खत्म होगी दालों के आयात की मजबूरी, आत्मनिर्भर बनने की ओर तेजी से अग्रसर है भारत
दलहन की गारंटीड सरकारी खरीद कितनी क्रांतिकारी साबित होगी इसे हरित क्रांति के उदाहरण से समझा जा सकता है। हरित क्रांति के दौर में गेहूं-धान की खेती में बढ़ोतरी के लिए भारतीय खाद्य निगम द्वारा समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद के सुनिश्चित नेटवर्क की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसे हरित क्रांति के अगुआ रहे पंजाब के उदाहरण से समझा जा सकता है।
रमेश कुमार दुबे। यदि भारत को कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, म्यांमार, मोजांबिक और तंजानिया जैसे देशों से दाल का आयात करना पड़ता है तो इसके लिए देश के किसान नहीं, बल्कि हरित क्रांति की एकांगी नीतियां जिम्मेदार हैं। मोदी सरकार के प्रयासों से भारत चना और मूंग के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका है। अब इस सरकार ने अरहर, उड़द और मसूर के मामले में देश को 2027 तक आत्मनिर्भर बनाने का एलान करते हुए कहा है कि वर्ष 2028 से एक किलो दाल भी आयात नहीं होगी। दलहन आत्मनिर्भरता की शुरुआत अरहर से करते हुए सरकार ने एक वेब पोर्टल लांच किया है, जिस पर अरहर की खेती करने वाले किसान पंजीकरण कर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर आनलाइन अरहर बेच सकेंगे।
किसानों को उपज का भुगतान सीधे उनके बैंक खाते में प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण (डीबीटी) के जरिए किया जाएगा। यदि किसानों को सरकार द्वारा तय भाव से ज्यादा दाम मिलते हैं तो वे अपनी अरहर को अन्य जगह बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। सरकार जल्द ही उड़द और मसूर के लिए भी इसी प्रकार की व्यवस्था करने जा रही है। इस वेब पोर्टल को लांच करते समय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि दाल आयात करना भारत के लिए सम्मानजनक नहीं है। दिसंबर 2027 से पहले भारत दालों के मामले में आत्मनिर्भर होगा और जनवरी 2028 से भारत एक किलो दाल भी आयात नहीं करेगा।
समर्थन मूल्य पर दालों की सरकारी खरीद न होने के कारण किसानों को अपनी उपज औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इससे किसान दलहनी फसलों के बजाय उन फसलों की खेती करने लगे, जिनकी सुनिश्चित सरकारी खरीद की गारंटी है, जैसे गेहूं, धान। इसका एक नुकसान यह भी हुआ कि कई देश भारत में दालों की मांग को ध्यान में रखकर अपने यहां दलहन की निर्यात आधारित खेती करने लगे, जैसे कनाडा के सस्केचेवान प्रांत में भारतीय मांग को ध्यान रखकर पीली मटर की खेती की जाती है। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने दलहन के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने हेतु सुझाव देने के लिए अरविंद सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। समिति की सिफारिशों को मानते हुए सरकार ने न केवल दलहन के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की, बल्कि दालों की सरकारी खरीद के नेटवर्क का विस्तार भी किया।
2014-15 में अरहर का एमएसपी 4350 रुपये था, जो आज 7000 रुपये प्रति क्विंटल है। इसी तरह मूंग की एमएसपी 4600 रुपये से बढ़ाकर 8558 रुपये, उड़द की एमएसपी 4350 से बढ़ाकर 6950 रुपये और चने की एमएसपी 3100 रुपये से बढ़ाकर 5440 रुपये प्रति क्विंटल की गई। सरकार ने मसूर की एमएसपी 2950 को दोगुने से अधिक बढ़ाते हुए 6425 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया। बीते दस वर्षों में दलहन के समर्थन मूल्य में जितनी वृद्धि हुई है, उतनी इसके पहले नहीं हुई। सरकार ने दलहन की गुणवत्ता और उत्पादन बढ़ाने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के साथ 150 उन्नत बीज केंद्र स्थापित किए हैं। इनसे बहुत से किसान उत्पादन संगठन (एफपीओ) भी जुड़े हैं।
दलहन के समर्थन मूल्य में भारी-भरकम बढ़ोतरी और सरकारी खरीद नेटवर्क में विस्तार का नतीजा है कि देश में दालों का उत्पादन तेजी से बढ़ा। उदाहरण के लिए 2013-14 में जहां दालों का घरेलू उत्पादन 192 लाख टन था, वहीं 2022-23 में यह बढ़कर 278 लाख टन हो गया। इसका परिणाम दालों के आयात में कमी के रूप में सामने आया। 2016-17 में जहां देश 66 लाख टन दाल आयात करता था, वहीं 2022-23 में यह मात्रा घटकर 25 लाख टन रह गई है।
दलहन की गारंटीड सरकारी खरीद कितनी क्रांतिकारी साबित होगी, इसे हरित क्रांति के उदाहरण से समझा जा सकता है। हरित क्रांति के दौर में गेहूं-धान की खेती में बढ़ोतरी के लिए भारतीय खाद्य निगम द्वारा समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद के सुनिश्चित नेटवर्क की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसे हरित क्रांति के अगुआ रहे पंजाब के उदाहरण से समझा जा सकता है। 1970-71 में पंजाब में कुल कृषि योग्य भूमि के 48.9 प्रतिशत पर गेहूं और 8.3 प्रतिशत पर धान की खेती होती थी। बाकी के रकबे पर अन्य फसलों की खेती होती थी, जिनमें मक्का, कपास, चना, बाजरा और मूंगफली मुख्य थीं। 45 साल बाद 2014-15 में पंजाब की कृषि योग्य भूमि के 49.3 प्रतिशत पर गेहूं और 40.7 प्रतिशत रकबे पर धान की खेती हो रही थी। इस प्रकार दोनों फसलें 90 प्रतिशत रकबे को घेरे हुए थीं। इस दौरान राज्य में गेहूं का रकबा तो कमोबेश उतना ही रहा, लेकिन धान के रकबे में पांच गुना से अधिक की बढ़ोतरी हुई। कम वर्षा वाले पंजाब जैसे राज्य में दलहनी-तिलहनी फसलों और मोटे अनाजों की कीमत पर धान की खेती को प्रमुखता मिलने का नतीजा यह हुआ कि भूजल स्तर तेजी से गिरा और फसल चक्र रुकने से मिट्टी की उर्वरता में कमी आई, जिससे खेती की लागत बढ़ी।
ऐसा नहीं है कि पंजाब के किसान धान की खेती से हो रहे नुकसान से परिचित नहीं हैं, लेकिन समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद का सुनिश्चित नेटवर्क उन्हें धान की खेती से बांधे हुए है। स्पष्ट है कि जब तक दलहनी-तिलहनी फसलों और मोटे अनाजों की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की गारंटी नहीं मिलती, तब तक किसान गेहूं-धान के कुचक्र से बाहर नहीं निकलेंगे। अब यह कार्य मोदी सरकार दालों के सरकारी खरीद के वेब पोर्टल के जरिए करेगी। इससे जहां फसल चक्र का पालन एवं कृषि का विविधीकरण होगा तो वहीं हरित क्रांति के दौरान उत्पन्न हुई विकृतियां भी दूर होंगी।
(लेखक एमएसएमई मंत्रालय के निर्यात संवर्द्धन और विश्व व्यापार संगठन प्रभाग में अधिकारी हैं)