जागरण संपादकीय: अपने भीतर झांके अमेरिका, भारत को उपदेश देने से बेहतर है कि अमेरिकी संस्थान अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर ध्यान दें
यूएससीआइआरएफ अमेरिका का एक राष्ट्रीय संस्थान है तो उसकी यह प्रस्तुति और हैरान करती है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव बस होने ही वाले हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि वहां के संस्थान अपने देश की उन भ्रंश रेखाओं पर ध्यान दें जिनके चलते हाल के वर्षों में उनके लोकतांत्रिक मूल्यों को व्यापक क्षति पहुंची है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर जानलेवा हमला इसका ही नतीजा माना जा रहा है।
ए. सूर्यप्रकाश। अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर गठित संयुक्त राज्य (अमेरिकी) आयोग यानी यूएससीआइआरएफ ने बीते दिनों अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में दावा किया गया कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है और इस गिरावट के लिए मुख्य रूप से भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जिम्मेदार है। आयोग के अनुसार भाजपा सरकार भेदभावपूर्ण राष्ट्रवादी नीतियों की राह पर चलते हुए नफरती विमर्श को बढ़ावा दे रही है।
सरकार-मुस्लिम, ईसाई, सिख, दलित, यहूदी और आदिवासी आदि तबकों की सांप्रदायिकता से रक्षा नहीं कर पा रही। उसका यह भी कहना है कि यूएपीए, एफसीआरए, सीसीए और मतांतरण विरोधी एवं गोहत्या पर शिकंजा कसने वाले कानूनों के जरिये भी न केवल इन तबकों, बल्कि उनके पक्ष में आवाज उठाने वालों का भी उत्पीड़न किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटाने का फैसला भी आयोग को पचा नहीं, जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी फैसले को सही पाया।
आयोग ने जम्मू-कश्मीर का एक ‘मुस्लिम बहुल’ राज्य के रूप में हवाला देते हुए वहां उत्पीड़न की बातों के साथ ही एक मुस्लिम पत्रकार की गिरफ्तारी का भी संदर्भ रखा। हालांकि, आयोग ने इस तथ्य के प्रति आंखों पर पूरी तरह से पट्टी बांधे रखी कि इसी एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य से करीब पांच लाख हिंदुओं को बेदखल कर दिया गया और वे अपने ही देश के दूसरे हिस्सों में शरणार्थियों का जीवन जीने पर विवश हैं। इस रिपोर्ट का सार समझें तो उसकी दृष्टि में हिंदुओं के जीवन का कोई मोल ही नहीं।
बुनियादी रूप से अमेरिकी रिपोर्ट आरोपों और अर्धसत्यों से भरी पड़ी है। इसमें यह कहीं उल्लेख नहीं किया गया कि भारत ‘राज्यों का एक संघ’ है, जहां राज्यों के पास व्यापक विधायी एवं प्रशासनिक अधिकार और कार्यक्षेत्र हैं। इसमें कानून एवं व्यवस्था का दारोमदार तो मुख्य रूप से राज्य सरकारों का है। अर्थात चाहे सांप्रदायिक हिंसा हो या कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर कोई अन्य चुनौती सामने आए तो उससे निपटने का दायित्व राज्यों में कमान संभाल रही सरकारों का है।
रिपोर्ट में इसका भी संज्ञान नहीं लिया गया है कि भारत में करीब 40 प्रमुख राजनीतिक दल हैं। उनमें से कुछ अलग-अलग गठबंधनों का हिस्सा हैं। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, बंगाल, झारखंड, हिमाचल और पंजाब जैसे राज्यों में तो भाजपा या राजग विरोधी सरकारें सत्तारूढ़ हैं।
इसके बावजूद रिपोर्ट में अन्य राजनीतिक दलों के शासन वाले राज्यों का उल्लेख नहीं। भाजपा विरोधी दलों के शासन वाले राज्यों में अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचारों का भी कोई जिक्र नहीं। बंगाल, उत्तर प्रदेश और केरल के मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदुओं को निशाना बनाने की घटनाओं पर भी रिपोर्ट मौन है।
