सुधार की राह देखती आईबीसी: आवश्यक बदलाव की जरूरत है, ताकि अदालतों में अनावश्यक देरी से बचा जा सके
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार आईबीसी के बाद से जनवरी 2024 तक 7058 कारपोरेट देनदारों को सीआइआरपी में लाया गया है जिनमें से 5057 मामले बंद कर दिए गए और 2001 समाधान के विभिन्न चरणों में हैं। जो मामले बंद हो गए हैं उनमें से करीब 16 प्रतिशत में सफल समाधान योजनाएं सामने आई हैं। 19 प्रतिशत को आईबीसी की धारा 12ए के तहत वापस ले लिया गया है।
डॉ. अश्विनी महाजन। इंसोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड यानी आईबीसी के कानूनी रूप लेने से पहले दिवालियापन से निपटने के लिए लगभग एक दर्जन कानून थे। उनमें से कुछ कानून तो 100 साल से भी अधिक पुराने थे। मोदी सरकार ने इन कानूनों के स्थान पर आईबीसी के रूप में जो पहल की, उसे एक बड़ा आर्थिक सुधार माना गया।
आईबीसी के अनुसार जब कोई देनदार दिवालिया हो जाता है तो उसकी संपत्ति को लेनदार आसानी से अपने कब्जे में ले सकते हैं। यदि लेनदारों की समिति के 75 प्रतिशत या उससे अधिक सदस्य सहमत होते हैं तो ऐसी कार्रवाई के लिए आवेदन स्वीकार किए जाने की तिथि से (एनसीएलटी की मंजूरी के अधीन 90 दिनों की छूट अवधि के साथ) 180 दिनों में कार्रवाई की जा सकती है।
यदि तब भी ऋण का भुगतान नहीं होता तो व्यक्ति/फर्म को दिवालिया घोषित कर दिया जाएगा। आईबीसी के पीछे यह मंशा थी कि इससे ऋण की वसूली में होने वाली देरी और उससे जुड़े नुकसान स्वत: खत्म हो जाएंगे। कारोबारी सुगमता को बढ़ावा देने के लिहाज से वैश्विक संस्थाएं भी आईबीसी को सराहती रही हैं। विश्व बैंक की ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ रैंकिंग में भारत के 2014 में 142वें स्थान से 2019 तक 63वें स्थान तक पहुंचने में आईबीसी जैसे सुधार की अहम भूमिका मानी गई।
कारोबारी सुगमता में व्यवसाय शुरू करने और उसे बंद करने में सहूलियत जैसे दोनों पहलू शामिल होते हैं। आईबीसी ने व्यवसाय को बंद करना आसान बना दिया। हालांकि आईबीसी की घोषित अपेक्षाओं और जमीनी स्तर पर अनुभव के बीच कुछ अंतर जरूर है। आईबीसी के तहत तनावग्रस्त संपत्तियों के समाधान का प्रारंभिक बिंदु कारपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (सीआइआरपी) है, जो वित्तीय लेनदारों, परिचालन लेनदारों या यहां तक कि कारपोरेट द्वारा स्वयं सीआइआरपी शुरू करने के लिए एक वसूली तंत्र है।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, आईबीसी के बाद से जनवरी 2024 तक 7,058 कारपोरेट देनदारों को सीआइआरपी में लाया गया है, जिनमें से 5,057 मामले बंद कर दिए गए और 2,001 समाधान के विभिन्न चरणों में हैं। जो मामले बंद हो गए हैं, उनमें से करीब 16 प्रतिशत में सफल समाधान योजनाएं सामने आई हैं। वहीं, 19 प्रतिशत को आईबीसी की धारा 12ए के तहत वापस ले लिया गया है, जहां बड़े पैमाने पर देनदार लेनदारों के साथ पूर्ण या आंशिक निपटान के लिए सहमत हुए।
जबकि 21 प्रतिशत अपील या समीक्षा पर बंद कर दिए गए और 44 प्रतिशत मामलों में परिसमापन आदेश पारित किए गए हैं। हालांकि, समाधान के विभिन्न चरणों में अटके मामलों में देरी चिंता के रूप में उभरी है। वर्ष 2020-21 और 2021-22 के दौरान मामले को स्वीकार करने में लगने वाला औसत समय क्रमशः 468 दिन और 650 दिन रहा। यह अपेक्षित समय से कहीं अधिक है।
