संतोष त्रिवेदी: राजनीति भी अजीब है। सरकार कुछ नहीं करती तो उस पर सवाल उठाती है। जब कर डालती है तो भी उठाती है। अब सरकार करे तो क्या करे? वह हाथ पर हाथ धरे तो बैठ नहीं सकती। उसे चलना भी होता है, नहीं तो यह आरोप लगता है कि सरकार चल नहीं रही है। बहरहाल ‘महंगाई-महंगाई’ की रट लगा रहे लोग उस समय भौंचक रह गए जब सरकार ने एक झटके में भारी राहत दे दी। गैस का गुब्बारा जो आसमान छू रहा था, एकदम से फुस्स होकर जमीन पर आ गिरा। सुनने में आया है कि यह सीधा विपक्ष के ऊपर गिरा है। सरकार की इस उदारता को भी विपक्ष ने अपने ऊपर प्रहार माना।

सरकार चाहती तो वह हथौड़ा या बुलडोजर भी उतार सकती थी, पर एक नरम चोट से ही विपक्ष गरम हो गया। इसी वजह से वह चीखने-चिल्लाने लगा है। उसे डर है कि अगर सरकार जनता के लिए उदार साबित हो गई तो उसको ‘निर्मम’ साबित करना और मुश्किल होगा। राहत के बदले सरकार को तो जनता से उम्मीद है, पर विपक्ष को नहीं। आजकल वैसे भी जनता किसी मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेती। महंगाई में रहते-रहते वह इतना अभ्यस्त हो गई है कि उसे इसके चढ़ने-उतरने का पता ही नहीं चलता। हद तो यह कि विपक्ष ‘एका’ के गीत गा रहा है और जनता अपने काम में तल्लीन है।

अभी घरेलू एलपीजी सिलेंडर के दाम घटे तो हो-हल्ला मचा। आगे पता नहीं और क्या-क्या घटने वाला है! विपक्ष को लगता है कि उसकी सीटें घटने वाली हैं। सरकार ने अचानक सत्र बुला लिया है। इसमें भी उसे कुछ घटने की आशंका है। कुछ लोग हवा उड़ा रहे हैं कि सरकार ‘एक देश-एक चुनाव’ का मसौदा ला रही है। ऐसा हुआ तो कई दल घट जाएंगे। सरकार भी कुछ बता नहीं रही है। वह हवा दे रही है। उसे लगता है यह ‘स्कीम’ जनता के हित में है। जब हर बार उसे ही जीतना है तो चुनाव बार-बार क्यों हों? इससे विकास कार्यों में बाधा पड़ती है। चुनावों में जो पैसा पानी की तरह बहता है, उसे जनहित में रोकना होगा। वैसे यह खबर सोलह आने सच नहीं है, पर सरकार यह सब सोच सकती है। वह हमेशा दूर की सोचती है। उसे यूं ही ‘दूरदर्शी’ नहीं कहा जाता! हां, सरकार की निकटदृष्टि कमजोर होती है। पास होती घटनाएं इसीलिए उसे नजर नहीं आतीं। यह दृष्टि का दोष है, सरकार का नहीं।

असल बात तो यह कि खिलाफ पार्टी वाले जनता को लगातार उकसाते हैं। सरकार के नेक कदम की सराहना करने के बजाय उसकी नीयत पर सवाल उठाते हैं। टमाटर और गैस के दाम एकदम से कम होने के बाद सरकार का आभार जताना चाहिए था। बजाय इसके यह कहा जा रहा है कि दाम तिगुने करके थोड़ा कम कर दिए तो इसमें खास क्या है! उस पर यह बेहद गंभीर आरोप भी लग रहा है कि वह चुनाव देखकर डर गई है। अव्वल तो सरकार किसी से डरती नहीं है। हां, विपक्ष भले उससे डर रहा हो और चुनावों से भी। इसीलिए आए दिन उसकी बैठकें हो रही हैं। लोग मिल रहे हैं, पर मन नहीं। गठबंधन एक है, पर नेता अनेक हैं। इनमें किसी के पास न तो सरकार जैसी दृष्टि है और न ही सरकार चलाने का बूता। चुनाव बाद आपस में ही मारामारी होगी। लगता है कि सरकार इसी ‘हिंसा’ को रोकना चाहती है। बार-बार न चुनाव होंगे, न बार-बार जूता-लात होगा। फिर भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

अगर वाकई ‘एक देश एक चुनाव’ की योजना अमल में आ गई तो इसके क्रांतिकारी नतीजे निकलेंगे। मतदाता को पांच साल में एक बार ही ‘प्रसाद’ मिलेगा। नेता केवल एक बार ‘संकल्प-पत्र’ पढ़ेंगे। चुनाव में ड्यूटी लगने पर कर्मचारियों को एक बार ही मेडिकल बनवाना पड़ेगा। सबसे बड़ी राहत सरकार को मिलेगी। दाम अनेक बार बढ़ा सकेगी, पर मतदाता को ‘राहत’ एक बार ही बांटनी पड़ेगी। फिर इस तरह की ‘राहत’ के बाद होने वाली सियासत भी एक बार ही होगी। मीडिया को भी बार-बार सर्वे निकालकर सरकार बनाने से राहत मिलेगी। मतलब सब कुछ एक बार ही होगा। मगर ये सब तब होगा जब सरकार विपक्ष की आशंका को ‘सच’ में तब्दील कर देगी। तब तक हम और आप आखिरी राहत का इंतजार कर सकते हैं।