इतिहास लेखन की सांप्रदायिक प्रविधि, जितना बताया गया उससे कहीं अधिक छुपाया गया, जानकर हैरान रह जाते लोग
आखिरी विद्यार्थी ने गांधी की जिंदगी पर बोलना आरंभ किया और उनकी हत्या पर अपनी बात खत्म की। उसने कहा कि गांधी वाज किल्ड बाय ए हिंदू फैनेटिक नाथूराम गोडसे ( गांधी की हत्या एक हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने की)। बात रखने के बाद वो चला गया।
नई दिल्ली [अनंत विजय]। गांधी जयंती के अवसर पर किशोरों के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। उस कार्यक्रम में महात्मा गांधी से जुड़े कई सत्र आयोजित किए गए थे। एक सत्र में बच्चों को पांच मिनट तक बापू की जिंदगी और उनके सिद्धांतों पर बोलना था। वक्ता आ रहे थे और तय समय में अपनी बात रखकर जा रहे थे। कुछ प्रतिभागी हिंदी में और कुछ अंग्रेजी में अपनी बात रख रहे थे। आखिरी विद्यार्थी ने गांधी की जिंदगी पर बोलना आरंभ किया और उनकी हत्या पर अपनी बात खत्म की। अपने वक्तव्य के अंत में उसने कहा कि गांधी वाज किल्ड बाय ए हिंदू फैनेटिक नाथूराम गोडसे ( गांधी की हत्या एक हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने की)। बात रखने के बाद वो चला गया।
सभागार में सबकुछ सामान्य था लेकिन मेरे मन में एक बात चल रही थी कि उसने ‘हिंदू फेनेटिक’ शब्द का उपयोग क्यों किया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मैं उसके पास गया और उसको लेकर सभागार से बाहर निकला। मैंने उस किशोर से पूछा कि आपने नाथूराम गोडसे को हिंदू कट्टरपंथी क्यों कहा? क्या सिर्फ कट्टरपंथी कहना काफी नहीं था। उसने जो उत्तर दिया उसने एक और बड़ा प्रश्न मेरे सामने खड़ा कर दिया। उसने कहा कि उसको बचपन से ही ये बताया/पढ़ाया जा रहा है कि गांधी कि हत्या एक हिंदू ने की।
इस प्रसंग के बाद मैंने कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों को टटोलना आरंभ किया। कई जगहों पर गोडसे को हिंदू फेनेटिक या हिंदू कट्टरपंथी कहा गया है। बच्चो को पढ़ाई जाने वाली पुस्तक जिसको भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली संस्था राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) तैयार करती है उसमें भी परोक्ष रूप से नाथूराम गोडसे को हिंदू बताया गया है। इस पुस्तक में कहा गया है कि गांधी की हत्या करने वाला युवक ब्राह्मण था, पुणे का रहने वाला था और चरमपंथी हिंदू अखबार का संपादक था।
इन प्रश्नों से जूझ ही रहा था कि एक दूसरा प्रसंग सामने आया। ये प्रसंग अपनी लेखनी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देने वाले पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या से जुड़ा है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरन ‘प्रताप’ साप्ताहिक पत्र के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनमानस तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। उनका एक पांव जेल के अंदर और एक जेल के बाहर रहता था। राष्ट्रवादियों के साथ उनका संपर्क सतत बना रहता था। गांधी की तरह इनकी भी हत्या कर दी गई थी। इनकी हत्या किसने की इस पर जितना लिखा गया उससे अधिक छिपाया गया। ज्यादातर जगहों पर ये उल्लेख मिलता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी दंगाइयों के शिकार बन गए।
कई जगह तो सिर्फ इतना उल्लेख मिलता है कि विद्यार्थी जब समाज में समरसता स्थापित करने में लगे थे तो उन्मादियों की भीड़ ने उनको मार डाला। इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि उनकी हत्या करने वाला कौन था। गांधी के हत्यारे के विपरीत यह नहीं बताया जाता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या करने वाला किस पंथ या मजहब से जुड़ा था। उनके हत्यारे की पहचान छिपा ली जाती है। गांधी जयंती समारोह के बाद मन में ये प्रश्न उठा कि इस बात की खोज की जाए कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या किसने की। इसको खोजना आरंभ किया। कुछ जगहों पर यह मिला कि अंग्रेज अधिकारियों ने गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या की साजिश रची थी और दंगों की आड़ में उसको अंजाम तक पहुंचा दिया।
