नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी । प्रदूषण की वजह से दिल्ली-एनसीआर में ग्रैप की पाबंदिया बढ़ा दी गई हैं। एक्सपर्ट कहते हैं कि ग्रैप प्रदूषण का समाधान नहीं है, बल्कि यह प्रदूषण बढ़ाने में इंसानी योगदान को कम करने के उपाय बताता है। यही वजह है कि प्रदूषण बढ़ने के साथ-साथ ग्रैप का स्तर भी बढ़ता जाता है। हर साल अक्तूबर-नवंबर में दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो जाती है। एक्सपर्ट कहते हैं कि इसके लिए सिर्फ पराली को दोष नहीं दिया सकता है। हवा में 20 फीसदी से ज्यादा प्रदूषण ट्रांसपोर्ट, इंडस्ट्री, पावर प्लांट और आसपास के शहरों से आता है। जब हमें समस्या मालूम है, इसका माकूल वक्त पता है तो इससे स्थायी तौर पर निपटा कैसे जाए, यह भी तलाशने की आवश्यकता है। जाहिर है कि हमें प्रदूषण पर ही लगाम लगाने के उपाय तलाशने होंगे। दुनिया भर में इसके लिए कई उपाय अपनाए जा रहे हैं। ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप के कई देशों ने प्रदूषण से जंग जीती है। चीन ने भी इसे काबू करने के लिए कई कदम उठाए हैं जिसके सकारात्मक प्रभाव सामने आए हैं।

ग्रीन सिटीज बनाने के अलावा दुनिया भर में भारी कारखानों को शहर से बाहर ले जाना, ग्रीन एनर्जी कारों के उपयोग को बढ़ावा देना और उत्सर्जन मानकों में सुधार करना, वाहन के उपयोग को कम करने के लिए कंजेशन चार्जिंग, धूल को दबाने के लिए मोबाइल स्प्रिंकलिंग वाहनों का उपयोग करने जैसे उपायों पर चर्चा की जा सकती है। हालांकि नए ग्रीन एनर्जी वाहनों को पूरे सिस्टम में यकायक नहीं उतारा जा सकता। जहां तक मोबाइल स्प्रिंकलर वाहनों की बात है तो उनसे ट्रैफिक जाम का भी डर रहता है।

मिक्सिंग हाईट है बड़ा कारण

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर सुदेश यादव कहते हैं, दिल्ली में प्रदूषण का स्तर अधिक हो चुका है। मिक्सिंग हाईट कम होने की वजह से भी प्रदूषक कणों का फैलाव हवा में नहीं हो पाता है, जिससे यह वातावरण में फंसे रह जाते हैं। गर्मी में मिक्सिंग हाईट तीन किमी तक होती है, जबकि ठंड में यह 1.5 किमी से लेकर 300 मीटर तक रह जाती है। इसकी वजह से प्रदूषण बढ़ जाता है। मौजूदा समय में हवा की गति कम होने की वजह से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। हवा की गति अधिक होने की स्थिति में वह प्रदूषकों को फैला देती है।

यादव कहते हैं कि स्थिर तापमान, ठहरी हवा, मिक्सिंग हाईट और पराली, निर्माण कार्य से बढ़े प्रदूषण के कॉकटेल ने स्थिति को अधिक विकराल बना दिया है। बाहरी राज्यों से आ रहा पराली का धुआं मुसीबत को दोगुना कर रहा है। सर्दियों के मौसम में पराली का धुंआ उत्तर और उत्तर-पश्चिम दिशा से आने लगता है, जिससे दिल्ली सबसे अधिक प्रभावित होती है। निर्माण कार्य की वजह से प्रदूषकों का बढ़ना भी दिल्ली में प्रदूषण का बड़ा कारण है। निर्माण कार्यों की वजह से पार्टिकुलेट मैटर का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ता है।

सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट के प्रिंसिपल प्रोगाम मैनेजर, एयर पॉल्यूशन कंट्रोल, विवेक चट्टोपाध्याय कहते हैं कि दिल्ली में वायु प्रदूषण बेहद खराब श्रेणी में है। आम लोगों के साथ ही ऐसे लोग जिन्हें सांस से संबंधित बीमारी है उनकी मुश्किल काफी बढ़ चुकी है। प्रदूषण की गंभीरता को देखते हुए सरकार की ओर से एडवाइजरी भी जारी की गई है। आंकड़े बताते हैं कि आने वाले दिनों में प्रदूषण की स्थिति और गंभीर होगी। हवा में प्रदूषण बढ़ने के दो मुख्य कारण हैं। पहला कारण है कि इस समय हवा की स्पीड बेहद कम है। वहीं तापमान में कमी आने के कारण हवा फैल भी नहीं रही है। इसके चलते प्रदूषक तत्व लम्बे समय तक हवा में फंसे रहते हैं।

दरअसल दिल्ली एनसीआर का खुद का प्रदूषण लोड ज्यादा है। वहीं पराली का धुआं हवा में 15 फीसदी तक बढ़ चुका है। जैसे जैसे मौसम बदल रहा है हवा और धीमी होती जाएगी। तापमान में गिरावट से रात के समय वातावरण की बाउंड्री लेयर काफी नीचे आ जाती है। वहीं हवा में मौजूद नमी प्रदूषण को काफी समय तक बांध कर रखती है। इस समय मिक्सिंग हाइट 1200 से 1500 मीटर तक है। रात के समय ये और भी कम हो जाता है। ऐसे में वायु में मौजूद प्रदूषक तत्व सतह के करीब लम्बे समय तक फंसे रहते हैं जिससे हमें सांस लेने में मुश्किल होती है। वहीं जहां तक वेंटिलेशन इंडेक्स की बात है, जो ये दिखाता है कि वातावरण कितना वेंटिलेट कर पा रहा है, ये बता रहा है कि परिस्थितियां प्रदूषित हवा के फैलने के माकूल नहीं हैं।

