विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अर्थात यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों और कालेजों को यह सही निर्देश दिया कि वे अपने यहां हानिकारक खाद्य पदार्थों की बिक्री रोकें और उनके स्थान पर पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक खाद्य सामग्री उपलब्ध कराएं, लेकिन इस निर्देश मात्र से स्थिति में शायद ही कोई परिवर्तन हो। इसका अंदेशा इसलिए है, क्योंकि यूजीसी की ओर से ऐसी पहल पहले भी की जा चुकी है।

संभवतः पहले दिए गए निर्देशों की अनदेखी के कारण ही उसे फिर से निर्देश देने की आवश्यकता पड़ रही है। जो भी हो, आवश्यक केवल यह नहीं है कि शिक्षण संस्थानों में हानिकारक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता को नियंत्रित किया जाए।

इसी के साथ यह भी जरूरी है कि सेहत के लिए हानिकारक माने जाने वाले खाद्य एवं पेय पदार्थों का प्रचलन यथासंभव सीमित किया जाए, क्योंकि बच्चों और युवाओं में ऐसे खाद्य पदार्थ लोकप्रिय होते जा रहे हैं, जो उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं।

विभिन्न अध्ययनों में बार-बार यह सामने आ रहा है कि जंक फूड कहे जाने वाले खाद्य पदार्थ युवा पीढ़ी के स्वास्थ्य को चौपट करने का काम कर रहे हैं, लेकिन उनके चलन को कम करने के लिए जैसे उपाय किए जाने चाहिए, वैसे नहीं हो रहे हैं।

इससे भी खराब बात यह है कि आवश्यक नियम-कानूनों के अभाव में सेहत के लिए हानिकारक डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की बिक्री बढ़ती चली जा रही है।

प्रोसेस्ड फूड यानी प्रसंस्कृत खाद्य सामग्री का उपयोग तो तब भी स्वीकार्य है, लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड का नियमित उपभोग तो एक तरह से बीमारियों को निमंत्रण है।

समस्या यह है कि उनका भी चलन तेजी से बढ़ रहा है और कई बार यह देखने में भी आ रहा है कि ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने वाले तय मानकों की उपेक्षा ही करते हैं।

अपने देश में खाद्य पदार्थों के संदर्भ में जो नियम-कानून हैं, उनकी अनदेखी ही अधिक होती है। इसी का दुष्परिणाम है कि देश में मिलावटी खाद्य पदार्थों की बिक्री पर भी अंकुश नहीं लग पा रहा है। ऐसा नियामक और निगरानी संस्थाओं की सुस्ती एवं लापरवाही के चलते हो रहा है।

एक चिंताजनक बात यह भी है कि हानिकारक घोषित सामग्री का सरोगेट विज्ञापनों के जरिए खुलकर प्रचार किया जा रहा है। अब तो ऐसे विज्ञापन अनेक जानी-मानी हस्तियां भी कर रही हैं।

इसके बावजूद ऐसा लगता है कि किसी को कोई परवाह ही नहीं है कि कहां क्या गलत हो रहा है? निश्चित रूप से सेहत की चिंता करना केवल सरकारों और उनकी एजेंसियों की ही जिम्मेदारी नहीं।

इसके प्रति कहीं न कहीं आम जनता को भी जागरूक होना होगा। इस सबके बावजूद इतना तो है ही कि जिन सरकारी संस्थाओं को खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है, वे अपना काम सही से करें। ऐसी संस्थाएं दावा चाहे जो करें, सच यह है कि वे अपना काम सही तरह नहीं कर रही हैं।