युगपुरुष गणेश शंकर विद्यार्थी पुस्तक में उनकी हत्या के एक चश्मदीद गनपत सिंह का बयान मिला। इसमें 25 मार्च की दोपहर तीन से चार बजे कानपुर के चौबेगोला के पास की घटना का वर्णन है। ‘इसी समय बकरमंडी के मुसलमानों का दल नई सड़क पहुंच गया और इस प्रकार गणेश जी फिर दो गिरोहों के बीच फंस गए। मैं उनसे पंद्रह गज की दूरी पर खड़ा हुआ था। इतने में एक मुसलमान चिल्लाकर बोला यही गणेश शंकर विद्यार्थी हैं, इसे खत्म कर दो, बचने न पाए। गिरोह में से सबसे पहले दो पठानों ने गणेश जी के साथ एक साथी पर हमला किया। वह व्यक्ति दस मिनट के अंदर वहीं मर गया।
इतने में कुछ मुसलमान गणेश जी पर दौड़ पड़े और एक ने उनपर छुरे से वार कर दिया और दूसरे ने कांते का प्रहार किया। गणेश जी भूमि पर गिर पड़े और कुछ अन्य लोग भी उनपर प्रहार करने लगे।‘ तीन चार दिन बाद विद्यार्थी जी की लाश मिली थी। इस प्रसंग का उल्लेख लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक अंतर्वेद प्रवर में भी मिलता है। इस पुस्तक में गणेश जी के साथ रहे शंकरराव टाकलीकर का बयान प्रकाशित है। उसमें भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या मुसलमानों की भीड़ ने की थी।
अब गांधी जी की हत्या के प्रसंग को और गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या की घटना और उसपर प्रचलित लेखों की भाषा पर नजर डालें तो आपको पता चल जाएगा कि इतिहास के साथ किस तरह का छल किया गया है। गांधी की हत्या ‘हिंदू कट्टरपंथी’ करता है और विद्यार्थी जी की हत्या ‘उन्मादी भीड़’ करती है। इतिहास लेखन की ये सांप्रदायिक प्रविधि है। इस तरह के लेखन के पीछे की मंशा क्या हो सकती है इपर भी विचार किया जाना आवश्यक है। वामपंथी इतिहासकारों के इस तरह के छल की सूची बहुत लंबी है। इतिहास के नाम पर जिस तरह का लेखन स्वतंत्र भारत में विचारधारा विशेष के इतिहासकारों ने किया वो अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है।
मार्क्सवादियों के बौद्धिक प्रभाव में इस तरह की धारा अकादमिक जगत में चली जिसने कई पीढ़ी के विद्यार्थियों के मन में अपने ही इतिहास को लेकर एक अलग छवि का निर्माण किया। समाज में वैमनस्यता की लकीर गहरी करे में इस तरह का इतिहास लेखन भी जिम्मेदार है। यह सब तब हो रहा था कि जब हमारे देश में साक्षरता दर कम थी और संचार के अन्य माध्यम नहीं थे । जो लिख दिया जाता था उसको अंतिम सत्य मान लिया जाता था। उनके लिखे को चुनौती देने वालों को अकादमिक जगत में ये स्वीकार ही नहीं करते थे। उनकी उपेक्षा की जाती थी। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों और उसपर मार्क्सवादी इतिहासकारों के कब्जे के इतिहास पर नजर डालने से ये सब बहुत स्पष्ट रूप से दिखता है।
जब देश स्वतंत्र हुआ था उस समय अगर इतिहास अनुसंधान परिषद में बगैर वैचारिक फिल्टर लगाए इतिहास लेखन का काम हुआ होता तो आज इतिहास को लेकर जो भ्रम है वो नहीं होता। उस वक्त स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े व्यक्तियों के अनुभवों को कलमबद्ध कर उसका प्रकाशन किया जाता तो इतिहार की सूरत अलग होती। लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने ऐसा होने नहीं दिया। एकांगी इतिहास लेखन का परिणाम यह हुआ कि भारत के बौद्धिक चिंतन कि जो धारा परतंत्रता के दौर में प्रखरता से विदेशी आक्रांताओं का प्रतिकार कर रही थी वो कुंद होने लगी। चिंतन धारा को बाधित कर अपने वैचारिकता को आगे बढ़ाने का जो उपक्रम मार्क्सवादी इतिहासकारों और बौद्धिकों ने किया उसके पीछे का सोच सिर्फ अपनी विचारधारा को पुष्ट करना था।
उस विचारधारा के आधार बनाई गई राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट पक्का करना था। अपने इस काम में वो कई सालों तक सफल भी रहे लेकिन सत्य को लंबे समय तक रोक पाना बेहद मुश्किल काम है। इतिहास लेखन की मार्क्सवादि पद्धति, जिसको उसके पैरोकार वैज्ञानिक पद्धति करार देते थे, पक्षपाती पद्धति दिख रही है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में इतिहास लेखन की इस सांप्रदायिक पद्धति को समावेशी बनाने की आवश्यकता है।