बांग्लादेश के घटनाक्रम ने बढ़ाई चिंता, अन्य 7 देशों में भी सैन्य और राजनीतिक हालात अस्थिर, चीन भी बड़ी चुनौती
भारत के कई पड़ोसी देशों में अस्थिरता बढ़ी है। यह गंभीर चिंता की बात दो कारणों से है। एक तो वहां भारत विरोधी ताकतें खड़ी हो रही हैं और दूसरा चीन भी वहां अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है। अफगानिस्तान पाकिस्तान श्रीलंका भूटान म्यांमार में किसी न किसी तरीके से चीन का दखल बढ़ा है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है।
प्राइम टीम, नई दिल्ली। बांग्लादेश में तेजी से बदलते राजनीतिक हालात पर पूरी दुनिया की नजर है। लेकिन पड़ोसी होने के चलते सबसे ज्यादा असर भारत पर पड़ने की आशंका है। इसलिए भारत ने पूर्वी सीमा पर सुरक्षा कड़ी कर दी है। नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती शांति और स्थिरता बहाल करने की है। हालांकि, बीते कुछ समय में भारत के कई पड़ोसी देशों में अस्थिरता बढ़ी है। भारत के लिए यह गंभीर चिंता की बात दो कारणों से है। एक तो वहां भारत विरोधी ताकतें खड़ी हो रही हैं और दूसरा चीन भी वहां अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार में किसी न किसी तरीके से चीन का दखल बढ़ा है। इसलिए विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। ऐसे पड़ोसियों के साथ हमें सभी सीमाओं पर सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद रखनी पड़ेगी।
भारत जिन देशों से घिरा हुआ है, हाल-फिलहाल उनमें सबसे अच्छे संबंध बांग्लादेश से ही थे। लेकिन वहां का नया घटनाक्रम चिंता बढ़ाने वाला है। दूसरे पड़ोसी देशों को देखें तो मालदीव में चीन समर्थक सरकार है। म्यांमार में सैनिक शासन है, जो चीन का समर्थक है। नेपाल में हाल ही केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री बने हैं, जिनका झुकाव चीन की तरफ ज्यादा है। नेपाल के नए राजनीतिक मानचित्र और 100 रुपये के नए नोट पर छपे नक्शे में लिपुलेख और लिंपियाधुरा को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया था। इन दोनों जगहों के अलावा, कालापानी को भी नेपाल के भूभाग के तौर पर दिखाया गया था। ये तीनों जगहें भारत-नेपाल सीमा पर उत्तराखंड में स्थित हैं। इसके अलावा, श्रीलंका का हंबनटोटा पोर्ट चीन के नियंत्रण में है। वह भूटान में भी अपनी पकड़ बनाने के प्रयास में लगा है। चीन और पाकिस्तान तो पहले से ही भारत के लिए खतरा बने हुए हैं। उनके साथ कई युद्ध हो चुके हैं।
बीते कुछ समय में श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, म्यांमार में राजनीतिक बदलाव के बाद भारत के लिए स्थिति और विकट हुई है। बांग्लादेश में तो हालात बहुत तेजी से बदले। सिर्फ पांच सप्ताह में प्रदर्शन और हिंसा इतनी बढ़ी कि चुनी हुई प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ना पड़ा। कई कटरपंथी संगठन इस हालात का फायदा उठाने के प्रयास में लगे हैं। इसका प्रमाण अल्पसंख्यक हिदुओं के खिलाफ हिंसा से मिलता है।
रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल मोहन भंडारी जागरण प्राइम से कहते हैं, बांग्लादेश में पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता के चलते भारत के सुरक्षा समीकरण डगमगा गए हैं। वहां जो हालात बने, वे सिर्फ छात्रों के आंदोलन से पैदा नहीं हो सकते थे। इसके पीछे कई विदेशी ताकतों का हाथ है। इस पूरे उथल-पुथल में पाकिस्तान के दूतावास में मौजूद सैन्य अधिकारियों का हाथ होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। वहीं शेख हसीना की सरकार की नीतियों से अमेरिका भी खुश नहीं था।
शेख हसीना के खिलाफ था अमेरिका