टेरी की एयर क्वालिटी रिसर्च की एसोसिएट डायरेक्टर डा. अंजू गोयल कहती है कि वायु गुणवत्ता मुख्य रूप से उत्सर्जन स्रोतों और मौसम संबंधी स्थितियों पर निर्भर करती है। हालांकि, उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए नीतियां बनाई गई हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन अभी भी संदिग्ध है। साथ ही, इस साल अक्टूबर में हवा की गति पिछले साल की तुलना में 35% कम है, जिसके कारण प्रदूषकों के फैलाव की स्थितियां अनुकूल नहीं हैं।

शारदा यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग की प्रोफेसर डा. सुमन कहती है कि दिल्ली में हवा की निम्न गुणवत्ता के लिये धूल और वाहनों का प्रदूषण दो सबसे बड़े कारण हैं। अक्तूबर और जून के बीच वर्षा न होने के चलते शुष्क ठंड का मौसम होता है जिससे पूरे क्षेत्र में धूल का प्रकोप बढ़ जाता है।

इंवर्जन लेयर नीचे होने से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ा

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. शैलेंद्र कुमार यादव कहते हैं कि तापमान के गिरने, हवा की गति कम होने से प्रदूषण बढ़ रहा है। जितनी हवा चलेगी उतना प्रदूषण कम होगा। यही नहीं, इन्वर्जन लेयर के नीचे होने से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ता है। इनवर्जन लेयर विभिन्न कारणों से बनती है। यह लेयर सूर्य की रोशनी को नीचे नहीं आने देती, जिससे जमीन की सतह का तापमान बढ़ नहीं पाता और स्मॉग की मोटी लेयर नीचे ही बन जाती है। इस स्मॉग में कोहरा, धुआं और प्रदूषण का मिश्रण होता है। हवा कम होती है, जिससे यह स्मॉग साफ नहीं हो पाता। वहीं दिल्ली में ठंड बढ़ने पर लैंडलॉक्ड स्थिति बन जाती है, जिससे हवा बंधने लगती है। डॉ. शैलेंद्र कहते हैं कि मॉनिटरिंग बढ़ने से इस बात की जानकारी मिलना शुरू हुई है कि कौन से प्रदूषण तत्वों का प्रतिशत अधिक है, लेकिन इसके लिए छोटे-छोटे सामूहिक प्रयास करने ज्यादा जरूरी हैं।

शारदा यूनिवर्सिटी के फिजिक्स विभाग के प्रोफेसर डा. पवन सिंह ढापोला कहते हैं कि प्रदूषण के कई कारण हैं। जैसे कि पराली का जलाना, बड़े वाहनों से होने वाला उत्सर्जन, दिल्ली-एनसीआर में होने वाला बड़े पैमाने में होने वाला निर्माण कार्य, तथा मौसम में बदलाव का होना जो वायु प्रदूषण के कणों को फंसा लेता है।

सर्दियों में हवा की रफ़्तार का कम होना तथा घनत्व का अधिक होना, वायु की गुणवत्ता को ख़राब कर देता है, ये भी अहम वजह है।

सस्टेनेबल फ्यूचर कोलाबरेटिव के इंवायरनमेंटल गर्वनेंस एंड पॉलिसी के संयोजक भार्गव कृष्णा कहते हैं कि सर्दियों का मौसम आते ही वायु प्रदूषण की समस्या गंभीर हो जाती है। प्रदूषण की समस्या सिर्फ दिल्ली-एनसीआर की नहीं बल्कि पूरे गंगा के तराई वाले इलाकों की है। दिल्ली में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट खतरनाक होते वायु प्रदूषण को लेकर गंभीर कदम उठाते रहते हैं इसलिए ये पूरे देश में चर्चा का विषय बन जाता है। दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण का स्तर बेहद गंभीर स्थिति में पहुंच चुका है। वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन हमें अपनी प्राथमिकताओं पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। वायु प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा पराली पर चर्चा होती है, पर हकीकत ये है कि अगर हम पूरे साल में वायु प्रदूषण की बात करें तो पराली की हिस्सेदारी औसतन पांच फीसदी से ज्यादा नहीं है। हवा में 20 फीसदी से ज्यादा प्रदूषण ट्रांसपोर्ट, इंडस्ट्री, पावर प्लांट और आसपास के शहरों से आता है। प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए हमें अपनी प्राथमिकताओं पर एक बार फिर से विचार करने की जरूरत है।

डब्लूआरआई इंडिया के सीनियर प्रोग्राम मैनेजर भव्य शर्मा बताते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के कई प्रमुख कारण हैं। इस दौरान वाहन की गतिविधियां, निर्माण कार्य से जुड़े काम बढ़ जाते हैं। दिल्ली-एनसीआर एक एयरशेड में आता है। एयरशेड ऐसा क्षेत्र होता है जहां वायु गुणवत्ता समान होती है। अगर कुछ प्रदूषक इसमें मिल जाते हैं तो उसमें कमी आ जाती है। जिस वजह से दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता एक समान हो जाती है।

