Analysis: मोदी, शाह और भाजपा को भारतीय राजनीति के शिखर पर बने रहने की चुनौती
शिखर पर पहुंचने के बाद चुनौती और बड़ी और कड़ी हो जाती है, क्योंकि शिखर पर पहुंचने से ज्यादा कठिन होता है शिखर पर बने रहना।
नई दिल्ली [ प्रदीप सिंह ]। पहले से बनी धारणाएं अक्सर हमें परिस्थितियों और व्यक्तियों में हो रहे बदलाव को देखने नहीं देतीं। भारतीय राजनीति में अमित शाह के बारे कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। उन्हें जब पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया तो पार्टी के बाहर तो छोडि़ए, भाजपा में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो यह मानने को तैयार हों कि उन्हें यह पद योग्यता के आधार पर दिया गया है। जी हां, यह स्थिति उत्तर प्रदेश में 73 लोकसभा सीटें लाने के बावजूद थी। कई बार संगठनों और खासतौर से राजनीतिक दलों में एक फैसला इतिहास बदलने वाला होता है।
भाजपा अपराजेय नजर आ रही है
पिछले चार साल में भाजपा में दो ऐसे फैसले हुए। पहला नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना। दूसरा, अमित शाह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना। दोनों फैसलों का नतीजा सबके सामने है। फिलहाल भाजपा अपराजेय नजर आ रही है। जिन्हें नहीं नजर आ रही थी उन्हें त्रिपुरा के नतीजों के बाद नजर आने लगा होगा। नरेंद्र मोदी का मामला थोड़ा अलग था। वह प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से पहले राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर लोगों की उम्मीद बन गए थे। यह कहना ज्यादा सही होगा कि उस समय भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया नहीं, बल्कि बनाना पड़ा। पार्टी और संघ को समझ में आ गया था कि मोदी को उम्मीदवार नहीं बनाया तो लडऩे से पहले ही चुनाव हार जाएंगे।
चार साल के राजनीतिक सफर में पीएम मोदी देश के विश्वास पर खरे उतरे
2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए ही नहीं संघ के लिए भी जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन गया था। कांग्रेस भगवा आंतकवाद के नाम पर संघ को खत्म करने पर आमादा थी। मोदी और शाह को गुजरात दंगों और कुछ आतंकियों-अपराधियों के एनकाउंटर में फंसाने के लिए कांग्रेस ने वह सब कुछ किया जो वह कर सकती थी। भाजपा में कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा इस संकट को देखने के लिए तैयार नहीं थी। उन्हें दिख भी रहा था तो मानकर चल रहे थे कि कांग्रेस और उनका दुश्मन एक ही है। वे कौन लोग थे, यह सबको पता है। विगत चार साल का राजनीतिक सफर देखें तो मानना पड़ेगा कि विपक्ष की तमाम आलोचनाओं के बावजूद नरेंद्र मोदी देश के विश्वास पर खरे उतरे और शाह मोदी और पार्टी के भरोसे पर। भाजपा में अध्यक्ष पद पर नेता आते-जाते रहे हैं। ज्यादातर मौकों पर नेता का कद देखकर पद दिया जाता था। हालांकि इसके अपवाद भी रहे हैं। अमित शाह को जब पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया तो भाजपा में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो यह मानते थे कि गुजराती और प्रधानमंत्री मोदी का करीबी होने के नाते उन्हें यह पद मिला है, लेकिन चार साल में मोदी और शाह की जोड़ी ने एक नई भाजपा खड़ी कर दी है। ऐसी भाजपा जो आत्मविश्वास से लबरेज है। आज कोई भी लक्ष्य भाजपा के लिए असंभव नहीं लगता। चार साल के छोटे अंतराल में छह राज्यों से 21 राज्यों में सत्ता में आ जाना कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। यह इसलिए हो सका, क्योंकि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अपने बूथ स्तर के कार्यकर्ता से सीधे संपर्क करने और उसके घर जाकर भोजन करने में अपनी हेठी नहीं समझता। यही वजह है कि उनका कद पद से बड़ा नहीं तो छोटा भी नहीं है।
नजर काम पर हो तो पद कद के सामने छोटा पडऩे लगता है