दरअसल, अमेरिका के साथ शेख हसीना के संबंध लंबे अर्से से बिगड़े थे। वर्ष 2007 में अवामी लीग और बीएनपी के बीच सुलह में अमेरिका ने मध्यस्थता भी की थी। शेख हसीना 2009 में प्रधानमंत्री बनीं, लेकिन वे अमेरिका के पाले में नहीं गईं। उसके बाद 2014 और 2018 के चुनाव नतीजों पर अमेरिका ने निराशा जताई थी। उसने 2020 में बांग्लादेश को क्वाड (QUAD) में शामिल होने का भी निमंत्रण दिया था, लेकिन बांग्लादेश ने इनकार कर दिया। इस साल जनवरी में जब हसीना ने चुनाव जीता तो उस चुनाव को पश्चिमी देशों ने 'अनफेयर' बता दिया। ये देश हसीना विरोधी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के समर्थक थे। बीएनपी की सहयोगी जमात-ए-इस्लामी है जिसके पाकिस्तानी एजेंसियों के साथ संबंध बताए जाते हैं।
शेख हसीना अमेरिका के पाले में नहीं गईं तो 2021 में अमेरिका ने बांग्लादेश की एलीट फोर्स रैपिड एक्शन बटालियन पर प्रतिबंध लगा दिया। अवामी लीग ने अमेरिका पर बांग्लादेश के अंदरुनी मामलों में दखल देने के आरोप भी लगाए थे। शेख हसीना ने करीब 2 महीने पहले यह कहकर सबको चौंका दिया था कि एक श्वेत देश उनके खिलाफ षड्यंत्र रच रहा है। माना जा रहा है कि उनका इशारा अमेरिका की तरफ था। डेली स्टार को एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि एक देश ने उन्हें ऑफर किया था कि अगर उसे सैनिक एयर बेस बनाने की अनुमति दी जाए, तो 7 जनवरी को होने वाले चुनाव में उन्हें किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। वर्ल्ड बैंक के 50 साल होने पर हसीना अप्रैल 2023 के अंत में अमेरिका गईं तो बाइडेन प्रशासन का कोई अधिकारी उनसे नहीं मिला।
बांग्लादेश में सबसे ज्यादा विदेशी निवेश अमेरिका का ही है। बांग्लादेश के रेडीमेड गारमेंट का सबसे बड़ा बाजार अमेरिका ही है। हाल में चीन वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ा रहा था, जिससे अमेरिका चिंतित था। वर्ष 2021 में चीन ने बांग्लादेश को किसी सैन्य गठबंधन के साथ न जुड़ने की चेतावनी दी थी और कहा था कि इसका द्विपक्षीय संबंधों पर बुरा असर पड़ेगा। तब बांग्लादेश ने चीन को जवाब दिया कि हम अपनी विदेश नीति खुद तय करते हैं। बांग्लादेश की भौगोलिक स्थिति के कारण अमेरिका और चीन दोनों वहां अपनी मौजूदगी चाहते हैं।
भारत विरोधी ताकतों को मौका
ले. जनरल भंडारी के अनुसार, “वर्तमान हालात भारत के लिए कई तरह की मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। सबसे बड़ी मुश्किल बांग्लादेश में मौजूद भारत विरोधी ताकतों के मजबूत होने से होगी। वहां की सेना में भी एक वर्ग भारत को पसंद नहीं करता है। ऐसे में पाकिस्तान को बांग्लादेश के जरिए भारत में आतंकी व तस्करी गतिविधियों को बढ़ावा देने का मौका मिलेगा।”
उनका कहना है कि बांग्लादेश तथा अन्य पड़ोसी देशों में जो हालात हैं, उसे देखते हुए भारत को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। बाहरी के साथ आंतरिक सुरक्षा पर भी ध्यान देना पड़ेगा। देश के अंदर भी अनेक लोग हैं जो माहौल बिगाड़ने की कोशिश कर सकते हैं। विदेशी ताकतें चाहती हैं कि भारत में अशांति का माहौल पैदा हो ताकि हमारी आर्थिक तकक्की रुक जाए। हमें इससे बचना होगा। भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए भी हरसंभव प्रयास करने चाहिए।
जेएनयू में इंटरनेशनल स्टडीज के सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के प्रोफेसर डॉ.संजय भारद्वाज को भारत-बांग्लादेश संबंध बिगड़ने का अंदेशा कम है। उनका कहना है, “दोनों देशों के बीच सामाजिक आर्थिक संबंध काफी गहरे हैं। बांग्लादेश बहुत सी जरूरतों के लिए भारत पर निर्भर है। भारत के लिए भी बांग्लादेश भू-राजनीतिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है। ऐसे में दोनों देशों के बीच संबंध बिगड़ने की आशंका कम ही है।”
