लोकसभा चुनावों में अपेक्षा से कमजोर प्रदर्शन के बाद भाजपा में आत्ममंथन के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह इस दल के लिए शुभ संकेत नहीं। वैसे तो लोकसभा चुनावों में भाजपा को कई राज्यों में नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन उत्तर प्रदेश के नतीजे उसके लिए खासे आघातकारी रहे और शायद इसी कारण इस राज्य से ही लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं, जो यह बताती हैं कि सरकार और संगठन के स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं।

पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर भी अनुमान के घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं। ऐसा केवल इसलिए नहीं हो रहा है कि उत्तर प्रदेश भाजपा के नेता केंद्रीय नेतृत्व से मिल रहे हैं, बल्कि कुछ नेताओं के ऐसे बयानों से भी हो रहा है, जो सार्वजनिक रूप से नहीं दिए जाने चाहिए थे। यह भी उल्लेखनीय है कि बीते दिनों दोनों उपमुख्यमंत्री मुख्यमंत्री की बैठक से अनुपस्थित रहे।

यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि हाल के समय में यह दूसरी बार है, जब दोनों उपमुख्यमंत्री मुख्यमंत्री की बैठक में नहीं गए। यदि उत्तर प्रदेश में सरकार और संगठन में बदलाव को लेकर मीडिया में अटकलबाजी जारी है, तो इसके लिए भाजपा नेताओं की गतिविधियां ही अधिक उत्तरदायी हैं। केंद्रीय नेतृत्व को यह बुनियादी बात समझनी होगी कि यदि उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चर्चा का बाजार गर्म रहता है तो इससे पार्टी को नुकसान ही उठाना पड़ेगा।

उसे अपने नेताओं की अनावश्यक बयानबाजी पर रोक लगानी होगी, अन्यथा जनता को यही संदेश जाएगा कि उन्हें किसी का संरक्षण मिल रहा है। क्या यह विचित्र नहीं कि जो भाजपा अपने अनुशासन और पार्टी के प्रति नेताओं के समर्पण के लिए जानी जाती है, उसमें अनुशासनहीनता घर करती दिख रही है।

यदि सरकार और संगठन में कोई परिवर्तन होने हैं तो वे किए जाने चाहिए, लेकिन घर की बात बाहर लाए बिना। सरकार और संगठन में संभावित परिवर्तन को लेकर अटकलबाजियों का दौर पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर बुरा प्रभाव डालने वाला तो है ही, विपक्षी नेताओं को कटाक्ष करने का अवसर देने वाला भी है। उत्तर प्रदेश में शीघ्र ही 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं।

इसे देखते हुए होना तो यह चाहिए कि पार्टी नेता अपने मतभेद भुलाकर एकजुट हों। उनमें एकजुटता होनी ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखनी भी चाहिए। फिलहाल ऐसा नहीं है। यदि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में भाजपा 33 सीटों पर ही सिमट गई तो इसके लिए केवल राज्य सरकार को दोष देना सही नहीं होगा।

इसी तरह केवल संगठन को कठघरे में खड़ा करने से भी बात नहीं बनने वाली। निराशाजनक चुनाव नतीजों के लिए दोनों ही उत्तरदायी हैं और दोनों को अपनी कमजोरी दूर करनी होगी। यही काम केंद्रीय नेतृत्व को भी करना होगा, क्योंकि जो नतीजे आए, उनके लिए कहीं न कहीं वह भी जिम्मेदार है।