जागरण संपादयकीय: सुनिश्चित की जाए बच्चों की सुरक्षा, आखिर वे पढ़ेंगे कैसे?
बहुत पुरानी बात नहीं इसी साल जनवरी में यह बताया गया था कि बच्चों के खिलाफ साइबर क्राइम में 32 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसोस की बात यह है कि बच्चों के खिलाफ अपराधों का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। वैसे तो बच्चे और बच्चियां दोनों ही यौन अपराधों का शिकार हो रहे हैं मगर बच्चियों की संख्या ज्यादा है।
क्षमा शर्मा। पिछले दिनों गाजियाबाद से खबर आई कि नर्सरी में पढ़ने वाली चार साल की बच्ची का बस के चालक, परिचालक और सहायक ने यौन शोषण किया। स्कूल अधिकारियों को जब पता चला तो तीनों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन पर केस दर्ज कराया। बच्ची के परिवार वालों ने केस दर्ज नहीं कराया था। दूसरे बच्चों के माता-पिता को जब इस बात की सूचना मिली तो उन्होंने स्कूल के बाहर विरोध-प्रदर्शन किया। खबर के अनुसार बच्ची उस वक्त बस में अकेली थी।
सवाल यह है कि इतनी छोटी बच्ची बस में अकेली क्यों थी? उसके साथ स्कूल की कोई महिला कर्मचारी क्यों नहीं थी? हाल में उत्तर प्रदेश महिला आयोग ने इस तरह की मांग की थी कि सभी स्कूल बसों में महिला सुरक्षा कर्मचारियों को होना चाहिए। उत्तर प्रदेश के शामली जिले में तो अधिकारियों ने इस तरह की व्यवस्था भी कर दी है कि स्कूल बसों में महिला सुरक्षा गार्ड या महिला शिक्षक का होना जरूरी है। ध्यान रहे कि निर्भया कांड के बाद दफ्तरों में महिला कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए यह नियम बनाया गया था कि रात की पाली में काम करने वाली महिला कर्मचारियों के साथ दफ्तर का कोई कर्मचारी अवश्य होगा और वह यह सुनिश्चित करेगा कि महिला या लड़की अपने घर सकुशल पहुंच जाए। आखिर ऐसा नियम स्कूल बसों पर लागू क्यों नहीं है?
छोटी बच्चियां तो यौन अपराध को समझ भी नहीं सकतीं। उनके दिल में ऐसी घटनाओं के प्रति इतना भय बैठ जाता है कि कई बार उसे दूर करना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए पुलिस उन बच्चियों की काउंसलिंग कराती है, जिनके साथ ऐसा अपराध हुआ होता है। चिंता की बात यह है कि ऐसी खबरें लगातार आती रहती हैं। रतलाम में एक पांच वर्ष की बच्ची के साथ स्कूल के ही एक कर्मचारी के नाबालिग लड़के ने यौन अपराध किया। ठाणे के एक स्कूल में स्कूल के ही एक कर्मचारी ने दो बच्चियों के साथ यौन अपराध किया। नोएडा के एक नामी स्कूल में भी छोटी बच्ची के साथ डिजिटल रेप किया गया। इन सभी मामलों में बच्चों के माता-पिता स्कूल में विरोध करने भारी संख्या में पहुंचे। एनसीआरबी के 2023 के आंकड़ों के अनुसार 2022 में बच्चों के प्रति अपराधों(यौन अपराध समेत) में 26
प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दिल्ली में सबसे अधिक 7,400, मुंबई में 3,178, बेंगलुरु में 1,578 और जयपुर में सबसे कम 748 दर्ज किए गए, जबकि कर्नाटक में ऐसे मामलों में छियालीस प्रतिशत तक बढ़ोतरी देखी गई।
बहुत पुरानी बात नहीं, इसी साल जनवरी में यह बताया गया था कि बच्चों के खिलाफ साइबर क्राइम में 32 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अफसोस की बात यह है कि बच्चों के खिलाफ अपराधों का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। वैसे तो बच्चे और बच्चियां दोनों ही यौन अपराधों का शिकार हो रहे हैं, मगर बच्चियों की संख्या ज्यादा है। सवाल यह है कि जिन स्कूलों में बच्चे और बच्चियां पढ़ने जाते हैं, वहां जब कोई अपराध हो जाता है, तभी अधिकारी क्यों जागते हैं? पहले से इन बातों पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता या हम उस दौर में फिर से पहुंचना चाहते हैं, जहां लड़कियां लड़कियों के ही स्कूल में पढ़ती थीं। माना जाता है कि लड़के-लड़कियां अगर साथ पढ़ते हैं, तो उनका विकास सही तरीके से होता है। यह धारणा सही भी है। जब ऐसे सर्वेक्षण किए जाते थे कि माता-पिता आखिर अपनी बच्चियों को स्कूल क्यों नहीं भेजते या बीच में ही उनकी पढ़ाई क्यों छुड़वा दी जाती है तो माता-पिता यही कहते थे कि उन्हें अपनी लड़कियों की सुरक्षा की चिंता रहती है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिलें दी थीं, तो स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या में भारी उछाल आया था। उस समय समाचार पत्रों में स्कूल जाने वाली लड़कियों के चित्र छापे जाते थे। वे इतनी ज्यादा थीं कि सड़क पर एक इंद्रधनुष सा दिखाई देता था। इस तरह समूह में जाने पर उनकी सुरक्षा की चिंता भी उतनी नहीं रहती थी, लेकिन जब दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में स्कूलों में बच्चियों-बच्चों के प्रति तरह-तरह के अपराध हो रहे हैं, तो क्या यह धारणा गलत मान ली जाए कि महानगर महिलाओं, बच्चियों, लड़कियों के लिए अधिक सुरक्षित होते हैं? स्कूलों में होने वाले अपराधों को कैसे बढ़ने से रोका जा सकता है? इस पर सिर्फ विचार-विमर्श ही न हो, बल्कि प्रभावी उपायों को जमीन पर उतारा जाए। यदि बच्चियां स्कूल और स्कूल परिवहन के साधनों में ही सुरक्षित नहीं, तो वे पढ़ेंगी कैसे? कैसे माता-पिता स्कूलों पर भरोसा करेंगे कि एक बार बच्ची या बच्चा स्कूल चला गया, तो घर वापस आने तक उसे कोई खतरा नहीं है।
इन दिनों मोबाइल पर पोर्न सहज उपलब्ध है। भारत में इसे देखने वाले भी बहुत हैं। छोटे बच्चों के साथ बनाई गई ऐसी फिल्मों को भी देखने वाले लोग हैं। भारत सरकार भले ही इस तरह के पोर्न पर प्रतिबंध लगा दे, लेकिन इंटरनेट के जमाने में इन्हें कहीं न कहीं से खोज ही लिया जाता है। यौन अपराधों में पोर्न की बड़ी भूमिका मानी जाती है। जब से हर एक के हाथ में स्मार्टफोन आया है, ऐसे अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। कुछ साल पहले मुंबई में दो बच्चों ने पांच साल की एक बच्ची से दुष्कर्म किया था। ऐसे में बच्चियां क्या करें? वे कहां जाएं, क्योंकि न स्कूल, न बस, न खेल की जगह सुरक्षित है। कई बार तो कामकाजी माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल के लिए जिन सहायकों को रखते हैं, वे भी बच्चों के साथ अपराध करते पाए जाते हैं। यदि मासूम बच्चे ही सुरक्षित नहीं तो समाज में कौन सुरक्षित रह सकता है?
(लेखिका साहित्यकार हैं)