अफगानिस्तान पर केंद्रित रहने वाला हॉर्ट ऑफ एशिया का छठवां मंत्रीस्तरीय सम्मेलन चार दिसंबर को अमृतसर में संपन्न हो गया। यह महत्वपूर्ण है कि इसका अंतिम घोषणापत्र राज्य समर्थित आतंकवाद और इसे नियंत्रित करने पर केंद्रित था। मेजबान देश भारत और स्थायी अध्यक्ष अफगानिस्तान ने आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को जिस तरह घेरा वह अमृतसर सम्मेलन की सबसे चर्चित घटना थी। असामान्य रूप से अपनी खरी टिप्पणी में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अपने देश में मौजूदा अस्थिरता के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया। सम्मेलन में संबोधन के दौरान वह तो इससे भी आगे बढ़ गए। उन्होंने हॉर्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में पाकिस्तान के शीर्ष प्रतिनिधि सरताज अजीज का नाम लेकर कठोर टिप्पणी की।

गनी ने इस्लामाबाद से 50 करोड़ डॉलर की मदद की पेशकश पर कहा कि श्रीमान अजीज अच्छा होगा कि इस फंड का आप उपयोग अपने यहां के आतंकवादियों को खत्म करने में करें, क्योंकि बिना शांति के कोई भी सहायता हमारे लोगों के किसी काम की नहीं है। निश्चित रूप से तय प्रोटोकॉल से अलग हटकर इस तरह की कठोर बात कहना कूटनीतिज्ञों को नागवार गुजरा, लेकिन अफगान राष्ट्रपति की न्यायोचित हताशा को सबने स्पष्ट रूप से महसूस किया।

सितंबर 2014 में राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद गनी पाकिस्तान की यात्र पर गए थे। वहां भी वह सबसे पहले रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय गए थे। तब इसे एक साहसी कदम के रूप में देखा गया था। यह इस गंभीर वास्तविकता की स्वीकारोक्ति थी कि पाकिस्तानी सेना काबुल और वहां की निर्वाचित सरकार के लिए चुनौती बने कई आतंकी समूहों और चरमपंथियों का सामना करने में सक्षम है।

अमृतसर में दिए एक साक्षात्कार में राष्ट्रपति गनी ने 2014 के रावलपिंडी दौरे के बारे में बताया कि उस यात्रा से मैंने संदेश देने की कोशिश की थी कि एक खिड़की खुली हुई है। यह खिड़की एक दरवाजा या कोरिडोर में भी तब्दील हो सकती है या यह बंद भी हो सकती है। हमने खिड़की खोली थी, अब यह बंद हो गई है। अब इसे खोलने की बारी पाकिस्तान की है। इसके आगे गनी ने कहा कि एक अफगानिस्तान तालिबान नेता ने स्वीकारा था कि पाकिस्तान के समर्थन के बिना तालिबान एक माह भी जिंदा नहीं रह सकता है।

अमृतसर सम्मेलन का अंतिम घोषणापत्र इससे कहीं अधिक समाधानकारी था और उसमें अफगानिस्तान में कैसे शांति और समृद्धि लाई जाए, इस पर ध्यान केंद्रित करने की मांग की गई थी, जो कि 2011 की इस्तांबुल प्रक्रिया का मूल उद्देश्य था, जहां से हॉर्ट ऑफ एशिया की नींव पड़ी थी। 2016 के अमृतसर सम्मेलन में 40 से अधिक देशों ने शिरकत की, जिसमें 14 इसके सदस्य देश थे और बाकी इस्तांबुल प्रक्रिया के मित्र और अफगानिस्तान के विकास में सहयोग देने के लिए प्रतिबद्ध देश थे। सह-अध्यक्ष के रूप में भारत ने सम्मेलन की बहुपक्षीय प्रकृति को बरकरार रखने में चतुर भूमिका निभाई और नगरोटा हमले के बावजूद हॉर्ट ऑफ एशिया से ध्यान भटकने से रोकने के लिए पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय संबंधों की अनुमति नहीं दी। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान का सीधे नाम नहीं लिया, लेकिन आतंकवाद के नासूर का सामना करने के लिए क्षेत्रीय देशों के साथ मिलकर एक विश्वसनीय कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने अमृतसर में एकजुट हुए देशों को सलाह दी कि अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ चुप्पी और निष्क्रियता आतंकवादियों और उनके आकाओं को सिर्फ प्रोत्साहित ही करेगी।