अमित शाह ने यह साबित किया है कि नजर काम पर हो तो पद कोई भी हो कद के सामने छोटा पडऩे लगता है। बूथ स्तर तक के कार्यकर्ता को पता है कि उसका अध्यक्ष उसके अच्छे-बुरे में उसके साथ खड़ा है। यह विश्वास उससे ऐसे काम करवाता है जो पहले कोई नहीं करा पाया। बहुत से लोगों के मन में एक सवाल है कि इतने अनुभवी लोगों के होते हुए आखिर मोदी ने अध्यक्ष पद के लिए अमित शाह को क्यों चुना? अमित शाह गुजरात से बाहर गए तो राष्ट्रीय महामंत्री और उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनने के बाद। इस सिलसिले में गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा उचित होगी। एक दिन एक व्यक्ति अपना दुखड़ा लेकर उनके पास आया। वह आकर ध्यानमग्न होकर बैठ गया। बुद्ध चुप रहे। थोड़ी देर बाद उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। कुछ देर यह होने के बाद वह उठा और बोला जो मैं लेने आया था, मिल गया। बुद्ध के विश्वस्त आनंद यह सब देख रहे थे। उस व्यक्ति के जाने के बाद उन्होंने पूछा यह हुआ क्या? आप बोले नहीं, वह रोने लगा और फिर बोला जो लेने आया था मिल गया। बुद्ध ने कहा तुम अच्छे अश्वरोही रह चुके हो। तुम्हें उसी के जरिये समझाता हूं। अश्व तीन तरह के होते हैं। एक, जो चाबुक मारने से चलता है। दूसरा, चाबुक लहराने से ही समझ लेता है। तीसरा, जो सबसे उत्कृष्ट होता है वह अपने मालिक के इशारे से चलता है। दरअसल अमित शाह की कामयाबी का भी यही राज है। वह जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या चाहते हैं और पार्टी की क्या जरूरत है? जब आपसी समझ अच्छी हो तो ज्यादा संवाद की जरूरत नहीं होती।
पीएम मोदी ने शाह को परोक्ष रूप से अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद तीन मार्च को पार्टी मुख्यालय में अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने अमित शाह के राजनीतिक विकास को सार्वजनिक रूप से न केवल सराहा, बल्कि परोक्ष रूप से अपना उत्तराधिकारी ही घोषित कर दिया। त्रिपुरा की जीत कुछ मायनों में उत्तर प्रदेश से भी बड़ी है। यह पार्टी को सिफर से शिखर तक पहुंचाने के हौसले और माद्दे की जीत है। यह एक और राज्य में सरकार बनाने जैसा नहीं है। यह त्रिपुरा में अपनी विचारधारा को स्थापित करने और विरोधी विचारधारा को धूलधूसरित करने वाली जीत है। त्रिपुरा में भाजपा ने हराया तो माक्र्सवादी पार्टी को है, लेकिन चोट कांग्रेस पार्टी को ज्यादा लगी है। कांग्रेस को बौद्धिक खुराक वामपंथियों से ही मिलती रही है। 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने अपना बौद्धिक क्रियाकलाप वामदलों को आउटसोर्स कर दिया था। तब से कांग्रेस के हर संकट में वामपंथी उसकी बौद्धिक ढ़ाल बनते रहे हैं। यही वजह है कि जेएनयू में 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' का नारा लगाने वालों के साथ राहुल गांधी भी खड़े नजर आते हैं। भाजपा का वामदलों से अगला युद्ध केरल में लड़ा जाएगा। त्रिपुरा की धमक केरल और पश्चिम बंगाल में अभी से सुनाई देने लगी है।
सत्ता में नरेंद्र मोदी और संगठन में अमित शाह भाजपा के लिए अपरिहार्य बन गए
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अमित शाह ने अपनी कार्यशैली से राजनीतिक और चुनावी रणनीति को परिणाम में बदल कर दिखाया है। ऐसा करके उन्होंने अपने पराक्रम से उपलब्धि का पैमाना इतना ऊंचा कर दिया है कि किसी और के लिए उस ऊंचाई को छूना लगभग असंभव सा लगता है। सत्ता में नरेंद्र मोदी और संगठन में अमित शाह भाजपा के लिए अपरिहार्य बन गए हैं। मौजूदा समय में इन दोनों के बिना भाजपा की कल्पना कठिन है। इन दोनों नेताओं ने अपने परिश्रम, दूरर्शिता, संवाद कौशल और संगठन की क्षमता से भाजपा को भारतीय राजनीति के शिखर पर पहुंचा दिया है, लेकिन शिखर पर पहुंचने के बाद चुनौती और बड़ी और कड़ी हो जाती है, क्योंकि शिखर पर पहुंचने से ज्यादा कठिन होता है शिखर पर बने रहना।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं ]