खुद 99 सीटों के साथ सहयोगी दलों संग 232 सीटें जीतने वाली कांग्रेस जिस तरह ईवीएम पर हमलावर है, वह केवल दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, बल्कि शरारतपूर्ण भी है। ईवीएम के खिलाफ नए सिरे से जो अभियान छेड़ा गया है, उसका उद्देश्य केवल इस मशीन को अविश्वसनीय करार देना ही नहीं, बल्कि संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की साख को गिराना भी है। यह सब जानबूझकर किया जा रहा है, ताकि चुनाव आयोग के साथ-साथ मोदी सरकार को भी बदनाम किया जा सके। यदि ईवीएम में छेड़छाड़ संभव होती तो विपक्षी दल भाजपा को 240 सीटों पर सीमित करने में सफल नहीं हुए होते।

ईवीएम के खिलाफ ताजा अभियान अमेरिकी कारोबारी एलन मस्क की इस टिप्पणी से शुरू हुआ कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन को हैक किया जा सकता है। हालांकि उनकी यह टिप्पणी अमेरिकी ईवीएम के संदर्भ में थी, लेकिन उसे भारत की ईवीएम के संदर्भ में मान लिया गया। वह एक बड़े कारोबारी और तकनीक के जानकार हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह दुनिया की हर मशीन के ज्ञाता हैं।

उनका यह भी दावा है कि ऐसी कोई इलेक्ट्रानिक मशीन नहीं, जिसे हैक न किया जा सकता हो। क्या इलेक्ट्रानिक कैलकुलेटर को हैक किया जा सकता है? क्या उनकी टेस्ला कार भी हैकिंग का शिकार हो सकती है? कोई कितना भी ज्ञानवान क्यों न हो, उसे जिस चीज की समझ न हो, उस पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।

ईवीएम के खिलाफ दिए जा रहे तर्क इसलिए निराधार और हास्यास्पद हैं, क्योंकि यदि उसे हैक किया जाना संभव होता तो कम से कम आइटी मंत्री राजीव चंद्रशेखर महज 16 हजार वोटों से नहीं हारते और न ही भाजपा अयोध्या, अमेठी जैसी सीटें अपने हाथ से जाने देती। ईवीएम को बदनाम करने के लिए एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि उसे मोबाइल फोन के जरिये ओटीपी हासिल करके हैक किया जा सकता है।

यह मूर्खता की पराकाष्ठा है, क्योंकि ईवीएम के संचालन में ओटीपी का कोई काम ही नहीं। चूंकि ईवीएम इंटरनेट आधारित नहीं है, इसलिए भी उसे हैक करने का सवाल नहीं उठता, लेकिन यह उन्हें नहीं समझ आएगा, जो अंधविरोध से ग्रस्त हैं। सबसे शर्मनाक यह है कि ईवीएम के खिलाफ अभियान में वह कांग्रेस सबसे आगे है, जिसके शासनकाल में ही इस मशीन का इस्तेमाल शुरू हुआ और जिसने ईवीएम के जरिये ही कई चुनाव भी जीते।

ईवीएम के खिलाफ बेतुकी बातें इस आधार पर भी की जा रही हैं कि महाराष्ट्र में शिंदे गुट वाली शिवसेना का एक प्रत्याशी बहुत कम वोटों से चुनाव जीत गया। इस प्रत्याशी की जीत के बहाने ईवीएम को बदनाम करने वालों को यह पता होना चाहिए कि लोकसभा की 21 सीटें ऐसी रहीं, जहां हार-जीत का अंतर दस हजार या उससे कम रहा। इन सीटों में से अधिकांश पर विपक्षी दलों के उम्मीदवार जीते।