जागरण संपादकीय : अपनी सीमा पार करतीं ममता बनर्जी, सीएए के तहत तो लोगों को नागरिकता देने के विरोध में
राजनीति में एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी या विरोधी होना स्वाभाविक है किंतु इसके लिए देश की सुरक्षा को जोखिम में डालना किसी दृष्टि से स्वीकार नहीं किया जा सकता। ममता बनर्जी को कम से कम अपने बयान पर खेद प्रकट करना चाहिए। विपक्ष के नेताओं को भी आगे आकर बोलना चाहिए कि हमारी राजनीतिक लड़ाई आंतरिक है किसी बाहरी देश के मामले में भारत सरकार का निर्णय ही मान्य होगा।
अवधेश कुमार। पिछले दिनों तृणमूल कांग्रेस की शहीद दिवस रैली में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा बांग्लादेश के लोगों को राज्य में शरण देने का बयान हतप्रभ करने वाला रहा। सामान्य तौर पर किसी राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा ऐसे बयान की कल्पना नहीं की जा सकती है। अंतरराष्ट्रीय नियम कहते हैं कि किसी दूसरे देश की आंतरिक समस्या में तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जाता, जब तक वहां मानवाधिकारों का लगातार सरेआम उल्लंघन नहीं हो रहा हो।
संबंधित देश अगर अपने निर्दोष नागरिकों के विरुद्ध अत्याचार करने लगे तभी अंतरराष्ट्रीय समुदाय या कोई देश उसके खिलाफ सामने आ सकता है, लेकिन यह भी राष्ट्र की नीति होती है, किसी राज्य की नहीं। राज्य सरकार ज्यादा से ज्यादा केंद्र के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट कर सकती है कि हमें इस संदर्भ में कैसी नीति अपनानी चाहिए।
यह चिंताजनक है कि देश की एक मुख्यमंत्री, जो केंद्र में भी मंत्री रह चुकी हैं, सरेआम अपनी संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन करें। इस तरह का बयान देने का हक प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या फिर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता को ही हो सकता है। बांग्लादेश को ममता बनर्जी का यह वक्तव्य स्वाभाविक ही आपत्तिजनक लगा है, तभी सधे हुए शब्दों में वहां की सरकार ने इसका प्रतिवाद किया।
ममता बनर्जी का बयान अनायास नहीं हो सकता। वास्तव में बंगाल में लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम वोट उनके सत्ता में बने रहने का एक बड़ा आधार बन चुका है। लगता है वह इसके लिए किसी सीमा तक जाने को तैयार हैं। मुस्लिम वोट की राजनीति भारत में ऐसे ही होती रही है। यही ममता बनर्जी बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में मजहबी रूप से पीड़ित गैर मुसलमानों को मानवता के आधार पर नागरिकता देने के लिए भारत सरकार द्वारा बनाए गए कानून सीएए का मुखर होकर विरोध कर रही हैं।
भारत के ज्यादातर दलों ने सेक्युलरवाद की इसी तरह धज्जियां उड़ाई हैं। भारत ने दूसरे देशों के नागरिकों को शरण दी है। उदाहरण के लिए म्यांमार से आए 79 हजार शरणार्थी भारत में रह रहे हैं। तमिलनाडु के शरणार्थी शिविरों में श्रीलंका से आए 58 हजार 457 श्रीलंकाई तमिल रह रहे हैं। 1959 में तिब्बत में चीनी हस्तक्षेप के बाद बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा के साथ आए लगभग एक लाख शरणार्थी भी अलग-अलग जगहों पर शरण पाए हुए हैं।
