प्रो. गौरव वल्लभ। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में चुनावी लोकलुभावनवाद का प्रचलन खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। वोट हासिल करने के लिए मुफ्त बिजली, कर्ज माफी, पुरानी पेंशन योजना को फिर से शुरू करने जैसी पेशकश करने का चलन देश के राजनीतिक दलों में तेजी से आम होता जा रहा है। हालांकि ऐसे उपाय उदार लग सकते हैं, लेकिन वे चुनाव जीतने के लिए राज्यों के भविष्य को गिरवी रख रहे हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक और कई शोध संगठनों ने चौंका देने वाले आंकड़े दिए हैं कि ये तथाकथित कल्याणकारी उपाय राजकोषीय जहर हैं, जो आने वाले समय में देश की आर्थिक स्थिरता के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकते हैं। इसे पंजाब और हिमाचल प्रदेश के उदाहरणों से अच्छे से समझा जा सकता है। वित्त वर्ष 23-24 के लिए भारतीय राज्यों के लिए औसत ऋण और जीएसडीपी अनुपात लगभग 31 प्रतिशत रहा, जबकि पंजाब का यह अनुपात 50 प्रतिशत के करीब है, जो मुख्य रूप से मुफ्त बिजली और कर्ज माफी के कारण है।

पंजाब मौजूदा कर्जों पर ब्याज भुगतान को कवर करने के लिए और उधार लेने के लिए मजबूर है। वित्त वर्ष 2024-25 में पंजाब की ओर से ब्याज में 23,900 करोड़ रुपये का भुगतान किए जाने का अनुमान है, जो इसकी राजस्व प्राप्तियों का 23 प्रतिशत है। 2023-24 के संशोधित अनुमान के अनुसार पंजाब का कुल पूंजीगत परिव्यय बजट में निर्धारित 10,355 करोड़ से 38 प्रतिशत कम होने का अनुमान है। इससे यह चिंता होती है कि बजट का कितना हिस्सा परिसंपत्ति निर्माण (एसेट क्रिएशन) की ओर निर्देशित किया जा रहा है।

पंजाब ने 2024-25 में बिजली सब्सिडी पर 20,200 करोड़ रुपये खर्च करना तय किया है। यह पिछले दो वर्षों में आवंटित की गई राशि के बराबर है। अकेले इस सब्सिडी से वित्त वर्ष 2024-25 में राज्य की राजस्व प्राप्तियों का 19 प्रतिशत हिस्सा खर्च होने की उम्मीद है। यह बढ़ते असंतुलन को उजागर करता है, जहां राजस्व व्यय तो लगातार बढ़ता है, लेकिन पूंजी निवेश अपर्याप्त रहता है।

हिमाचल की वित्तीय स्थिति राजकोषीय कुप्रबंधन का एक और उदाहरण है। जबसे यहां कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई है, तबसे हिमाचल लगातार बढ़ती हुई वित्तीय देनदारियों से जूझ रहा है, जिसका बकाया ऋण वित्त वर्ष 21-22 में जीएसडीपी के 37 प्रतिशत से बढ़कर वित्त वर्ष 24-25 में 42.5 प्रतिशत हो गया है। यह भी अस्थिर राजकोषीय प्रथा को दर्शाता है। सरकार द्वारा कर्मचारियों के वेतन में की गई देरी इसी वित्तीय तनाव को उजागर करती है।

हाल में अतिरिक्त राजस्व एकत्र करने के लिए हिमाचल सरकार ने दूध उत्पादकों को समर्थन देने के लिए बिजली की खपत पर 0.1 प्रति यूनिट का दूध उपकर और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए औद्योगिक उपभोक्ताओं के लिए 0.1 प्रति यूनिट का अतिरिक्त उपकर लगाने का भी निर्णय किया। इतना ही नहीं अतिरिक्त राजस्व के लिए हिमाचल ने वैज्ञानिक, औद्योगिक और औषधीय उपयोग के लिए भांग की खेती को भी वैध कर दिया। ये सभी कदम राज्य में भयंकर वित्तीय कठिनाइयों को दर्शा रहे हैं।

वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए सरकार का खर्च 52,965 करोड़ रुपये होने का अनुमान है और राज्य को 5,479 करोड़ का कर्ज चुकाना है। हालात यह है कि ब्याज भुगतान में वृद्धि की भरपाई पूंजीगत खर्चों में कमी से की जा रही है। इस राजकोषीय दबाव के कारण वित्त वर्ष 2024-25 में विभिन्न क्षेत्रों में बजट में कटौती की गई है। शहरी विकास पर खर्च में 32 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि सामाजिक कल्याण, कृषि और जल आपूर्ति के लिए आवंटन में क्रमशः 15, 9 और 13 प्रतिशत की कमी की गई है। बढ़ते घाटे के साथ हिमाचल को वित्तीय अस्थिरता के बढ़ते जोखिम का सामना करना पड़ रहा है।

दोनों राज्यों में, दीर्घकालिक जरूरतों की उपेक्षा करते हुए, पर्याप्त धनराशि अल्पकालिक राजनीतिक वादों की पूर्ति में खपा दी गई है। ध्यान राजकोषीय स्वास्थ्य को मजबूत करने पर दिया जाना चाहिए। अर्जेंटीना और वेनेजुएला का वित्तीय पतन उन भारतीय राज्यों के लिए सख्त चेतावनी है, जो रेवड़ियों का सहारा ले रहे हैं।

कभी समृद्ध रहा अर्जेंटीना अत्यधिक खर्च और लोकलुभावन नीतियों के कारण ढह गया, जबकि वेनेजुएला ने अल्पकालिक लाभ के लिए अपनी तेल संपदा को बर्बाद कर दिया। दोनों देश राजकोषीय कुप्रबंधन के कारण अत्यधिक मुद्रास्फीति, गरीबी और राजनीतिक अस्थिरता में फंस गए। यदि भारतीय राज्य इसी राह पर चलते रहे तो वे इन देशों की तरह दुःखद आर्थिक इतिहास दोहराने का जोखिम उठाएंगे। इसके भयानक परिणाम हो सकते हैं, जैसे अनियंत्रित मुद्रास्फीति और गरीबी में वृद्धि।

भारतीय राजनीति में मुफ्त सुविधाओं का दुरुपयोग सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं है। यह लोकतांत्रिक शासन की नींव को भी खतरे में डालता है। अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए राज्य वित्तीय संकट के जोखिम को निमंत्रण दे रहे हैं। इस तरह के वित्तीय कुप्रबंधन से निवेशकों का भरोसा कम हो सकता है, उधार लेने की लागत बढ़ सकती है और देश की आर्थिक प्रगति धीमी हो सकती है।

अंततः इन नीतियों का बोझ नागरिकों पर ही पड़ता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से धन को गैर-संवहनीय योजनाओं के वित्तपोषण में आवंटन से राज्य ऐसी आवश्यक सेवाएं प्रदान करने में असमर्थ हो जाते हैं, जो लोगों को गरीबी से बाहर निकाल सकती हैं।

मुफ्त बिजली जैसी महंगी छूट जारी रखने के बजाय राज्यों को दीर्घकालिक समाधानों में निवेश करना चाहिए, जैसे सौर पैनल लगाना, महिलाओं के लिए कार्यस्थल में सुधार करना या कृषि अनुसंधान एवं विकास को वित्तपोषित करना। ये निर्भरता को कम करते हैं और विकास को बढ़ावा देते हैं। अब समय आ गया है कि हम राजकोषीय जिम्मेदारी को प्राथमिकता देना शुरू करें।

राजनीतिक दलों को मुफ्त उपहार के वादों के साथ उनके वित्तीय प्रभाव के बारे में भी लोगों को बताना होगा। इसे कानूनी रूप से बाध्यकारी करना चाहिए, ताकि दीर्घकालीन कल्याणकारी योजनाओं के लिए स्थायी वित्तपोषण सुनिश्चित किया जा सके। हमें जिम्मेदार नागरिकों के रूप में अपने राजनीतिक दलों से इस संदर्भ में जवाबदेही की भी मांग करनी होगी, अन्यथा अल्पकालिक राजनीतिक लाभ भारत और भारतीय राज्यों की दीर्घकालिक समृद्धि को पंगु बना देंगे और भविष्य की पीढ़ियों को आज की राजकोषीय लापरवाही का बोझ उठाना पड़ेगा।

(लेखक एक्सएलआरआई में वित्त के प्रोफेसर हैं)