वे कहते हैं, “मोहम्मद यूनुस के सत्ता में आने से कोई मुश्किल नहीं होगी, लेकिन देखना होगा कि सरकार में शामिल होने वाले लोग भारत को लेकर क्या नजरिया रखते हैं। आने वाले दिनों में संभव है कि बांग्लादेश सरकार की नीतियों में अमेरिका और चीन का प्रभाव ज्यादा दिखाई दे। जहां तक बांग्लादेश से हिन्दुओं के या अन्य लोगों के पलायन की बात है, तो यह अस्थायी है। तात्कालिक तनाव से बचने के लिए लोग भारत जैसे सुरक्षित गंतव्य का रुख कर रहे हैं। वह भी 17 करोड़ की आबादी में से कुछ हजार लोग ही हैं।”
आतंकी घटनाएं बढ़ने का अंदेशा
1971 में पूर्वी पाकिस्तान को अलग कर बांग्लादेश बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) राज कादयान भावी खतरे के प्रति आगाह करते हैं, “बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी का भारत के प्रति नजरिया पहले भी अच्छा नहीं रहा है। सबसे बड़ा खतरा यह रहेगा कि उत्तर-पूर्व में बांग्लादेश की तरफ से आंतकी घटनाएं बढ़ेंगी। हसीना सरकार से पहले भी उसी इलाके में उन्हें पनाह मिलती थी। उन पर हसीना सरकार ने लगाम लगाया, जो भारत के हित में था।”
कादयान के मुताबिक, “भारत ने बांग्लादेश में कई विकास कार्य किए, रोड व रेल नेटवर्क के माध्यम से अपनी पहुंच बनाई। वहां भारत हावी था, लेकिन शेख हसीना के जाने के बाद उसके भी चीन के प्रभाव में आने की आशंका बन गई है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि नई सरकार ऐसा न कर पाए। उनके साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करने होंगे। यह जरूर है कि हसीना के साथ भारत के जिस तरह के संबंध थे, वह अब नहीं हो पाएंगे। वैसे, अमेरिका भी नहीं चाहता कि बांग्लादेश में चीन का प्रभाव बढ़े। इस मामले में भारत को अमेरिका को साथ लेकर चलना होगा।”
आंदोलन में भारत विरोधी नारे
भारत फिलहाल सतर्कता बरत रहा है और स्थिति पर नजर बनाए हुए है। बांग्लादेश में आंदोलन के दौरान भारत विरोधी नारे भी उठे। अनेक जगहों पर हिंदुओं के घरों और मंदिरों पर हमला किया गया, उनकी दुकानें लूट ली गईं। फिलहाल संतोष की बात यह है कि छात्र नेता तथा अन्य प्रमुख लोगों ने इस हिंसा को बंद करने की अपील की है। माना जा रहा है कि हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के पीछे जमायत ताकतें हैं। शेख हसीना के समय ये ताकतें सिर नहीं उठा पा रही थीं, लेकिन अब वे उभर रही हैं। अगर जमायत ताकतें मजबूत होती हैं तो यह भारत के साथ लोकतांत्रिक बांग्लादेश के लिए भी चिंता की बात होगी। इसका असर आने वाले समय में भारत-बांग्लादेश संबंधों पर भी दिख सकता है।
देश में कोई सरकार न होने तथा थानों से पुलिस के गायब होने के चलते हिंदू समुदाय में दहशत है। बांग्लादेश की 17 करोड़ आबादी में लगभग 8 प्रतिशत हिंदू हैं। वहां के हिंदू दशकों से शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी का समर्थन करते आए हैं। इसका एक कारण यह है कि अवामी लीग धर्मनिरपेक्षता के लिए जानी जाती है। दूसरी प्रमुख पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी को कट्टर इस्लामी माना जाता है।
बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में जमात-ए-इस्लामी पर राजनीतिक दल के तौर पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस्तीफा देने से पहले 1 अगस्त को शेख हसीना ने जमात की छात्र इकाई छात्र शिविर को आतंकवादी संगठन करार देते हुए उस पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। जमात बांग्लादेश को कट्टर इस्लामी देश बनाना चाहता है और वहां शरीयत कानून लागू करना चाहता है। हसीना के खिलाफ अमेरिका ने जमात को भी समर्थन दिया।
शेख हसीना के खिलाफ आंदोलन क्यों?
