आफत नहीं, जीवन है मानसून: आगमन से पहले नहीं होती तैयारी, बरसते पानी को एकत्र करने की भी नहीं होती व्यवस्था
यह जल अधिक से अधिक एक हफ्ते में धरती द्वारा सोख लिया जाएगा। ऐसी नम भूमि पर आगे चलकर अच्छी घास भी उगेगी। इस प्रकार बरसात के पानी को संभाल कर रखने में स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी भूमिका एवं जागरूकता तो बढ़ेगी ही इससे भूजल का रिचार्ज भी होगा जो खेतों एवं कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।
पंकज चतुर्वेदी। मानसून के आगमन के साथ ही देश के वे हिस्से, जो कुछ दिन पहले पानी के लिए व्याकुल थे, पानी-पानी हो गए। जैसे ही प्रकृति ने अपना आशीष बरसाया और ताल-तलैया, नदी-नाले उफन कर धरा को अमृतमय करने लगे, समाज का एक वर्ग इसे जय प्रलय, हाहाकार जैसे शब्दों से निरूपित करने लगा।
असल में जब धरती तप रही थी, तब समाज को अपने आसपास के कुएं, बावड़ी, तालाब, जोहड़ और नदी से गंदगी को साफ करना था, उनमें जम गई गाद को खेतों तक ले जाना था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसलिए जो पानी पूरे साल के लिए धरती को जीवन देता, वह लोगों को समस्या लगने लगा। यह बात समझनी होगी कि नदी, नहर, तालाब और झील आदि पानी के स्रोत नहीं हैं।
हकीकत में पानी का स्रोत मानूसन है या फिर ग्लेशियर। तालाब और नदी आदि तो उसे सहेजने के स्थान मात्र हैं। हम मानसून की नियामत को सहेजने के इन स्थानों को गर्मी में तैयार नहीं करते, इसलिए भी जलभराव होता है। आज गंगा-यमुना के उद्गम स्थल से लेकर छोटी नदियों के किनारे बसे गांव-कस्बे तक बस यही हल्ला है कि बरसात ने खेत-गांव सब कुछ उजाड़ दिया, लेकिन मानसून के विदा होने के बाद इन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारा-मारी देखने को मिलेगी। मानसून के जल का विस्तार हमारी जमीन पर नहीं हुआ है, बल्कि हमने ही जल विस्तार की नैसर्गिक जमीन पर अपना कब्जा जमा लिया है।
अरबी शब्द ‘मौसिम’ का अर्थ होता है मौसम और इसी से बना है मानसून। भारत में केवल तीन ही किस्म की जलवायु हैं-मानसून, मानसून-पूर्व और मानसून-पश्चात। तभी भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है। खेती-हरियाली और साल भर के जल का जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद हम न तो मानसून के आगमन की सही तरीके से तैयारी कर पाते हैं और न ही बरसते जल को सम्मान से एकत्र कर पाते हैं।
भारतीय मानसून का संबंध मुख्यत: गर्मी के दिनों में होने वाले वायुमंडलीय परिसंचरण में परिवर्तन से है। गर्मी की शुरुआत होने से सूर्य उत्तरायण हो जाता है। इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में प्रवाहित होने लगती है। इस तरह तापमान बढ़ने से निम्न वायुदाब निर्मित होता है। दक्षिण में हिंद महासागर में मेडागास्कर द्वीप के समीप उच्च वायुदाब का विकास होता है।
इसी उच्च वायुदाब के केंद्र से दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है। भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून की दो शाखाएं हो जाती हैं-बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की शाखा। इस समय देशवासियों को जल देवता को शरण देने के लिए कुछ समय और श्रम देना चाहिए। भले ही हमने गर्मी में तैयारी नहीं की, लेकिन अभी भी देर हुई नहीं है। धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है।
यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश के पानी को जमा किया जाए तो 500 लाख हेक्टेयर पानी एकत्र किया जा सकता है। इस तरह प्रति व्यक्ति औसतन 100 लीटर पानी साल भर पूरे देश में दिया जा सकता है। हालांकि इस प्रकार से पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियों को खोजा जाए। उन्हें सहेजने और संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए।
समाज को एक बार फिर ‘पानीदार’ बनाया जाए। यह ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारंपरिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही न पाएं। इसलिए जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए। सनद रहे कि हमारे पूर्वजों ने देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित एवं संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल एवं खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था।
धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। यह आमतौर पर वर्षा जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटे तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही।
कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रही हैं। आज ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए उनके आसपास सफाई और उनमें भरने वाले पानी को बाहरी प्रदूषण से बचाने की जरूरत है और वह भी स्थानीय समाज द्वारा। यही नहीं, शहरी और कस्बाई इलाकों में बगीचे जैसी संरचनाओं में कुछ दिन बरसाती नाली में जा रहे पानी को समेटा जा सकता है।
यह जल अधिक से अधिक एक हफ्ते में धरती द्वारा सोख लिया जाएगा। ऐसी नम भूमि पर आगे चलकर अच्छी घास भी उगेगी। इस प्रकार बरसात के पानी को संभाल कर रखने में स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी, भूमिका एवं जागरूकता तो बढ़ेगी ही, इससे भूजल का रिचार्ज भी होगा, जो खेतों एवं कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा। मानसून का जीवन के अनिवार्य तत्व की तरह आनंद लें। जहां स्थान मिले, बरसात के पानी को रोकें और उसे धरती में समाहित होने दें।
(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)