अमेरिकी रिपोर्ट लगभग उसी दौरान आई जब विभिन्न देशों में लोकतंत्र की दशा-दिशा से जुड़ी प्यू की एक रिपोर्ट सामने आई। प्यू के सर्वे के अनुसार केवल 19 प्रतिशत अमेरिकी ही यह मानते हैं कि उनका लोकतंत्र अन्य देशों के लिए अनुकरणीय है। उनमें से कुछ युवाओं का तो यहां तक मानना रहा कि अमेरिकी लोकतंत्र कभी भी दूसरों के लिए एक आदर्श रहा ही नहीं।
दूसरी ओर, करीब 77 प्रतिशत भारतीय देश में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर संतुष्ट हैं। इस मामले में 80 प्रतिशत के आंकड़े के साथ सिंगापुर शीर्ष पर है। अगर किसी देश के नागरिकों का लोकतंत्र में इतना व्यापक विश्वास है तो क्या वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर सवाल उठाना उचित है? इन उत्तरदाताओं में अल्पसंख्यक नागरिक भी शामिल रहे होंगे।
जबकि अमेरिका में लोकतंत्र के प्रति धारणा खासी नकारात्मक है। ऐसी धारणा के पीछे एक पृष्ठभूमि है, जिसमें सदियों पुराने नस्लीय दंगों, हिंसक भीड़ के मामले, कैलिफोर्निया में नरसंहार, प्रवासियों को लेकर हुए दंगे, 1919 में शिकागो का नस्लीय दंगा और 1921 में तुलसा नस्लीय नरसंहार जैसे अध्याय शामिल हैं।
यह सिलसिला 2020 में श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा अश्वेत जार्ज फ्लायड की हत्या के बाद हुए विरोध-प्रदर्शनों तक जारी रहा। ऐसे में अमेरिकी आयोग को अपने भीतर झांकना चाहिए। वहां नस्लीय संघर्ष निरंतर काबू से बाहर होकर अमेरिका की लोकतांत्रिक साख पर बट्टा लगा रहा है। यह भी दुखद है कि इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों को न तो भारत की संवैधानिक व्यवस्था की कोई जानकारी है और न ही वे भारतीय राज्यों के सामाजिक एवं धार्मिक तानेबाने से ही परिचित हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार आठ राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक स्थिति में हैं। लक्षद्वीप में हिंदू 2.5 प्रतिशत, मिजोरम में 2.75 प्रतिशत, मेघालय में 11.53 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 28.44 प्रतिशत, अरुणाचल में 29 प्रतिशत, मणिपुर में 31.39 प्रतिशत और पंजाब में 38.40 प्रतिशत हैं। रिपोर्ट में इन राज्यों में प्रताड़ना के शिकार हिंदुओं या मुस्लिमों के दबदबे वाले केरल एवं उत्तर प्रदेश से ऐसी घटनाओं पर एक शब्द नहीं खर्च किया गया।
कुल मिलाकर, यह रिपोर्ट विश्वसनीय नहीं। अमेरिकी आयोग ने विश्व के सबसे जीवंत एवं गतिशील लोकतंत्र में संवैधानिक रूप से प्राप्त व्यापक मूल अधिकारों से संरक्षित अल्पसंख्यकों को लेकर अनावश्यक चिंता व्यक्त की है।
अब हमें इस आयोग को प्यू रिसर्च सर्वे के जरिये आईना दिखाकर खुद उसे एक ‘चिंतित करने वाले संस्थान’ के रूप में चिह्नित करना चाहिए। भारतीय राज्य की प्रकृति एवं स्वरूप पर समग्रता में विचार किए बिना यह अमेरिकी आयोग मूर्खतापूर्ण ढंग से भारत को एकल सरकार और एक राजनीतिक दल केंद्रित व्यवस्था के रूप में देखता है।
चूंकि यूएससीआइआरएफ अमेरिका का एक राष्ट्रीय संस्थान है तो उसकी यह प्रस्तुति और हैरान करती है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव बस होने ही वाले हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि वहां के संस्थान अपने देश की उन भ्रंश रेखाओं पर ध्यान दें, जिनके चलते हाल के वर्षों में उनके लोकतांत्रिक मूल्यों को व्यापक क्षति पहुंची है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर जानलेवा हमला इसका ही नतीजा माना जा रहा है।
(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)