जागरण संपादकीय: जरूरी है मुस्लिम जातियों की पहचान, झूठ को बेनकाब करने का समय
रंगनाथ मिश्र कमेटी और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में मुस्लिमों में दलितों और आदिवासियों की दयनीय स्थिति स्पष्ट की गई है। इसलिए अन्य पिछड़ा वर्ग के मुस्लिमों के साथ-साथ दलित वर्ग और आदिवासी वर्ग के मुस्लिम समुदायों की भी जातिगत गणना कराना न्यायसंगत प्रतीत होता है। हिंदू समाज की दलित-आदिवासी जातियों का कुछ न कुछ डाटा उपलब्ध है लेकिन मुस्लिम समाज की जातियों का कोई स्पष्ट आंकड़ा मौजूद नहीं है।
डॉ. फैयाज अहमद फैजी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना करवाने की मांग की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि कांग्रेस द्वारा केवल हिंदू समाज की जातीय जनगणना की बात करने का उद्देश्य हिंदुओं की एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ भड़काना भर है, जबकि मुसलमानों की विभिन्न जातियों की बात पर कांग्रेस मुंह बंद कर लेती है।
मालूम हो कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने वादा करने के बावजूद 2011 में हुई जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी से संबंधित जातिगत गणना के आंकड़े को सार्वजनिक नहीं किया। यह विडंबना ही है कि आज वही कांग्रेस जातीय जनगणना के लिए सबसे अधिक व्याकुल है। कांग्रेस का विभिन्न मुस्लिम जातियों के बारे में चर्चा न करना और उनके बीच सामाजिक न्याय की उपेक्षा कर पसमांदा और अशराफ मुस्लिमों के विभेद को नकारना उसकी सामाजिक न्याय की नीति पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
प्रधानमंत्री मोदी तो लगातार मुस्लिमों की जातियों और उनके सामाजिक न्याय के संघर्ष की तरफ सबका ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, लेकिन तथाकथित सेक्युलर-लिबरल, कांग्रेसी और कम्युनिस्ट मुस्लिमों की जातियों पर चर्चा करना उचित नहीं समझते और न ही मुस्लिम समाज के सामाजिक न्याय का संघर्ष उनके लिए कोई मायने रखता है। उनके इस रवैये से पसमांदा समाज में क्षोभ की स्थिति व्याप्त होना स्वाभाविक है।
संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत राष्ट्रपति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच के लिए आयोग गठित कर सकते हैं। अनुच्छेद-340 इस बात को भी स्पष्ट करता है कि कोई आयोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से ओबीसी की स्थिति की उचित पड़ताल के बाद ही सिफारिशें कर सकता है।
ऐसी स्थिति में ओबीसी से संबंधित जातिगत आंकड़े एकत्र करना नितांत आवश्यक हो जाता है, ताकि शिक्षा, रोजगार एवं राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में इससे संबंधित सभी पात्र समुदायों को आरक्षण और अन्य कल्याणकारी योजनाओं का समुचित लाभ मिल सके। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद से राजनीतिक पार्टियां अवगत न हों। वे भली तरह अवगत हैं, लेकिन वोट बैंक के लोभ में कुछ बोलना नहीं चाहतीं।
1955 में आई काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट ने मुसलमानों और अन्य पंथों के बीच कुछ जातियों/समुदायों को भी पिछड़ा घोषित किया था। मंडल आयोग ने भी सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया था कि जातियां या जातियों जैसी संरचना केवल हिंदू समाज तक ही सीमित नहीं, अपितु यह गैर हिंदू समूहों-मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों के बीच भी पाई जाती है।
इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ केस में नौ जजों की बेंच ने पिछड़ेपन के निर्धारक के रूप में आर्थिक मानदंड को खारिज कर दिया था। न्यायालय ने जाति की अवधारणा को यह कहते हुए बरकरार रखा कि भारत में जाति एक सामाजिक वर्ग हो सकती है और प्रायः होती भी है। गैर-हिंदुओं यानी मुसलमानों और दूसरे धर्मों में पिछड़े वर्गों के सवाल पर न्यायालय ने कहा था कि उनकी पहचान उनके पारंपरिक व्यवसायों के आधार पर की जानी चाहिए।
इस प्रकार पिछड़ा वर्ग एक ऐसी श्रेणी है, जो बिना किसी धार्मिक भेदभाव के विशेष रूप से उन जाति समूहों को संदर्भित करती है, जो सामाजिक पदानुक्रम में मध्य स्थान पर स्थापित हैं और आर्थिक, शैक्षिक तथा अन्य मानव विकास संकेतकों के मामले में पीछे रह गए हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुस्लिम समाज की जातिगत गणना की बात करना न्यायसंगत है, लेकिन तथाकथित सेक्युलर-लिबरल और सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियों की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखी है।
बिहार जातिगत सर्वे के समय यह चिंता जताई गई थी कि मुस्लिमों में उच्च वर्ग यानी अशराफ खुद को पिछड़ी जाति में शामिल शेखरा और कुलहैया जाति बताकर पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग का लाभ लेता रहा है। तब यह आशंका भी व्यक्त की गई थी कि कहीं ऐसा न हो कि वे अशराफ मुसलमान इस जाति गणना की आड़ में पिछड़े और अति पिछड़े बन जाएं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से अगड़े हैं।
ध्यान रहे कि बिहार में एक बार ऐसा हो भी चुका है, जब उच्च अशराफ वर्ग की मलिक (सैयद) जाति ने स्वयं को पिछड़े वर्ग में सम्मिलित करा लिया था। इसके विरोध में संबंधित आयोग में शिकायत भी की गई, लेकिन अभी तक इस मामले में कोई अंतिम निर्णय नहीं हो सका है। गौरतलब है कि हिंदू समाज में एससी और एसटी की गणना होती आई है, किंतु अन्य धर्मों के दलितों और आदिवासियों की जातिगत जनगणना भी सामाजिक न्याय की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
जब तक संपूर्ण जातिगत जनगणना पर आम सहमति नहीं बन जाती है, तब तक मुस्लिम जातियों की जनगणना की जरूरत पर बल देना ही चाहिए, ताकि मुस्लिम समाज में भी सामाजिक न्याय स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो सके। आज मुस्लिम समाज की जातीय जनगणना एक अनिवार्य मांग है, जिस पर केंद्र और राज्य सरकारों को शीघ्र अति शीघ्र ध्यान देना चाहिए। यह मानना और प्रचारित करना निरा झूठ है कि मुसलमानों में जातियां नहीं हैं और उनमें कोई भेद नहीं है। इस झूठ को बेनकाब करने का समय आ गया है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)