रोजगार के सवाल का समाधान, अधिक अवसर पैदा करने की जरूरत
सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण का एक बड़ा कारण यह मान्यता भी है कि ये नौकरियां सुरक्षा की गारंटी और आरामतलबी का पर्याय होती हैं। कुछ तो इन्हें अतिरिक्त कमाई का साधन मानकर चलते हैं। चूंकि औसत सरकारी कर्मचारी जवाबदेही से मुक्त हैं और उनके कार्यों का मुश्किल से ही आकलन होता है इसलिए वे अपने काम के प्रति वैसी लगन और प्रतिबद्धता नहीं दिखाते जैसी आवश्यक है।
संजय गुप्त। लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद विपक्ष और विशेष रूप से कांग्रेस मोदी सरकार के प्रति किस तरह हमलावर है, इसका प्रमाण पिछले दिनों तब फिर मिला, जब राहुल गांधी ने गुजरात में नौकरी के लिए साक्षात्कार देने आए युवाओं की भीड़ का उल्लेख करते हुए कहा कि बेरोजगारी महामारी बन गई है और भाजपा शासित राज्य बेरोजगारी के गढ़ बन गए हैं। साफ है कि वह यह माहौल बनाना चाहते हैं कि रोजगार के मोर्चे पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में कोई चुनौती नहीं और सारी समस्या केंद्र सरकार के स्तर पर और भाजपा शासित राज्यों में है। ऐसा कोई आकलन झूठ ही कहा जाएगा, लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगी दल अब झूठ का भी सहारा ले रहे हैं। कुछ ही दिनों पहले गोरखपुर में एक युवा की आत्महत्या पर भी विपक्षी नेताओं की ओर से यही झूठ फैलाया गया कि उसने नौकरी चली जाने के कारण आत्महत्या कर ली, जबकि उसने पारिवारिक कारणों से नौकरी छोड़ी थी।
भले ही भाजपा ने राहुल गांधी को निशाने पर लेते हुए यह कहा हो कि वह रोजगार के मामले में लगातार झूठ बोल रहे हैं, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं। भाजपा और साथ ही उसकी केंद्र एवं राज्य सरकारों को इस झूठी धारणा के खिलाफ सक्रिय होना होगा कि रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। यह धारणा तथ्यों के विपरीत है। हाल में स्टेट बैंक आफ इंडिया के एक अध्ययन में यह कहा गया कि मोदी सरकार के दस साल के शासनकाल में मनमोहन सरकार की तुलना में कई गुना अधिक रोजगार के अवसर पैदा हुए। कुछ दिनों पहले रिजर्व बैंक ने एक विदेशी संस्था के आकलन को खारिज करते हुए यह बताया था कि पिछले वर्ष किस तरह 4.67 करोड़ नौकरियां बढ़ीं। रिजर्व बैंक के अनुसार बीते वित्त वर्ष तक देश में कुल नौकरियां बढ़कर 64 करोड़ से अधिक हो गई हैं, जबकि उसके पिछले वर्ष उनकी संख्या करीब 60 करोड़ थीं।
यह सही है कि रोजगार के और अधिक अवसर पैदा करने की आवश्यकता है, लेकिन इस आवश्यकता की पूर्ति करना केवल केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं। इसकी पूर्ति तो केंद्र और राज्यों, दोनों को मिलकर करनी होगी। इसके लिए दोनों को निजी क्षेत्र का सहयोग लेना और देना होगा। उन्हें यह देखना होगा कि वे कौन से क्षेत्र हैं, जहां रोजगार के अधिक अवसर पैदा हो सकते हैं। निजी क्षेत्र में रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करके ही सरकारी नौकरियों के आकर्षण को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि युवाओं में कौशल विकास किया जाए। इसकी आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि आज हुनर वाले कार्यों की जरूरत बढ़ गई है। अपने देश में डिग्रीधारी ऐसे युवाओं की संख्या बढ़ रही है, जिनके पास किसी तरह का हुनर नहीं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का स्तर ऐसा है कि उनमें से अनेक तो ढंग से एक आवेदन पत्र भी नहीं लिख सकते। एक समस्या यह भी है कि हुनर वाले अनेक कार्यों को या तो छोटा काम समझा जाता है या उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है।
इसी कारण कई उद्योग-धंधों को जैसे हुनरमंद युवाओं की आवश्यकता है, वैसे उन्हें नहीं मिल पाते। स्पष्ट है कि सामाजिक स्तर पर कहीं न कहीं यह संदेश देना होगा कि कोई भी कार्य छोटा नहीं होता और देश को सामान्य डिग्रीधारी युवाओं के मुकाबले हुनरमंद युवाओं की जरूरत अधिक है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि फिक्की और सीआइआइ जैसे संगठन यह कहते रहे हैं कि उन्हें जैसे कार्यकुशल युवा चाहिए, वैसे नहीं मिल पा रहे हैं। इसका मतलब है कि शिक्षा को कौशल विकास से जोड़ना होगा। क्या यह काम हो पा रहा है?