शेख हसीना सरकार ने सरकारी नौकरियों में एक-तिहाई कोटा 1971 के युद्ध में भाग लेने वालों के रिश्तेदारों के लिए आरक्षित कर दिया था। इसके खिलाफ जुलाई में यूनिवर्सिटी छात्र आंदोलन पर उतर आए। उनका आरोप था कि भेदभाव वाले सिस्टम को पूरी तरह बदलने की जरूरत है। कोटा का फैसला कोर्ट से खारिज होने के बावजूद यह आंदोलन सरकार विरोधी बन गया। इस हिंसा में 400 से ज्यादा लोगों की जान गई, जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं। स्थानीय मीडिया का कहना है कि ज्यादातर मौतें पुलिस फायरिंग में हुई हैं।
आंदोलन पर लगाम लगाने के लिए हसीना सरकार ने पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया और अनेक जगहों पर इंटरनेट बंद कर दिया गया। पूर्व प्रधानमंत्री ने प्रदर्शनकारियों के लिए ‘आतंकवादी’ शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि वे देश को अस्थिर करना चाहते हैं।
इतने बड़े पैमाने पर हिंसक आंदोलन का एक प्रमुख कारण यह भी रहा कि लोगों में असंतोष लंबे समय से पनप रहा था। लगभग 17 करोड़ आबादी वाले बांग्लादेश ने हाल के वर्षों में तेज आर्थिक विकास दर्ज की, इसके बावजूद बेरोजगारी काफी है। अनुमान है कि लगभग 1.8 करोड़ युवा बेरोजगार हैं और पढ़े-लिखे (ग्रेजुएट) युवाओं में बेरोजगारी दर ज्यादा है। इसलिए युवा सरकारी नौकरियों में कोटा का विरोध कर रहे थे। उन्हें लगा कि इससे उनके लिए रोजगार के मौके और कम हो जाएंगे।
ले. जनरल कादयान के अनुसार, “कोरोना के बाद से वहां इकोनॉमी गिरी और बेरोजगारी बढ़ी थी। इस बेरोजगारी में आरक्षण जैसे मुद्दे ने वहां के लोगों को हसीना के खिलाफ नाराजगी को सामने आने का मौका दे दिया। आरक्षण मुद्दा न होता, तो भी हसीना के खिलाफ किसी न किसी दिन यह विरोध होना ही था।”
पिछले एक दशक में बांग्लादेश में इन्फ्रास्ट्रक्चर का काफी विकास हुआ। प्रति व्यक्ति आय तीन गुना हो गई। वर्ल्ड बैंक के अनुसार बीते दो दशक में 2.5 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए। हसीना सरकार के कार्यकाल में बांग्लादेश कपड़ा निर्यात का हब बन गया। इस सेक्टर में 40 लाख से ज्यादा लोग काम करते हैं। लेकिन अनेक लोगों को लगता है कि इन सबका फायदा शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग के समर्थकों को मिला। हाल के महीनों में सोशल मीडिया पर शेख हसीना के करीबी नेताओं और अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप के पोस्ट भी खूब चले।
हसीना सरकार पर पुलिस का दुरुपयोग करने के आरोप भी लग रहे थे। इसलिए पुलिस के खिलाफ भी लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। अनेक जगहों पर थाने जला दिए गए, पुलिसकर्मियों को मारा भी गया। नतीजा यह हुआ कि ढाका समेत अनेक शहरों में पुलिसकर्मी गायब हो गए। सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमां ने देश में व्यापक हिंसा के लिए पुलिसकर्मियों के गायब होने को भी जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने कहा कि पुलिस का नया नेतृत्व नियुक्त किया गया है। उन्होंने उम्मीद जताई कि पुलिसकर्मी जल्दी ही ड्यूटी पर लौट आएंगे।
एक रिपोर्ट के अनुसार शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने से ठीक पहले रात को सेना प्रमुख ने अन्य बड़े सैन्य अधिकारियों से बात की। उस बैठक में निर्णय लिया गया कि कर्फ्यू के दौरान सेना लोगों पर गोली नहीं चलाएगी। जनरल जमां उसके बाद शेख हसीना के ऑफिस गए और उन्हें बताया कि उन्होंने जो कर्फ्यू का आदेश दिया है उसे सैनिक लागू नहीं कर सकेंगे।