वर्तमान में ग्रैप तब लागू होता है जब वायु गुणवत्ता कम होती है। स्थिति खराब होने पर ग्रैप का स्तर बढ़ता जाता है। वायु प्रदूषण पूरे साल होता है, ग्रैप सिर्फ इस मौसम में ही लागू होता है। दिल्ली में वाहनों की संख्या को कंट्रोल किया जा सकता है। लोग अधिक से अधिक सार्वजनिक वाहन का इस्तेमाल करें। कचरा प्रबंधन भी काफी महत्वपूर्ण है। हमारी नीति पूरे वर्ष के लिहाज से बनाई जाए।

टेरी की एयरक्वालिटी रिसर्च की एसोसिएट डायरेक्टर डा. अंजू गोयल कहती है कि अन्य मेट्रो शहरों ने एयरशेड स्तर की वायु गुणवत्ता प्रबंधन नीति अपनाई है, जिसमें उन्होंने शहर के भीतर और बाहर स्थित स्रोतों से निपटा है। उन्होंने नीतियों के सख्त कार्यान्वयन और निगरानी और मूल्यांकन ढांचे पर भी ध्यान केंद्रित किया है, जिससे जमीनी स्तर पर सुधार सुनिश्चित हो सके। देश में निगरानी नेटवर्क का विस्तार होना आवश्यक है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ हमारी निगरानी बहुत सीमित है। इसके अतिरिक्त, दिल्ली जैसे शहरों में निगरानी का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ पहले से ही पर्याप्त स्टेशन हैं। पहला लक्ष्य यह होना चाहिए कि देश के सभी शहरों और कस्बों में कम से कम एक वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन हो।

बीजिंग, लंदन ने प्रदूषण पर काबू किया है। पहले वहां भी काफी स्तर गिरा हुआ था। बीजिंग में औद्योगिक क्षेत्रों में कोयला इस्तेमाल होता है जिस पर लगाम लगाई गई। कैलीफोर्निया में वाहनों के उत्सर्जन पर काफी काम किया गया। लंदन में लो एमिशन जोन नाम से कांसेप्ट बनाया गया था। यहां पर वाहनों की गतिविधि पर कंट्रोल किया गया। कुछ जगहों पर वाहनों की एंट्री बंद की गई।

स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार करनी होगी

भार्गव कृष्णा कहते हैं कि दिल्ली में प्रदूषण की निगरानी के लिए 40 मॉनिटरिंग स्टेशन हैं। इन स्टेशनों से नियमित तौर पर डेटा मिलता रहता है। दिल्ली की प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए यहां स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए रणनीति तैयार करनी होगी। लंदन और बीजिंग में प्रदूषण पर लगाम लगाना दिल्ली की तुलना में आसान था। लंदन में शहर में लगे उद्योग और घरों को गर्म रखने के लिए कोयले का इस्तेमाल होता था। कोयले की जगह गैस के इस्तेमाल से प्रदूषण की समस्या पर काबू पा लिया गया। वहीं बीजिंग में सरकार को न तो किसी राजनीतिक और न आम जनता के विरोध की चिंता थी। ऐसे में बेहद सख्त कदम उठाते हुए बेहद कम समय में उद्योगों को शहर से बाहर करने, गाड़ियों पर लगाम लगाने जैसे कदम उठाए गए। दिल्ली में ये समाधान संभव नहीं हैं। यहां केंद्र सरकार, राज्य सरकार और नगर निगमों की अलग अलग जवाबदेही है। ऐसे में उन्हें नीतियां बनाते समय कई बातों का ध्यान रखना होता है। दिल्ली जैसे शहरों में इलेक्ट्रिक गाड़ियों को प्रोत्साहित करने, सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने के साथ ही ग्रैप जैसे प्रावधान प्रभावी तरीके से लागू कर प्रदूषण पर लगाम लगाई जा सकती है।

प्रदूषण के कारकों पर लगानी होगी लगाम

विवेक चट्टोपाध्याय कहते हैं कि प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए हमें जो प्रदूषण के 12 से 17 स्रोत पता हैं उनपर सख्ती से लगाम लगानी होगी। इनमें गाड़ियां, इंडस्ट्री पावर प्लांट छोटे उद्योग आदि हैं। दिल्ली और एनसीआर में 50 फीसदी से ज्यादा प्रदूषण के कारण स्थानीय हैं। इनपर लगाम लगाने के लिए हमें सख्त उपाय करने होंगे। आज प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए बनाए गए एक्शन लेने में पारदर्शिता में कमी दिखती है। इसको लेकर सरकार की जवाबदेही होनी चाहिए। वहीं इसके बारे में आम लोगों को बताया जाना चाहिए। वहीं प्रदूषण पर लगाम लगाने के प्रयासों में जो कमियां हैं उन्हें चिन्हित कर उन्हें दूर करना चाहिए।

शहरों का दायरा नए सिरे से तय करना उपाय लेकिन पूंजी और वक्त लगेगा

डा. सुमन कहती है कि शहरों का दायरा नए सिरे से तय करना, उद्योगों को बाहर शिफ्ट करना एक बेहतर उपाय तो है, पर बहुत पूंजी और वक्त लगेगा, फिर भी पूरी तरह शिफ्टिंग मुश्किल है, सरकार इसकी जगह अब नए सिरे से विचार कर रही है। इस दिशा में हाल में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने देश के 10 राज्यों में 28,602 करोड़ रुपये के निवेश से 12 औद्योगिक शहर बनाने को मंजूरी दी है। इन परियोजनाओं से 1.52 लाख करोड़ रुपये का निवेश आने और 10 लाख नौकरियों के सृजन की संभावना है। विदेशी निवेश आकर्षित करने, घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने और रोजगार सृजन तेज करने की सरकार की योजना के तहत इन शहरों को स्थापित किया जा रहा है। ये परियोजनाएं 10 राज्यों और 6 प्रमुख औद्योगिक गलियारों में फैली होंगी। ये औद्योगिक पार्क, औद्योगिक शहरों की तरह काम करेंगे, जहां औद्योगिक व आवासीय दोनों परियोजनाएं साथ साथ होंगी। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि ये क्षेत्र ‘औद्योगिक शहरों के गले के हार’ और स्वर्णिम चतुर्भुज की रीढ़ की तरह होंगे। डा. अंजू गोयल कहती है कि उद्योगों को शहरों के बाहर स्थानांतरित करना उपयोगी नहीं होगा। वर्ष 2021 में TERI द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, NCR के उद्योगों ने दिल्ली के वायु प्रदूषण में 23% का योगदान दिया। इसलिए, उद्योगों को बाहर स्थानांतरित करने से दिल्ली की वायु गुणवत्ता में सुधार नहीं होगा।

बोआई और कटाई पहले की जाए

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी, उत्कल यूनिवर्सिटी और नेशनल एटमॉस्फियर रिसर्च लैब के विज्ञानियों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बोआई एक महीने पहले कर ली जाए तो राजधानी को पराली के धुएं से बचाया जा सकता है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवा तेज चलने के कारण घुटन के हालात नहीं बनते और हवा के वेग में यह धुआं बह जाता। यदि पराली का जलना अक्टूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही नहीं। आईपी यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर एन.सी. गुप्ता कहते हैं कि अक्तूबर में धान की फसल मैच्योर होती है। किसानों को इसके निस्तारण के बारे में कोई बेहतर आईडिया नहीं होता है। ऐसे में वह पराली को जलाते हैं जिसका असर दिल्ली-एनसीआर और पंजाब में होता है। पराली और पार्टिकुलेट मैटर से होने वाला धुआं 90 दिनों में सैटल होता है। अक्तूबर माह में एटमॉस्फिरक बाउंड्री लेयर बेहद कम हो जाती है। वह कहते हैं कि इसे दिल्ली के कंबल के तौर पर मान सकते हैं। यह जितना बड़ा होगा उतना ही प्रदूषण कम होगा। गर्मी में यह लेयर तीन किमी तक होती है जबकि इस मौसम में यह पांच सौ मीटर तक हो जाती है। चावल की ऐसी प्रजाति विकसित की जाए जिसकी बुआई जल्दी हो और कटाई अक्तूबर के पहले हफ्ते तक हो जाए तो इससे पराली के प्रदूषण को रोका जा सकता है।

स्प्रिंकलर लगाना

वायु प्रदूषण पर लंबे समय से काम कर रहे सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरनमेंट के एक्सपर्ट विवेक चट्टोपाध्याय कहते हैं कि, दिल्ली-एनसीआर में बड़े पैमाने पर कंस्ट्रक्शन का काम चलता रहता है। ये पर्टिकुलेट मैटर के लिए बड़े पैमाने पर जिम्मेदार हैं। इमारतों और सड़कों पर स्प्रिंकलर लगाकर प्रदूषण के इस स्रोत को खत्म किया जा सकता है।

बाबा साहब भीमराव आंबेडकर यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. शैलेंद्र कुमार यादव कहते हैं कि स्प्रिंकलर और स्मॉग टॉवर वायु प्रदूषण का त्वरित समाधान हो सकते हैं। हालांकि, स्थायी समाधान के लिए वैज्ञानिकों को लगातार काम करना होगा, ऐसे उपाय तलाशने होंगे जो व्यावहारिक हों। वहीं राजनीतिक स्तर पर भी इच्छाशक्ति और बिना किसी राजनीति के इस समस्या का हल तलाशना होगा।

वायु गुणवत्ता नियंत्रण स्टेशन

ग्रीनपीस की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को वायु गुणवत्ता की निगरानी के लिए कम से कम 4000 वायु नियंत्रण स्टेशनों की आवश्यकता है। अगर हम वायु प्रदूषण को कम करने की दिशा में काम करना चाहते हैं, तो हमें पहले यह समझना होगा कि इसके कारण क्या हैं। हम परिवहन, आग, निर्माण, जनसंख्या घनत्व आदि से उत्पन्न प्रदूषण सहित प्रौद्योगिकी-संचालित समाधानों को नियोजित करके वायु गुणवत्ता का एक व्यवस्थित मूल्यांकन प्राप्त कर सकते हैं। डा. अंजू गोयल कहती है कि सरकार पहले ही वायु प्रदूषण को कम करने के लिए कई नीतियां बना चुकी है। अब उन्हें इन नीतियों के सख्त कार्यान्वयन पर काम करना चाहिए। भीड़भाड़ शुल्क (कंजेशन चार्जिंग) और स्वच्छ वायु क्षेत्रों का निर्माण जैसी रणनीतियां स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को कम करने में सहायक होंगी।

