संजय द्विवेदी। भारतीय प्रधानमंत्री की रूस यात्रा के बाद पश्चिमी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उनके और साथ ही भारत के प्रति हमलावर हो गया है। वह रूसी राष्ट्रपति पुतिन से भारतीय प्रधानमंत्री की मुलाकात और उनसे गले मिलने को लेकर उनकी आलोचना करने में जुट गया है। दरअसल कुछ पश्चिमी देशों की तरह उनका मीडिया भी भारत को अमेरिका के पाले में लाने के लिए अतिरिक्त जतन कर रहा है।

पश्चिमी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा मोदी के प्रति तभी से पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, जबसे वह पहली बार 2014 में प्रधानमंत्री बने। हालांकि नरेन्द्र मोदी के अपने दोनों कार्यकाल में पश्चिमी नेताओं के साथ अब तक के सबसे अच्छे संबंध रहे हैं, लेकिन पश्चिमी मीडिया के साथ ऐसा नहीं है। वह उन्हें 'ताकतवर' से लेकर 'तानाशाह' तक कई तरह के शब्दों से संबोधित करता है।

अब जब मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बन गए हैं, तब पश्चिमी मीडिया द्वारा फैलाए गए भारत-विरोधी और मोदी-विरोधी एजेंडे का मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है। भारत ने लोकसभा चुनावों के दौरान विदेशी पर्यवेक्षकों को चुनावी प्रक्रिया देखने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने मोदी सरकार पर अल्पसंख्यकों के प्रति 'घृणा' से भरे 'हिंदुत्व' के एजेंडे को आगे बढ़ाने का अपना रुख जारी रखा।

पत्रकारिता का नियम है कि संतुलित रिपोर्टिंग में सभी पक्षों के तथ्य और सभी पक्षों के बयानों को समान रूप से प्रस्तुत किया जाए, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने पूरे परिदृश्य को विकृत किया और बिना किसी पर्याप्त संदर्भ और दूसरे पक्ष के किसी भी दृष्टिकोण को शामिल किए पक्षपातपूर्ण और एकतरफा नैरेटिव बनाए रखा।

पश्चिमी मीडिया ने भारतीय चुनावों को कवर करते हुए प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से रिपोर्ट प्रकाशित की।

चुनाव के दौरान ब्रिटिश दैनिक समाचार पत्र द गार्जियन में प्रकाशित लेखों के कुछ शीर्षक देखें- 'भारत में चुनाव पूरे जोरों पर, नरेन्द्र मोदी हताश और खतरनाक होते जा रहे हैं', 'नरेन्द्र मोदी बने नफरत के सौदागर।' अत्यधिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त ये शीर्षक किसी सनसनीखेज थ्रिलर या किसी धारावाहिक की पंचलाइन के रूप में अधिक उपयुक्त लगते थे।

इनमें से 'भारत में चुनाव पूरे जोरों पर, नरेन्द्र मोदी हताश और खतरनाक होते जा रहे' शीर्षक से प्रकाशित लेख 2002 के गोधरा दंगों के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को दोषी ठहराने से शुरू होता है और उन्हें अपराधी के रूप में चित्रित करता था, लेकिन लिखने वाले ने यह उल्लेख नहीं किया कि मोदी को गोधरा दंगों के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी आरोपों से बहुत पहले ही बरी कर दिया गया था। जाहिर है, लेखक यह सब इसलिए नहीं बताता, क्योंकि यह उसकी शातिर कथा के अनुकूल नहीं था।

लोकसभा चुनाव के दौरान जर्मन ब्राडकास्टर 'डायचे वेले' ने भी 'क्या भारत का चुनाव आयोग मोदी के खिलाफ शक्तिहीन है?' नामक शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया। उसमें मोदी के भाषण को सनसनीखेज बनाने की कोशिश करते हुए कहा गया कि उनके शब्द इस्लामोफोबिया में डूबे हुए हैं। लेख में सुविधाजनक रूप से उस संदर्भ को छोड़ दिया गया, जिसमें मोदी ने टिप्पणी की थी कि धर्म के आधार पर आरक्षण प्रदान करना भारतीय संविधान की भावना और प्रविधानों के विरुद्ध है।

लेख में भारत के चुनाव आयोग को भी एक 'निष्क्रिय दर्शक' कहा गया। चुनाव आयोग के खिलाफ चुनावों के बीच में बिना किसी सुबूत के और अज्ञात स्रोतों द्वारा दिए गए सामान्यीकृत बयानों के आधार पर आकस्मिक आरोप लगाना क्या वाकई में पत्रकारिता है? लगता है कि यह भारत के लोगों की सोच को प्रभावित करने और भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का एक बहुत ही सूक्ष्म प्रयास था। इसी कड़ी में फाइनेंशियल टाइम्स ने लिखा था, 'लोकतंत्र की जननी की हालत अच्छी नहीं।'

न्यूयार्क टाइम्स ने तो 'मोदी को झूठ का मंदिर' बताया, जबकि फ्रांस के प्रमुख अखबार ले मांद ने लिखा, 'भारत में केवल नाम का लोकतंत्र है।' अमेरिकी न्यूज चैनल 'फाक्स' ने लिखा, 'अयोध्या में अल्पसंख्यकों को लगातार डराया जा रहा।' सीएनबीसी ने चुनाव को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था, वहीं सीबीएस टेलीविजन नेटवर्क ने मोदी के चुनाव प्रचार को अल्पसंख्यक विरोधी बताया, लेकिन इनमें से एक भी मीडिया संस्थान महिलाओं के खिलाफ भयानक संदेशखली हिंसा या टीएमसी के लोगों द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं की बेरहमी से हत्या या भाजपा की नूपुर शर्मा की टिप्पणियों का समर्थन करने के लिए कन्हैयालाल की बेरहमी से हत्या जैसे मुद्दों पर बात नहीं की।

पश्चिमी मीडिया का मोदीफोबिया अंतहीन है। लगता है पश्चिम के प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों का मकसद मोदी और साथ ही भारत की छवि को बिगाड़ना है। वे लगातार भारत के खिलाफ नकारात्मक एजेंडा चलाते रहते हैं। कोविड महामारी के समय भी पश्चिमी मीडिया ने भारत को बदनाम करने का अभियान छेड़ दिया था, जबकि तब कई पश्चिमी देशों की स्थिति कहीं अधिक खराब थी। मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बन जाने पर पश्चिमी मीडिया हताश-निराश और नाराज दिख रहा है।

शायद इसी कारण वह यह साबित करने में जुट गया है कि मोदी कमजोर प्रधानमंत्री हैं। कुछ तो उन्हें चुनाव हारा हुआ बता रहे हैं। अब यह और स्पष्ट है कि पश्चिम मीडिया को मोदी के नेतृत्व में भारत का बढ़ता कद रास नहीं आ रहा है। यह एक तथ्य है कि पश्चिम देशों की एक लाबी और वहां के मीडिया का एक हिस्सा भारत की आर्थिक प्रगति को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इसलिए उसकी ओर से हर स्तर पर भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने के प्रयास किए जाते रहते हैं। लगता नहीं कि यह सिलसिला थमेगा।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक हैं)