जागरण संपादकीय: मदरसा शिक्षा में सुधार की राह खुली, कई भ्रम दूर
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय मदरसा शिक्षा से जुड़े कई भ्रम दूर करेगा और साथ ही उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में मदरसा शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने में भी मदद करेगा । मदरसा संचालित करने के अधिकार को मान्यता मिलने से अल्पसंख्यक समाज को संविधान के अनुच्छेद 30(1) में दिए गए मौलिक अधिकारों की रक्षा की गई है ।
डॉ. हरबंश दीक्षित। उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड अधिनियम, 2004 पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आम फैसलों से अलग है। ऐसा बहुत कम होता है कि अदालत के किसी निर्णय से दोनों पक्षकार संतुष्ट हों, लेकिन इस मामले में ऐसा ही देखने को मिला। सुप्रीम कोर्ट ने अंजुम कादरी और अन्य बनाम भारत संघ के निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए उत्तर प्रदेश मदरसा एक्ट, 2004 को संवैधानिक ठहराया, किंतु कामिल (स्नातक) और फाजिल (परास्नातक) डिग्री देने से संबंधित प्रविधानों को यूजीसी एक्ट 1956 के विरुद्ध होने के कारण असंवैधानिक घोषित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में यह मुकदमा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ अपील के रूप में आया था, जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड एक्ट, 2004 को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 22 मार्च, 2024 के अपने फैसले में कहा था कि मदरसा बोर्ड की स्थापना संविधान के पंथनिरपेक्ष ढांचे, अनुच्छेद 21(क) में उल्लिखित अधिकार और सबको समान शिक्षा पाने के मूल अधिकार का उल्लंघन है। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए कहा गया कि उच्च न्यायालय में में अल्पसंख्यकों को मिले मूल अधिकार की अनदेखी की गई है।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने तीन प्रश्न थे। पहला यह कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाओं को स्थापित करने और उनके संचालन के अधिकार का अर्थ और उसकी सीमा क्या है। दूसरा प्रश्न यह था कि क्या यह कानून पंथनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है और तीसरा यह कि अनुच्छेद 21(क) में दिए गए शिक्षा के मूल अधिकार और अनुच्छेद 30(1) में अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाएं स्थापित और प्रशासित करने के अधिकार के बीच क्या अंतर्संबंध है?
उत्तर प्रदेश में मदरसा शिक्षा बोर्ड एक्ट, 2004 के माध्यम से मदरसा बोर्ड स्थापित किया गया था। इसके अधीन मदरसों को पांचवीं (तहतानियां), आठवीं (फौकानिया), दसवीं (मुंशी-मौलवी), बारहवीं (आलिम), स्नातक (कामिल) तथा परास्नातक (फाजिल) डिग्री देने का अधिकार दिया गया था। मदरसा बोर्ड का तर्क था कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाओं के संचालन का अधिकार है और संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने टीएमए पई फाउंडेशन (2002), इस्लामिक अकादमी आफ एजुकेशन (2003) तथा पीए ईनामदार (2005) जैसे कई मुकदमों में यह कहा था कि अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक समाज को शिक्षण संस्थाएं खोलने और एवं संचालन का अधिकार है, किंतु यह अधिकार असीम नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट मान्यता रही है कि संस्थाओं के लोकतांत्रिक स्वरूप को बचाने तथा शिक्षा के स्तर एवं गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा बनाए नियमों को इन संस्थाओं को भी मानना होगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती निर्णयों की भांति उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड एक्ट, 2004 के मामले में भी यही कहा कि अल्पसंख्यक समाज को अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार अनुच्छेद 30(1) द्वारा दिया गया है। इसी के चलते उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय का वह हिस्सा निरस्त कर दिया, जिसमें मदरसा बोर्ड को पूरी तरह असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अल्पसंख्यक समाज अपनी पसंद के शिक्षण संस्थान स्थापित कर सकते हैं, किंतु शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए सरकार या उसके द्वारा स्थापित नियामक संस्थाओं द्वारा बनाए गए नियम अल्पसंख्यक संस्थाओं पर भी बाध्यकारी होंगे। यूपी मदरसा बोर्ड द्वारा दी जाने वाली डिग्री की मान्यता के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि शिक्षण संस्था खोलने के अधिकार और डिग्री की मान्यता को अलग-अलग देखा जाना चाहिए।
अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यक समाज को शिक्षण संस्थाएं खोलने का अधिकार देता है, किंतु इसके अंतर्गत संस्थाओं की डिग्री को मान्यता मिलने का अधिकार शामिल नहीं है। डिग्री की मान्यता के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च शिक्षा संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली डिग्री का नियमन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी द्वारा किया जाता है। शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए इसके द्वारा व्यापक नियम बनाए गए हैं।
चूंकि मदरसा बोर्ड विश्वविद्यालय आयोग अधिनियम, 1956 की धारा 2(एफ) के तहत मान्यता प्राप्त नहीं, इसलिए उसके द्वारा दी जाने वाली कामिल तथा फाजिल की डिग्री विधिसम्मत नहीं। पांचवीं, आठवीं, दसवीं तथा बारहवीं के समकक्ष जारी किए जाने वाले प्रमाण पत्रों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वे अवैध नहीं हैं, किंतु शिक्षा की गुणवत्ता के लिए सरकार उनका भी नियमन कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय मदरसा शिक्षा से जुड़े कई भ्रम दूर करेगा और साथ ही उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में मदरसा शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने में भी मदद करेगा। मदरसा संचालित करने के अधिकार को मान्यता मिलने से अल्पसंख्यक समाज को संविधान के अनुच्छेद 30(1) में दिए गए मौलिक अधिकारों की रक्षा तो की गई है,
किंतु यह भी स्पष्ट किया गया है कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्य छात्रों की तरह स्तरीय शिक्षा पाने का हक है और इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार नियम बना सकेगी। स्नातक और परास्नातक डिग्री देने के अधिकार को भी स्पष्ट करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि इसे यूजीसी अधिनियम, 1956 के अनुरूप ही चलाया जा सकता है।
(लेखक उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग के पूर्व सदस्य एवं विधिवेत्ता हैं)