प्रदूषक निगरानी उपकरण

भारत को अपने वास्तविक समय के निगरानी नेटवर्क का उपयोग दीर्घकालिक पैटर्न की पहचान करने और एक हाइब्रिड रणनीति को लागू करने के लिए करना चाहिए। यद्यपि यह तकनीक पर्यावरण से वायु प्रदूषण को सीधे कम या दूर नहीं करती है, यह वायु प्रदूषण नियंत्रण प्रणाली में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस तरह के उपकरण नियामक निकायों को विभिन्न प्रदूषकों के लिए उत्सर्जन सीमा का अनुपालन सुनिश्चित करने में मदद करते हैं। यह परिवेश प्रदूषण निगरानी से जुड़े लागत और समय के बोझ को भी कम करता है।

रेट्रोफिट

मुंबई, बैंगलोर, पुणे और अन्य शहरी क्षेत्रों जैसे आबादी वाले शहरों में बड़े और मध्यम वाहन ग्रीनहाउस गैसों का प्राथमिक स्रोत हैं। जनसंख्या में वृद्धि और वाहनों की संख्या में वृद्धि के कारण ग्रीनहाउस गैसों को दर्शाने वाला ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। हालांकि, मौजूदा वाहनों को रेट्रोफिटिंग करके, इन उत्सर्जित गैसों को धीरे-धीरे कम किया जा सकता है। वाहन के पुर्जे इंजन की संचालन क्षमता से समझौता किए बिना उत्सर्जन स्तर को सीमित कर सकते हैं। इस तकनीक में वाहन और निकास प्रणाली में पूरी तरह से स्वचालित उपकरण को फिट करना या स्थापित करना शामिल है। इसके अलावा, आउटपुट से एकत्रित पार्टिकुलेट मैटर, जो पाउडर के रूप में होता है, एक कंटेनर में संग्रहीत किया जाता है और पेंट या स्याही बनाने के लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

सौर ऊर्जा

सौर ऊर्जा बिजली के विकल्प के रूप में किसी भी शहर की मौजूदा ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकती है। सौर ऊर्जा ने प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत को कम करके न्यूनतम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ पर्यावरण स्वच्छ रखने में बहुत योगदान दिया। शहरी और कम आय वाले क्षेत्रों में जहां विद्युत ऊर्जा के लिए जरूरी चीज़ें बहुत ही सीमित हैं, सक्रिय रूप से संयुक्त उद्यमों के माध्यम से सौर ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना से अक्षय और स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच बढ़ सकती है।

वायु प्रदूषण के मुद्दों के लिए संगठनों और व्यक्तियों को एक साथ आने और सहयोगात्मक रूप से काम करने की आवश्यकता होगी। लंबी अवधि के लिए एक प्रभावी और सफल रणनीति की जरूरत है। हालांकि प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा पहले ही कई कदम उठाए जा चुके हैं। ये समाधान आने वाले वर्षों में सफलतापूर्वक लागू होने पर ही बढ़ते प्रदूषण के मुद्दे से निपटने की क्षमता रखते हैं। स्वच्छ हवा की दृष्टि पर विजय प्राप्त की जा सकती है यदि हम एक साथ काम करें और नए तरीकों से उत्तर खोजें।

चीन, अमेरिका ने ऐसे जीती जंग

डा. सुमन कहती है कि बीजिंग-लंदन से सबक लिया जा सकता है। वहां कोयला के इस्तेमाल को घटाया गया, कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने वाली गाड़ियों में कमी की गई और स्वच्छ ईंधन को अपनाने के कड़े उपाय किए गए, तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ाकर परंपरागत तरीकों से बढ़ रहे प्रदूषण पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू हुईं। सबसे रोचक कदम था पूर्वी चीन के नानजिंग में वर्टिकल फॉरेस्ट लगाने का. जिसकी क्षमता हर साल 25 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखने की थी और हर रोज ये 60 किलोग्राम ऑक्सीजन उत्पादन कर सकता था। एयर क्वालिटी सुधारने के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर उत्तरी चीन के शहरों में 100 मीटर ऊंचे 'स्मॉग टॉवर' लगाए गए.

प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के लिए जरूरी किया गया कि उनपर काबू पाने के उपाय भी वे खुद करें और साथ ही ग्रीन तकनीक को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी भी उनपर डाली गई। इनपर निगरानी के लिए सख्त नियम बनाए गए और उन्हें लागू किया गया। 15 साल बाद 2013 आते-आते बीजिंग समेत चीन के कई शहरों में हवा में प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय मानकों के लेवल पर आ गया था। कम समय में किस हद तक बदलाव लाया जा सकता है इसका उदाहरण बीजिंग में देखने को मिला जब साल 2013 में PM2.5 पॉलुटेंट का लेवल 90 µg/m3 था लेकिन 4 साल बाद 2017 में यह घटकर 58 µg/m3 तक आ गया।

एम्सटर्डम ने निकाला प्रदूषण से बचाव का यह तरीका

डा. सुमन बताती है कि नीदरलैंड का एम्सटर्डम शहर पब्लिक ट्रांसपोर्ट के इस्तेमाल और साइकिल की सवारी को बढ़ावा देने के लिए दुनिया में सबसे आगे रहने वाले शहरों में गिना जाता है। प्रदूषण से बचाव के मामले में यह शहर दुनिया में क्लासिक उदाहरण है। एम्स्टर्डम शहर का मकसद है कि 2030 तक स्थानीय यातायात उत्सर्जन-मुक्त हो जाए और 2040 तक शहर प्राकृतिक गैस-मुक्त हो जाए। इसके लिए, ऊर्जा संक्रमण को तेज करने के लिए अनुदान, ऋण, और मुफ़्त सलाह दी जा रही है। एम्स्टर्डम प्रशासन लोगों को पेट्रोल-डीज़ल की बजाय इलेक्ट्रिक और हाइड्रोजन कार लेने की सलाह दे रहा है। इसके लिए, हर खरीदार को चार्जिंग स्टेशन की सुविधा दी जा रही है।

