वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अरूप राहा का हालिया बयान काफी मायने रखता है। उनके अनुसार यदि देश ने उच्च नैतिक आधार लेने और संयुक्त राष्ट्र में जाने के बजाय कश्मीर समस्या के समाधान के लिए सैन्य विकल्प को चुना होता तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) आज भारत के साथ होता। 1947 में कश्मीर में हुए संघर्ष (जब पाकिस्तान ने राज्य में भारी तादाद में हमलावरों को भेजा था) पर अपनी सटीक टिप्पणी में वायुसेना प्रमुख ने कहा कि भारत ने अपने हितों की रक्षा के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं अपनाया। परिणाम स्वरूप पीओके हमारे शरीर में कांटे की तरह चुभा हुआ है। उनके अनुसार हमारी विदेश नीति पंचशील सिद्धांत के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र के चार्टर, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के चार्टर से बंधी थी। उनके विचार में हम उच्च आदर्शो से शासित होते रहे और अपनी सुरक्षा जरूरतों के लिए आवश्यक व्यावहारिक मानदंडों का पालन नहीं किया। इसके फलस्वरूप हमने अनुकूल हालात बरकरार रखने के लिए सैन्य शक्ति की भूमिका को नजरअंदाज किया। अक्टूबर 1947 में नाजुक हालात में कश्मीर में सैन्य बलों को समय पर पहुंचाने में वायुसेना के योगदान को याद करते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या आज भी अपनी जगह इसलिए बनी हुई है, क्योंकि जब सैन्य समाधान का विकल्प मौजूद था तब देश शांतिपूर्ण समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र गया।

वायुसेना प्रमुख की इस टिप्पणी ने तत्कालीन नेताओं द्वारा लिए गए कुछ विवादित फैसलों पर पुरानी बहस को फिर से जिंदा कर दिया है। यह समस्या आजादी के तुरंत बाद आरंभ हुई। विभाजन के बाद सभी भारतीय राज्यों को भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ जाने का विकल्प दिया गया। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह राज्य को स्वतंत्र रखने पर विचार कर रहे थे, लेकिन कुछ निश्चित नहीं कर पाए थे। उनकी इस हिचकिचाहट के बीच ही पाकिस्तानी हमलावरों ने राज्य को हड़पने के लिए धावा बोल दिया।अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने राज्य पर बलपूर्वक कब्जा जमाने के लिए हजारों हथियारबंद कबायलियों को सीमा पार भेजा। पाकिस्तानी सेना के नेतृत्व में ये कबायली जल्द ही जम्मू-कश्मीर के बड़े हिस्से पर काबिज हो गए। मुस्लिमों और डोगरों से मिलकर बनी जम्मू-कश्मीर की अपनी सेना को राज्य की सीमाओं की सुरक्षा का जिम्मा दिया गया, लेकिन उसने हमलावरों के आगे हथियार डाल दिए। मुस्लिम जवान राज्य की सेना छोड़ पाकिस्तानी हमलावरों से जुड़ गए और उन्हें सैनिक साजोसामान व दूसरी मदद मुहैया कराई। इस टूट के बावजूद ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह के नेतृत्व में राज्य की सेना ने दो दिनों तक उनका उरी में डटकर मुकाबला किया, लेकिन एक बार जब यह प्रतिरोध ढह गया तब हमलावरों ने बारामुला पर कब्जा जमा लिया और श्रीनगर की सरहद पर पहुंच गए। उन्होंने श्रीनगर की बिजली आपूर्ति भी रोक दी।
थोड़े दिन में ही हरि सिंह को यह अहसास हो गया कि उनके अनिर्णय की कीमत राज्य को चुकानी पड़ रही है। उसके बाद उहोंने भारतीय सेना से मदद की गुहार लगाई। तमाम उलझनों के बावजूद वस्तुस्थिति में यह परिवर्तन भारत के सामरिक हित में था, लेकिन नेहरू सरकार ने यह विचार किया कि जम्मू-कश्मीर को बचाने में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, भले ही वह राज्य भारत की तरफ हाथ बढ़ा रहा हो। इसके बाद 26 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने अंतिम रूप से भारत के साथ विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और फिर 27 अक्टूबर की सुबह से ही नई दिल्ली ने श्रीनगर में अपने जवानों को वायुसेना की मदद से उतार दिया। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल की दृढ़ता ने एकदम सही समय पर श्रीनगर में भारतीय सेना की पहुंच सुनिश्चित की। दो हफ्ते के अंदर बारामुला और उरी की चोटियों को हमलावरों से खाली करा लिया गया। वायुसेना प्रमुख की टिप्पणी इसी घटना से संबंधित है।
उधर सेना जब अपना अभियान चला रही थी तब प्रधानमंत्री नेहरू ने एक जनवरी, 1948 को सरदार पटेल की सलाह के विपरीत इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला किया। भारत की शिकायत के बाद संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने दोनों देशों के दावे की जांच करने और उनके निपटारे के लिए एक आयोग गठित करने का निर्णय किया। लगातार इंकार के बाद पाकिस्तान ने यह माना कि कश्मीर ऑपरेशन में उसकी सेना शामिल थी। तब संयुक्त राष्ट्र के आयोग ने एक प्रस्ताव पारित किया। बहरहाल कश्मीर मुद्दे के लिए संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाने के बाद नेहरू आठ दिसंबर, 1947 को दोनों देशों में तनाव दूर करने के लिए और पाकिस्तानी हमलावरों को कश्मीर से हटने की अपील करने के लिए अपने पाकिस्तान समकक्ष लियाकत अली खान के साथ मिलने लाहौर गए। विदेश विभाग के तत्कालीन सचिव वीपी मेनन के अनुसार लियाकत अली ने अपनी कमजोर सरकार का हवाला देकर ऐसा करने में असमर्थता जताई। दरअसल लियाकत अली ने कहा कि भारत के लिए बेहतर यह होगा कि वह अपनी सेना को वापस बुलाए और राज्य में तटस्थ प्रशासक की नियुक्ति करे। नेहरू लाहौर से खाली हाथ लौट आए। कश्मीर को लेकर संयुक्त राष्ट्र जाने के नेहरू के निर्णय ने भारत के हितों को दो तरह से नुकसान पहुंचाया। पहला, इसने कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया। दूसरे, इसने हमलावरों को कश्मीर से निकाल फेंकने के लिए सेना द्वारा चलाए जा रहे अभियान को रोक दिया। कहा जाता है कि संघर्ष विराम कायम करने का आदेश तब दिया गया जब सेना को अपना अभियान पूरा करने में कुछ ही दिन बचे थे। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र से अनुरोध करने के निर्णय ने भारत को कमजोर राष्ट्र के रूप में पेश किया कि उसे आक्रमणकारियों को बाहर निकालने के लिए किसी तीसरे पक्ष की जरूरत है।
अधिकतर भारतीय जो 1947 के अंतिम महीनों में कश्मीर के हालात से परिचित होंगे, उन्हें पता होगा कि कैसे कश्मीर दो भागों में बंट गया और पीओके भारत के लिए चुभता कांटा बन गया। एयर चीफ मार्शल राहा ने आजादी के तुरंत बाद भारतीय शासन की कमजोरी और भारत के सामरिक हितों को दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से संभालने की अप्रिय यादों को ताजा कराया है। सत्तर साल के लोकतांत्रिक सफर के बाद भी अभी भी सच से नजरें चुराने की नेहरू काल की प्रथा जिंदा है। यही वजह है कि सैन्य प्रतिष्ठान के एक मौजूदा प्रमुख ने सत्तर साल पूर्व की गलतियों का जिक्र किया तो उस पर कुछ लोगों ने नाक-भौं सिकोड़ी। हमें एयर चीफ मार्शल राहा को उनकी स्पष्टवादिता के लिए धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि सुरक्षा और सेना से संबंधित मामलों में सिर्फ सीधा सच ही देश की हितों की रक्षा करेगा।

[लेखक ए सूर्यप्रकाश, प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं]