ऐसा जटिल संतुलन साधते हुए राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी आईएनडीआईए की एकजुटता और आक्रामकता को बनाए रखना विपक्ष के लिए बड़ी और कड़ी परीक्षा साबित होने जा रही है, क्योंकि महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार में भी विधानसभा चुनाव कुछ ही महीनों में होने हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)