निजी क्षेत्र में रोजगार के और अधिक अवसर कैसे पैदा हों, इसके लिए पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों को मिलकर कार्य करने की जरूरत है, लेकिन दुर्भाग्य से विपक्षी दलों ने यह माहौल बना रखा है कि रोजगार के अवसर पैदा करना केवल केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। चूंकि अपने देश मे स्वरोजगार और असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोगों के सही आंकड़े नहीं मिल पाते, इसलिए यह माहौल बनाने में आसानी होती है कि रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं बन रहे हैं। नौकरियों के मामले में यह धारणा हमारे समाज में भी व्याप्त है कि रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी होता है। विपक्षी दल भी यह माहौल बनाते हैं और इसी कारण हर कोई सरकारी नौकरी की ताक में रहता है। इस सच को सभी को स्वीकारना होगा कि कोई भी सरकार हो, वह हर किसी को सरकारी नौकरी नहीं दे सकती। इतनी सरकारी नौकरियां हैं ही नहीं कि सभी को समाहित किया जा सके।
सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण का एक बड़ा कारण यह मान्यता भी है कि ये नौकरियां सुरक्षा की गारंटी और आरामतलबी का पर्याय होती हैं। कुछ तो इन्हें अतिरिक्त कमाई का साधन मानकर चलते हैं। चूंकि औसत सरकारी कर्मचारी जवाबदेही से मुक्त हैं और उनके कार्यों का मुश्किल से ही आकलन होता है, इसलिए वे अपने काम के प्रति वैसी लगन और प्रतिबद्धता नहीं दिखाते, जैसी आवश्यक है। यही कारण है कि उनकी उत्पादकता कम है और शायद इसी वजह से अब केंद्र और राज्य सरकारों के अनेक विभाग आउटसोर्सिंग का सहारा लेने लगे हैं अथवा अनुबंध पर नौकरियां देते हैं। इसका एक कारण औसत सरकारी कर्मचारियों में जवाबदेही का अभाव भी है। यह किसी से छिपा नहीं कि अपने देश में यदि किसी को सरकारी नौकरी मिल जाती है तो वह तब भी चलती रहती है, जब संबंधित व्यक्ति अपना काम सही तरीके से नहीं करता।
यह सही समय है कि सरकारी नौकरियों को कार्यकुशलता एवं दक्षता की कसौटी पर कसा जाए। उचित यह होगा कि सरकारें ऐसी सेवा शर्तें बनाएं, जिससे सरकारी कर्मचारी जवाबदेह एवं जिम्मेदार बन सकें और जो यह मानकर चलते हैं कि ये नौकरियां आरामतलबी का पर्याय हैं, उन्हें यह आभास हो सके कि सरकारी कर्मचारी के रूप में यदि वे अपना काम सही तरह नहीं करेंगे तो निजी क्षेत्र के कर्मियों की तरह उनकी भी नौकरी खतरे में पड़ सकती है। ऐसा करके ही सरकारी नौकरियों के प्रति अनावश्यक चाहत को कम किया जा सकता है।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]