वायु प्रदूषण से दिल्ली में हर साल चली जाती है 12 हजार लोगों की जान

लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत में वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु दर में वृद्धि हो रही है। दिल्ली सहित देश के 10 शहरों में प्रतिवर्ष हवा में पीएम 2.5 की अधिकता के कारण लगभग 33,000 लोगों की मौत हो रही है। इसमें सिर्फ दिल्ली में 12 हजार लोग की जान जा रही है, यह प्रतिवर्ष होने वाली कुल मौत का 11.5 प्रतिशत है।

इस तरह से राजधानी में 100 में से लगभग 12 लोगों की मौत यहां की खराब हवा के कारण होती है। कुछ माह पहले एक रिपोर्ट में दिल्ली को विश्व का सबसे प्रदूषित शहर बताया गया था। पूरे वर्ष यहां की हवा खराब रहती है। सर्दी में समस्या और बढ़ जाती है। अदालत से लेकर संसद तक इस समस्या पर चिंता जताने के बाद भी स्थिति में सुधार नहीं है। वाराणसी में भी वायु प्रदूषण से होने वाली मौत 10 प्रतिशत से अधिक है।

फेफड़ों में संक्रमण का कारण बन रहा प्रदूषण

सी.के.बिरला, गुरुग्राम के इंटरनल मेडिसिन के हेड डा. रवींद्र गुप्ता कहते हैं कि हवा में प्रदूषण स्वास्थ्य को प्रभावित करता है क्योंकि जिस खराब हवा में हम सांस लेते हैं उसमें बैक्टीरिया होते हैं जो फेफड़ों में संक्रमण का कारण बनते हैं, फिर यह शरीर के ऊतकों को ऑक्सीजन की आपूर्ति को प्रभावित करता है। जिससे ऑक्सीजन की कमी के कारण सांस फूलने लगती है। ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी के कारण हृदय की मांसपेशियां भी प्रभावित होती हैं। इसलिए प्रदूषण से दीर्घकालिक फेफड़ों की बीमारी, फेफड़ों का कैंसर, ब्रोंकाइटिस और अस्थमा हो सकता है। प्रदूषण से हृदयाघात और फेफड़ों की पुरानी बीमारी से उत्पन्न होने वाली अन्य हृदय समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है। वायु प्रदूषण फेफड़ों की कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचाकर अप्रत्यक्ष रूप से हृदय को प्रभावित कर सकता है। फेफड़ों की कार्यप्रणाली खराब होने के कारण हृदय के दाहिनी ओर दबाव बढ़ जाता है, इससे हृदय का दाहिना भाग कमज़ोर हो जाता है। इसके अलावा प्रदूषण के कारण हृदय की रक्त वाहिकाएं भी सिकुड़ जाती हैं।

ऐसे बचें

डा. गुप्ता कहते हैं कि बेशक, प्रदूषण से बचाने के लिए, औद्योगिक प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए सरकारी कानून बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन, प्रदूषित हवा को फिल्टर करने के लिए लोगों को या तो मास्क पहनना चाहिए या फिर अपने मुंह को स्कार्फ आदि से ढंकना चाहिए। घर में कमरे की हवा को साफ रखने के लिए एयर प्यूरीफायर रख सकते हैं। लकड़ी, कोयला, मोमबत्तियाँ, धूप आदि जलाने से बचें। प्रदूषण के दिनों में बाहरी व्यायाम से बचना भी बेहतर है। लंबी अवधि के लिए पेड़ लगाएं। प्रदूषण के बुरे प्रभाव को रोकने के लिए अच्छी तरह से हाइड्रेटेड रहें, संक्रमण से प्रतिरक्षा में सुधार के लिए संतरे, मौसमी और आंवला जैसे विटामिन सी से भरपूर खट्टे फल खाएं। साथ ही दिन में दो से तीन बार चेहरा और आंखें धोते रहें। संभव हो तो घर के अंदर ही रहें।

फोर्टिस अस्पताल के इंटरनल मेडिसिन के सीनियर डायरेक्टर डा. पवन कुमार गोयल कहते हैं कि लंबे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेने से फेफड़ों की कार्यक्षमता कम होती है, जिससे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, और सीओपीडी (क्रॉनिक ऑब्सट्रेक्टिव पल्मोनरी डिजीज) जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है।

प्रदूषण के कारण हवा में कार्बन डाई ऑक्साइड तथा कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है धूल तथा दूसरे सूक्ष्म कणों की मात्रा बढ़ जाती है। ये कण हमारी सांस नली में प्रवेश करके हमारी सांस की छोटी छोटी नलिकाओं को सिकोड़ देते हैं जिससे हमें सांस लेने में मुश्किल होती है। लगभग सभी लोग इससे प्रभावित होते हैं। लेकिन बुज़ुर्ग छोटे बच्चे तथा ऐसे लोग जिनको पहले से सांस की बीमारी है उनके ऊपर प्रदूषण का ज़्यादा असर पड़ता है। धूम्रपान करने वाले लोग भी प्रदूषण से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। ऐसे लोग जो किसी दूसरी बीमारी से प्रभावित हैं जैसे की सुगर, कैंसर सांस की बीमारी या अन्य किसी क्रॉनिक बीमारी उनको भी प्रदूषण से ज़्यादा प्रभाव पड़ता है।

