प्रणय कुमार : बीते दिनों राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने कक्षा तीन से बारह तक की पाठ्यपुस्तकें तैयार करने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई। इस राष्ट्रीय पाठ्यक्रम एवं शिक्षण सामग्री समिति में विभिन्न क्षेत्रों की 19 प्रसिद्ध हस्तियों एवं विशेषज्ञों को सम्मिलित किया गया है। इनमें इन्फोसिस फाउंडेशन की अध्यक्ष सुधा मूर्ति, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देवराय एवं सदस्य संजीव सान्याल, प्रसिद्ध गायक एवं संगीतकार शंकर महादेवन, भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष चमू कृष्ण शास्त्री आदि हैं। इसकी अध्यक्षता राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन संस्थान के कुलपति महेश चंद्र पंत तथा सह-अध्यक्षता प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मंजुल भार्गव को सौंपी गई है।

यह समिति राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के कार्यान्वयन के एक अंग के रूप में के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में विकसित स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के साथ पाठ्यक्रम को संरेखित करने का काम करेगी। यह स्वायत्त संस्था आवश्यकता पड़ने पर सहायता एवं परामर्श आदि के लिए अन्य विषय-विशेषज्ञों को आमंत्रित करने हेतु स्वतंत्र होगी। पाठ्यक्रम विकास एवं पाठ्यपुस्तकों की डिजाइनिंग आदि की प्रक्रिया में लगभग 1000 से अधिक विषय-विशेषज्ञ सम्मिलित होंगे। समिति का लक्ष्य इस शैक्षणिक वर्ष के अंत तक कक्षा तीन से बारह तक की पाठ्यपुस्तकों को तैयार करना एवं कक्षा एक और दो की मौजूदा पाठ्यपुस्तकों को भी उचित रूप से संशोधित करना है।

यह आवश्यक नहीं कि विज्ञान, गणित, प्रौद्योगिकी जैसे विषयों में महारत रखने वाला व्यक्ति कला, नृत्य, संगीत, साहित्य, संस्कृति, मानविकी एवं शारीरिक शिक्षा जैसे विषयों में भी पारंगत हो। अतः भिन्न-भिन्न रुचियों, विषयों एवं वर्तमान की बहुविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञों को पाठ्यपुस्तकें तैयार करने वाली समिति में सम्मिलित करना सर्वथा उचित कदम है।

इस प्रक्रिया में शंकर महादेवन भारत के शास्त्रीय नृत्य-संगीत, सुधा मूर्ति नारी सशक्तीकरण, विवेक देवराय एवं संजीव सान्याल स्वतंत्र एवं प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था आदि का बेहतर समायोजन कर सकते हैं, वैसे ही अन्य सदस्य अपनी-अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों की विषयवस्तु का उपयुक्त चयन एवं निर्धारण कर सकेंगे। स्वतंत्रता के पूर्व एवं पश्चात के अनेक प्रसंगों-संदर्भों, संघर्षों-उपलब्धियों, आदर्शों-प्रेरणाओं को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए जाने की महती आवश्यकता है। वैसे इस समिति का मुख्य उद्देश्य ही भविष्योन्मुखी पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें तैयार कर नए एवं विकसित भारत की संकल्पना को साकार करना, युवाओं की आकांक्षाओं एवं स्वप्नों को पूरा करना तथा वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम, समर्थ एवं आत्मविश्वास से परिपूर्ण पीढ़ी का निर्माण करना है।

ध्यान देने वाली बात है कि वर्ष 2006 के बाद पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। जबकि 10 से 15 वर्षों के अंतराल पर पीढ़ियों की रुचि, सोच, प्रकृति, प्रवृत्ति एवं आवश्यकता आदि में परिवर्तन आ जाता है। सूचना, ज्ञान एवं तकनीक के इस युग में तो इस परिवर्तन की गति और भी तीव्र है। ऐसे में पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन अध्ययन-अध्यापन को व्यावहारिक, रोजगारपरक, प्रासंगिक एवं जीवनोपयोगी बनाए रखने की दृष्टि से भी आवश्यक है। याद रहे कि विद्यार्थियों में आत्म बोध, राष्ट्र बोध, नागरिक बोध एवं दायित्व बोध जागृत करने एवं प्रकृति-परिवेश-पर्यावरण एवं संस्कृति आदि के प्रति लगाव विकसित करने की दृष्टि से भी पाठ्यक्रम में यथोचित परिवर्तन की मांग दशकों से की जाती रही है।

पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन के पश्चात केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए कि सभी बोर्ड के विद्यार्थी यही पुस्तकें पढ़ें, ताकि भिन्न-भिन्न बोर्ड द्वारा दी जाने वाली शिक्षा में व्याप्त अंतर एवं भेदभाव को दूर किया जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मूल भावना संपूर्ण देश में एक शिक्षा, एक पाठ्यक्रम एवं एक परीक्षा-प्रणाली विकसित करने की है।

यदि एक राष्ट्र-एक कर, एक राष्ट्र-एक राशन कार्ड, एक राष्ट्र-एक ग्रिड, एक राष्ट्र-एक परीक्षा संभव है तो एक राष्ट्र-एक पाठ्यक्रम क्यों नहीं? पढ़ने-पढ़ाने का माध्यम एवं भाषा भले ही अलग हों, राज्य स्थानीय सरोकारों को महत्व देने के लिए साहित्य एवं सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में भले थोड़ा-बहुत परिवर्तन कर लें, परंतु सभी विद्यार्थियों के लिए समान शिक्षा एवं समान अवसर उपलब्ध कराने की दृष्टि से एक देश-एक पाठ्यक्रम लागू किया जाना चाहिए। इससे अलग-अलग बोर्ड में पढ़ाए जाने वाले भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों के कारण विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान विद्यार्थियों के समक्ष उपस्थित होने वाली कठिनाइयां एवं चुनौतियां कम होंगी।

प्रायः यह देखने में आता है कि निजी विद्यालय मनमाने तरीके से महंगी पुस्तकें खरीदने के लिए बच्चों एवं अभिभावकों पर दबाव बनाते हैं। एक देश-एक पाठ्यक्रम ऐसी प्रवृत्तियों पर भी अंकुश लगाने में सहायक होगा। तात्कालिक लाभ एवं निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए कई बार देश एवं समाज को जाति, भाषा, प्रांत, मजहब एवं भिन्न-भिन्न अस्मिताओं के नाम पर बांटने का कुचक्र चला जाता है। ‘एक देश-एक पाठ्यक्रम’ इस प्रकार के विभाजनकारी सोच एवं अलगाववादी प्रवृत्तियों पर लगाम लगाएगा तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना को बल प्रदान करेगा।

(लेखक शिक्षाविद् एवं ‘शिक्षा-सोपान’ नामक सामाजिक संस्था के संस्थापक हैं)