वित्तीय लेनदारों द्वारा दायर अपीलों के निपटारे में देरी का एक कारण यह है कि अक्सर अदालतें लेनदेन के वाणिज्यिक पहलुओं में उलझ जाती हैं। ये पहलू कानून से संबंधित बिंदुओं से नहीं, बल्कि प्राप्त मूल्य आदि के संदर्भ में लेनदारों से संबंधित होते हैं, जो समाधान योजना को मंजूरी देने का फैसला करने वाले लेनदारों की व्यावसायिक बुद्धि पर सवाल उठाने जैसा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लेनदारों की समिति (सीओसी) की व्यावसायिक समझ पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। एक बार जब सीओसी अंतिम निर्णय ले लेती है कि समाधान योजना को मंजूरी दी जाए या नहीं तो इसे अदालतों द्वारा समीक्षा का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। विशेषकर उस स्थिति में जब किसी कानूनी प्रविधान का उल्लंघन न हो।
एस्सार स्टील मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि यह बहुसंख्यक लेनदारों की व्यावसायिक समझ है, जो संभावित समाधान आवेदक के साथ बातचीत के जरिये यह निर्धारित करती है कि कारपोरेट समाधान प्रक्रिया कैसे और किस तरीके से संपादित होनी है। एसआरईआइ मल्टीपल्स मामले में भी शीर्ष अदालत ने कहा कि समाधान योजना सीओसी द्वारा स्वीकृत हो जाने के बाद कोई संशोधन स्वीकार्य नहीं है, जब तक कि यह आईबीसी की मूल भावना के विपरीत न हो।
हालांकि वास्तविकता अलग है। वीडियोकान मामले में समाधान योजना को जून 2021 में एनसीएलटी ने अनुमोदित किया, मगर यह सुप्रीम कोर्ट में अभी भी लंबित है। एसकेएस पावर जेनरेशन मामले में सीओसी ने जून 2023 में पूर्ण सहमति के साथ सारदा एनर्जी एंड मिनरल्स की योजना को मंजूरी दी, फिर भी यह मामला अभी तक अनसुलझा है। ऐसी देरी से परिसंपत्तियों के मूल्य में कमी आने की आशंका होती है। इससे लेनदारों को नुकसान हो सकता है। इसके चलते भविष्य में संभावित खरीदारों को लुभाना भी मुश्किल हो जाता है और अंतत: आईबीसी का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
वित्तीय मामलों की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में कारपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (सीआइआरपी) में देरी के कुछ चरणों की पहचान की गई है। इसमें पहला चरण है सीआइआरपी शुरू करने के लिए आवेदन की स्वीकृति और दूसरा एनसीएलटी द्वारा समाधान योजना को मंजूरी। सीआइआरपी आरंभ करने के लिए आवेदन स्वीकार करने से जुड़ी समस्याओं की चर्चा करें तो कभी-कभी हितधारकों के बीच असहमति के कारण भी देरी होती है।
कानून कहता है कि यदि सीओसी के 75 प्रतिशत या उससे अधिक सदस्य सहमत हैं तो सीओसी द्वारा समाधान की प्रक्रिया के दौरान कुछ कार्रवाई संभव है। कई बार लेनदार और अन्य हितधारक समाधान योजना पर सहमत नहीं हो पाते हैं और इससे भी प्रक्रिया में देरी हो सकती है। दिवालियापन प्रक्रिया में शामिल विभिन्न हितधारकों जैसे लेनदार, देनदार और संभावित खरीदार के बीच विवाद एवं अदालती लड़ाई से और भी देरी हो सकती है।
दिवाला और दिवालियापन के मामलों में समाधान खोजने में आने वाली प्रमुख समस्याएं कर्मचारियों की कमी से लेकर प्रक्रियाओं और उनसे संबंधित कानून के बोझिल बिंदुओं की प्रणालीगत अक्षमताओं से संबंधित हैं, जिनका दुरुपयोग भ्रष्ट और विलफुल डिफाल्टर मामलों को लटकाने के लिए करते हैं।
वैसे तो, सुप्रीम कोर्ट ने आईबीसी की वैधता से जुड़े कई बुनियादी सवालों का समाधान कर दिया है, लेकिन कुछ मुद्दे सामने आते ही रहते हैं। जबकि आईबीसी जैसे किसी भी महत्वपूर्ण कानून पर लगातार समझ बनाते हुए उसमें आवश्यक बदलावों की जरूरत है ताकि अदालतों में अनावश्यक देरी से बचा जा सके।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कालेज में प्रोफेसर हैं)