वहीं दिल के रोगियों के लिए भी काफी मुश्किल होती है। वायु प्रदूषण के कारण रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है और हृदय को सामान्य से अधिक काम करना पड़ता है। इससे उच्च रक्तचाप, एथेरोस्क्लेरोसिस (धमनियों में ब्लॉकेज) और हार्ट अटैक का खतरा बढ़ सकता है। सूक्ष्म कण (PM2.5, PM10) और ओज़ोन प्रदूषण सीधे हृदय पर असर डालते हैं। ऐसा देखा गया है कि प्रदूषण के क्षेत्रों में हृदय रोग का ख़तरा प्रदूषण मुक्त क्षेत्रों के मुक़ाबले कई गुना बढ़ जाता है। प्रदूषण के कारण सिर दर्द और मतली भी हो सकती हैं और सांस के इन्फेक्शन होते हैं। ऐसा देखा गया है कि प्रदूषण के समय अक्सर तनाव भी बढ़ जाता है निद्रा कम हो जाती हैं।

डा. गोयल कहते हैं कि जब प्रदूषण का स्तर अधिक हो, तब बाहर जाने से बचें और खिड़कियां-दरवाजे बंद रखें। एयर प्यूरीफायर का उपयोग करें, जो हवा को साफ रखने में मदद करता है। बाहर जाते समय मास्क का उपयोग करें, जो वायु प्रदूषण के कणों को रोकने में सहायक होता है। घर में ऐसे पौधे लगाएं, जो हवा की गुणवत्ता को सुधार सकते हैं, जैसे एलोवेरा, स्पाइडर प्लांट, स्नैक प्लांट , मनी प्लांट आदि। प्रदूषण का स्तर सुबह और शाम के समय अधिक होता है, इसलिए व्यायाम के लिए दोपहर या रात के समय का चयन करें, जब प्रदूषण कम हो। डा. गोयल सलाह देते हैं कि खांसी और गले में खराश से राहत पाने के लिए भाप लेना फायदेमंद हो सकता है। गर्म पानी में नमक डालकर गरारे करना भी गले की ख़राश के लिए एक अच्छा उपाय है। विटामिन C और विटामिन E युक्त खाद्य पदार्थ, जैसे कि नींबू, संतरा, और हरी पत्तेदार सब्जियां, प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों से शरीर को बचाती हैं। पौष्टिक और संतुलित आहार हमें प्रदूषण से बचाने में काफ़ी हद तक लाभकारी है। इसके साथ हमें वसायुक्त, मसाले युक्त खान-पान से भी बचना चाहिए। दिन में कई बार आंखों को साफ पानी से धोएं, जिससे आंखों में जलन कम हो सके।

जलवायु परिवर्तन के खिलाफ ऐसे जीत सकते हैं जंग

बोस्टन कंसलटिंग ग्रुप और डब्ल्यूईएफ रिपोर्ट में कहा गया है कि सप्लाई चेन से कार्बन उत्सर्जन कम करना बड़े बदलाव ला सकता है। इससे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग जीती जा सकती है। दुनिया का 90 फीसद व्यापार छोटे और मध्यम इंटरप्राइजेज हैं, जो सप्लाई चेन के साथ मिलकर काम करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक किसी कंपनी को चलाने की तुलना में उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुंचाने में ज्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है। इसलिए सप्लाई चेन से उत्सर्जन कम करना ज्यादा फायदेमंद होगा।

किस सप्लाई चेन से कितना वैश्विक उत्सर्जन होता है

भोजन की सप्लाई चेन 25 फीसद कार्बन उत्सर्जन का कारण है। वहीं निर्माण (सीमेंट, स्टील और प्लास्टिक आदि) से 10 फीसद, फैशन से 5 फीसद, एफएमसीजी से 5, इलेक्ट्रानिक्स से 5 फीसद, ऑटो से 2 फीसद, प्रोफेशनल सर्विस से (बिजनेस ट्रैवेल ऑफिस) 2 फीसद और अन्य फ्रेट से 5 फीसद उस्तर्जन होता है।

बेहद कम कीमत पर 40 फीसद प्रदूषण कम होगा

इस प्रदूषण को 40 फीसद तक कम करने के लिए जो तकनीक अपनाई जाएगी, उससे वस्तुओं के मूल्य पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। जैसे ऑटोमोटिव जैसे कार के दाम में करीब 2 फीसद की वृद्धि होगी। वहीं फैशन (जैसे कपड़े) के मूल्य में 2 फीसद, खाने की कीमत में 4 फीसद, निर्माण की लागत में 3 फीसद और इलेक्ट्रानिक्स की कीमत में सिर्फ 1 फीसद का उछाल आएगा। विश्व की बड़ी मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों में से एक लेनजिंग के सीईओ स्टीफन डोबोकजी कहते हैं कि हमें उपभोगताओं को भी जागरूक करना होगा कि कैसे ग्रीन प्रोडक्ट खरीदना एक बेहतर विकल्प है। थोड़ी ज्यादा कीमत देकर वे बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं।