यह निर्णय किसी राज्य सरकार ने नहीं किया। ममता बनर्जी ने भारत के स्वयंभू शासन की तरह व्यवहार किया है। उन्हें पता होना चाहिए कि शरण देने का दायित्व भी केंद्र सरकार का ही है, कोई राज्य सरकार ऐसा नहीं कर सकती। यद्यपि हमारे देश में शरण देने को लेकर कोई उपयुक्त कानून नहीं है। भारत संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी संबंधी व्यवस्था का सदस्य नहीं है।
इसी तरह 1990 में प्रवासी मजदूरों के लिए तैयार कन्वेंशन आफ माइग्रेंट वर्कर्स के 59 सदस्य देशों में भी भारत नहीं है। 1967 के प्रोटोकाल रिलेटेड टू द स्टेटस आफ रिफ्यूजीज पर भी भारत ने हस्ताक्षर नहीं किया है। हालांकि भारत अपनी स्वाभाविक संवेदनशीलता के अनुरूप इनका पालन करता है।
एक तरफ विपक्षी सांसद संविधान लहराते हुए बता रहे हैं कि हम संविधान की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं और दूसरी ओर ममता बनर्जी स्वयं इस तरह संविधान का उल्लंघन करती नजर आ रही हैं। क्या ममता का बयान संघीय ढांचे पर प्रहार नहीं है? अगर ममता बनर्जी के बयान का विरोध नहीं हुआ तो आगे कोई दूसरी राज्य सरकार पाकिस्तान, अफगानिस्तान या फिर चीन को लेकर भी दरवाजा खोलने की बात कर सकती है।
जिन पश्चिमी देशों ने संयुक्त राष्ट्र के तहत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरणार्थियों और आप्रवासियों के लिए लोकतंत्र और मानवाधिकार आदि राजनीतिक विचारधारा के नाम पर निहित स्वार्थों के कारण आश्रय देने की व्यवस्थाएं बनवाईं, अपने यहां मानवाधिकारों एवं मजहबी स्वतंत्रता की रक्षा के नाम पर कानून बनाए और फिर दुनिया को भी ऐसा ही करने की सीख दी, आज उन्हीं देशों में इसके विरुद्ध कदम उठाए जा रहे हैं।
अमेरिका से लेकर पूरे यूरोप में बिना पासपोर्ट, वीजा के विकासशील और गरीब देश के लोगों के प्रवेश को रोका जा रहा है। उन देशों की राजनीति में यह बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है। इसके आधार पर आज वहां के नेताओं एवं पार्टियों को वोट मिल रहा है। वे देश इसके कारण आंतरिक अशांति के शिकार हो गए हैं और इससे मुक्ति चाहते हैं। उन्होंने मानवाधिकार, लोकतंत्र एवं मजहबी स्वतंत्रता आदि के नाम पर ऐसे स्टैंड लिए कि आज अपने ही देश की रक्षा की दृष्टि से उसके विरुद्ध खड़ा होना कठिन हो रहा है।
हमारे देश के नेताओं ने इसका अनुमान आजादी के बाद ही लगा लिया था कि पड़ोसी देशों की हालत खराब होने का शिकार हम हो सकते हैं। इसीलिए उन्होंने विनम्रता के साथ संयुक्त राष्ट्र की ऐसी किसी व्यवस्था पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था और यह नीति आज तक जारी है। किंतु वर्तमान राजनीति में अनेक विपक्षी दल उसी तरह की भाषा बोल रहे हैं, जैसी एक समय पश्चिम में स्वयं को लेफ्ट-लिबरल मानने वाले बोलते थे तथा सरकारों ने उन नीतियों को लागू किया।
राजनीति में एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी या विरोधी होना स्वाभाविक है, किंतु इसके लिए देश की सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को जोखिम में डालना किसी दृष्टि से स्वीकार नहीं किया जा सकता। ममता बनर्जी को कम से कम अपने बयान पर खेद प्रकट करना चाहिए। विपक्ष के नेताओं को भी आगे आकर बोलना चाहिए कि हमारी राजनीतिक लड़ाई आंतरिक है, किसी बाहरी देश के मामले में भारत सरकार का निर्णय ही मान्य होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)