ले.जनरल कादयान के अनुसार, “शेख हसीना के कार्यकाल में बांग्लादेश का विकास तो हुआ, लेकिन लोकतंत्र का उन्होंने नुकसान भी किया। विपक्षी नेताओं को जेल भेजा। आरक्षण के खिलाफ छात्र आंदोलन पर पिछले महीने भारत सरकार का बयान आया था कि यह बांग्लादेश का अंदरुनी मामला है। इससे वहां के लोगों में धारणा बनी कि भारत सरकार हसीना के साथ है। इससे भारत के प्रति नाराजगी बढ़ी।”
बांग्लादेश सीमा से भारत में घुसपैठ
बांग्लादेश तीन तरफ से भारत से घिरा है। उसके दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है। भारत के पांच राज्यों- पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा की सीमा बांग्लादेश से लगती है। दोनों देशों के बीच 4096.7 किलोमीटर लंबी सीमा दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी सीमा है। इसमें सबसे लंबी 2216.70 किमी की सीमा पश्चिम बंगाल से लगती है। हाल के वर्षों में बांग्लादेश से भारत में घुसपैठ बढ़ी है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर वहां कट्टरपंथी सरकार बनती है तो भारत के लिए खतरा बढ़ने की आशंका है।
कौन हैं अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस?
मोहम्मद यूनुस को माइक्रोफाइनेंस का पायनियर माना जाता है। उनका जन्म 1940 में चट्टग्राम में हुआ था। पढ़ाई के लिए वे अमेरिका गए और वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में पीएचडी की। 1970 के दशक में वे बांग्लादेश लौटे और गरीबों को छोटे कर्ज देने वाला प्रोजेक्ट शुरू किया। 1983 में उन्होंने ग्रामीण बैंक की स्थापना की। यह बैंक काफी सफल रहा। इसमें कर्ज देने में महिलाओं को वरीयता दी जाती थी। इस माइक्रोफाइनेंस प्रोजेक्ट को पूरी दुनिया में सराहना मिली और दर्जनों देशों ने उसे अपनाया। हालांकि कुछ माइक्रोफाइनेंस ऑपरेटर पर गरीबों से काफी अधिक ब्याज वसूलने के आरोप भी लगते रहे हैं। इसी वजह से शेख हसीना ने मोहम्मद यूनुस को गरीबों का खून चूसने वाला व्यक्ति भी कहा था। यूनुस और ग्रामीण बैंक को गरीबों को आर्थिक अवसर मुहैया कराने के लिए वर्ष 2006 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बांग्लादेश कब और कैसे अस्तित्व में आया?
पाकिस्तान के जनरल याह्या खान के आदेश पर वहां की सेना ने बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में 25 मार्च 1971 को ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया। दरअसल, बांग्लादेश में काफी दिनों से पाकिस्तानी शासन का विरोध चल रहा था। यह ऑपरेशन उसे कुचलने के लिए चलाया गया। इसके खिलाफ मुक्ति वाहिनी के सैनिकों ने गुरिल्ला लड़ाई छेड़ दी।
बांग्लादेश को आजाद कराने में भारत ने बड़ी भूमिका निभाई थी। शुरू में भारत ने बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी को पाकिस्तानी सेना से लड़ने के लिए प्रशिक्षण और हथियार दिए। 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमले किए तो भारत ने उसका कड़ा जवाब दिया। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा। उस दौरान लाखों शरणार्थी भारत आए थे। पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, मेघालय और त्रिपुरा में उनके लिए जगह-जगह शरणार्थी शिविर बनाए गए थे।
बांग्लादेश को किस देश ने सबसे पहले मान्यता दी?
पाकिस्तान से अलग, बांग्लादेश को 6 दिसंबर 1971 को भारत और भूटान ने सबसे पहले मान्यता दी। वर्ष 1972 तक ज्यादातर देशों ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी थी, लेकिन पाकिस्तान को और दो साल लगे। उसने 22 फरवरी 1974 को बांग्लादेश को अलग देश के तौर पर स्वीकार किया। चीन ने 31 अगस्त 1975 को मान्यता दी।