घोषणापत्र की रचनात्मक बातों को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तान का सिर्फ एक ही जगह सकारात्मक रूप में उल्लेख किया गया था, जिसमें कहा गया कि हम क्षेत्र और क्षेत्र से बाहर के देशों खासकर ईरान और पाकिस्तान की तीन दशकों से अधिक समय तक लाखों अफगान शरणार्थियों को आश्रय देने के लिए प्रशंसा करते हैं। पहली बार अमृतसर घोषणापत्र में सभी प्रमुख क्षेत्रीय आतंकवादी समूहों को सूचीबद्ध किया गया और उनकी कारगुजारियों का ईमानदारी से उल्लेख किया गया। इसके अनुसार तालिबान, आइएसआइएस, हक्कानी नेटवर्क, अलकायदा, इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, टीटीपी, जमात उल अहरार, जुनदुल्लाह और दूसरे विदेशी आतंकवादी अफगानिस्तान में हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं। हम आतंकवाद के सभी रूपों और वित्तीय सहित सभी तरह की मदद को तुरंत समाप्त करने की मांग करते हैं।

भले ही आतंकवाद को समर्थन देने में पाकिस्तान की भूमिका को उजागर करने और उसे हाशिये पर ले जाने में अमृतसर सम्मेलन सफल रहा, लेकिन सिर्फ इसी के आधार पर भारत की कूटनीति को सफल मान लेना भ्रामक और अदूरदर्शी होगा, क्योंकि अभी भी रावलपिंडी और पाकिस्तान में कट्टरपंथी जमातें आतंकवाद को समर्थन देने को प्रतिबद्ध हैं। विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन भी पाकिस्तान की आतंकी नीति को समर्थन दे रहा है। रूस ने भी कुछ हद तक हाल के महीनों में पाकिस्तान के साथ सहानुभूति प्रकट की है। दिल्ली इससे बेखबर नहीं रह सकती है।

हालांकि यह बात सच है कि अंतत: अफगानिस्तान में शांति और समृद्धि की स्थापना में पाकिस्तान और रावलपिंडी में बैठे उसके सेनाध्यक्षों की ही प्रमुख भूमिका होगी, लेकिन ऐसा तभी होगा जब पाकिस्तान अपनी दोहरी नीति त्यागे। अफगानिस्तान में अमेरिका पाकिस्तानी सेना की दोहरी नीति से दो-चार हो चुका है। पाकिस्तान द्वारा ओसामा बिन लादेन को प्रश्रय देना और पाक समर्थित आतंकियों के हाथों सैकड़ों अमेरिकियों की मृत्यु इसका सुबूत है। फिर भी अमेरिका पाकिस्तान के साथ बना रहा। हालांकि एक अच्छी बात यह हुई कि उसने अपनी मदद को अफगानिस्तान में मौजूद हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ विश्वसनीय और स्पष्ट कार्रवाई से जोड़ दिया है। अब आगे की सफलता जनवरी में अमेरिका में ट्रंप प्रशासन द्वारा कार्यभार संभालने के बाद इस पर लिए जाने वाले फैसले पर निर्भर करेगी।

कुल मिलाकर हॉर्ट ऑफ एशिया सम्मेलन अफगानिस्तान की मौजूदा जटिल चुनौतियों, जिनका अभी समाधान होना है, पर दुनिया का ध्यान केंद्रित कराने में सफल रहा। काबुल आश्वस्त है कि दिल्ली में उसका एक मित्र बैठा है, लेकिन रावलपिंडी कब अपने सबसे निकटवर्ती पड़ोसी के साथ दुश्मनी का त्याग करेगा? यही हॉर्ट ऑफ एशिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

[लेखक सी उदयभास्कर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के निदेशक रह चुके हैं]