किस सेक्टर में क्या करना होगा

फूड-प्लास्टिक की पैकेजिंग को कम करना होगा और बिना जंगलों का काटे खेती करनी होगी।

निर्माण-किसी इमारत आदि के टूटने से जो विध्वंस अपशिष्ट निकलता है उसके सीमेंट, एल्यूमीनियम या प्लास्टिक को रिसाइकिल करना होगा। हर स्तर पर अक्षय ऊर्जा और कम उत्सर्जन वाले ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देना होगा।

फैशन और अन्य- सिलाई, कताई के लिए कम ऊर्जा खपत करने वाली मशीनरी का इस्तेमाल करना होगा। इसी तरह बाकी सेक्टर में भी प्लास्टिक या उत्पाद की रिसाइकलिंग, अक्षय ऊर्जा से उत्सर्जन में भारी गिरावट लाई जा सकती है। वहीं प्रोफेशनल सर्विस में वर्चुअल मीटिंग करके 10 फीसद प्रदूषण कम किया जा सकता है।

कंपनी को क्या करना होगा

रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की बड़ी कंपनियां भी डाटा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही हैं, जिससे प्रदूषण कम करने का लक्ष्य बनाया जा सके। सप्लाई चेन में उत्सर्जन काफी भीतर तक है इसलिए सिर्फ एक कंपनी और कुछ लोगों के प्रयास से प्रभाव नहीं पड़ेगा। बल्कि उद्योग के स्तर पर सभी को साथ मिलकर काम करना पड़ेगा।

ग्रीन हाउस गैस प्रोटोकॉल के मुताबिक उत्सर्जन को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहले में फैसेलिटी में इसे नियंत्रित करना होगा, जिसमें ऑनसाइट ईंधन दहन शामिल है। दूसरे हिस्से में थर्ड पार्टी की सहायता से हीट/कूलिंग की खरीद की जा सकता है और बिजली और स्टीम से होने वाले उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। तीसरे चरण में वैल्यू चेन उत्सर्जन को कम करना होगा। वहीं प्रोडक्ट की डिजाइन, कच्चे माल को मंगाने की रणनीति बदलकर, बिके हुए उत्पाद का इस्तेमाल करके, सप्लायर और सेक्टर के दूसरे साथियों के साथ मिलकर काम करके उत्सर्जन को घटाया जा सकता है। वहीं रिसाइकिलिंग, मैटेरियल और प्रासेस की क्षमता बढ़ाने, अक्षय ऊर्जा, अक्षय उष्मा, प्राकृतिक उपाय, ईंधन में बदलाव जैसे उपाय भी करने होंगे।

मिल्टन फ्रीडमैन प्रोफेसर और एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि फिलहाल जो उपाय और संसाधन भारत के पास है, उसमें वायु प्रदूषण के स्तर में खासा सुधार के लिए मजबूत पब्लिक पॉलिसी कारगर उपाय है। एक्यूएलआई रिपोर्ट के माध्यम से आम लोगों और नीति निर्धारकों को बताया जा रहा है कि कैसे वायु प्रदूषण उन्हें प्रभावित कर रहा है। साथ ही, प्रदूषण को कम करने के लिए इस रिपोर्ट का कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। ग्रीनस्टोन कहते हैं कि इतिहास उदाहरणों से भरा है कि कैसे मजबूत नीतियां प्रदूषण को कम कर सकती हैं, लोगों के जीवन को लंबा कर सकती हैं। उनके मुताबिक भारत और दक्षिण एशिया के नेताओं के लिए अगली सफलता की कहानी बुनने का एक बहुत ही शानदार अवसर है क्योंकि वे आर्थिक विकास और पर्यावरण गुणवत्ता के दोहरे लक्ष्यों को संतुलित करने के लिए काम करते हैं। सूरत ईटीएस की सफलता बताती है कि बाजार-आधारित लचीला दृष्टिकोण से दोनों लक्ष्यों को एक साथ हासिल किया जा सकता है।

पर्टिकुलेट मैटर

पर्टिकुलेट मैटर या कण प्रदूषण वातावरण में मौजूद ठोस कणों और तरल बूंदों का मिश्रण है। हवा में मौजूद कण इतने छोटे होते हैं कि आप नग्न आंखों से भी नहीं देख सकते हैं। कुछ कण इतने छोटे होते हैं कि इन्हें केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का उपयोग करके पता लगाया जा सकता है। कण प्रदूषण में पीएम 2.5 और पीएम 10 शामिल हैं जो बहुत खतरनाक होते हैं। पर्टिकुलेट मैटर विभिन्न आकार के होते हैं और यह मानव और प्राकृतिक दोनों स्रोतों के कारण से हो सकता है. स्रोत प्राइमरी और सेकेंडरी हो सकते हैं। प्राइमरी स्रोत में ऑटोमोबाइल उत्सर्जन, धूल और खाना पकाने का धुआं शामिल है।

प्रदूषण का सेकेंडरी स्रोत सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे रसायनों की जटिल प्रतिक्रिया हो सकता है। ये कण हवा में मिश्रित हो जाते हैं और इसको प्रदूषित करते हैं। इनके अलावा, जंगल की आग, लकड़ी के जलने वाले स्टोव, उद्योग का धुआं, निर्माण कार्यों से उत्पन्न धूल वायु प्रदूषण आदि और स्रोत हैं। ये कण आपके फेफड़ों में चले जाते हैं जिससे खांसी और अस्थमा के दौरे पड़ सकते हैं। उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, स्ट्रोक और भी कई गंभीर बीमारियों का खतरा बन जाता है।