दुनिया की नई वर्कफोर्स में एक-चौथाई भारतीय होंगे, ज्यादा रेमिटेंस के लिए इनका कौशल स्तर बढ़ाना जरूरी
अगले एक दशक में दुनिया में जो नई वर्कफोर्स आएगी उनमें 24.3% भारतीय होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय वर्कफोर्स को बैंकिंग बीमा फाइनेंस और आईटी के अलावा इलेक्ट्रिक वाहन सौर ऊर्जा एआई और साइबर सिक्युरिटी कंज्यूमर प्रोडक्ट तथा कंस्ट्रक्शन जैसे क्षेत्रों में कुशल बनाया जाए तो हमारे युवाओं की विदेश में मांग बढ़ेगी और हमारा रेमिटेंस भी बढ़ेगा।
एस.के. सिंह/अनुराग मिश्र, नई दिल्ली। विदेश जाने वाले माइग्रेंट की संख्या और स्वदेश पैसे भेजने, दोनों मामले में भारत दुनिया में शीर्ष पर है। वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2024 के अनुसार वर्ष 2020 में 1.78 करोड़ भारतीय दूसरे देशों में रह रहे थे। उन्होंने 2022 में 111.2 अरब डॉलर की रकम स्वदेश भेजी। दोनों ही मामलों में अगले कुछ वर्षों तक भारत के शीर्ष पर बने रहने की संभावना है। यह तो हम जानते ही हैं कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है और यहां की आबादी की औसत उम्र 28 साल है। वैश्विक कंसल्टेंसी फर्म ईवाई के अनुसार अगले एक दशक में दुनिया में जो नई वर्कफोर्स आएगी उनमें 24.3% भारतीय होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय वर्कफोर्स को बैंकिंग, बीमा, फाइनेंस और आईटी के अलावा इलेक्ट्रिक वाहन, सौर ऊर्जा, एआई और साइबर सिक्युरिटी, कंज्यूमर प्रोडक्ट तथा कंस्ट्रक्शन जैसे क्षेत्रों में कुशल बनाया जाए तो हमारे युवाओं की विदेश में मांग बढ़ेगी और हमारा रेमिटेंस भी बढ़ेगा।
वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया में 2020 में 28.1 करोड़ अंतरराष्ट्रीय प्रवासी (माइग्रेंट) थे, जो विश्व आबादी का 3.6% है। इसमें 14.6 करोड़ पुरुष और 13.5 करोड़ महिलाएं हैं। करीब 16.9 करोड़ माइग्रेंट ऐसे हैं जो काम करने के लिए दूसरे देशों में गए हैं। बाकी विस्थापित और रिफ्यूजी हैं। वैसे, ये आंकड़े 2020 के हैं जब कोरोना महामारी फैली थी और दुनिया में आवाजाही लगभग बंद थी। नए आंकड़े अगले साल जारी होंगे जिसमें प्रवासियों की संख्या काफी बढ़ सकती है।
अंतरराष्ट्रीय माइग्रेंट सबसे ज्यादा भारत के हैं। वर्ष 2020 में यहां के 1.78 करोड़ लोग दूसरे देशों में रह रहे थे। इसके बाद मेक्सिको (1.10 करोड़), रूस (1.06 करोड़), चीन (98 लाख), बांग्लादेश (73.4 लाख) और पाकिस्तान (6.14 लाख) हैं। वर्ष 1995 में सिर्फ 71.5 लाख भारतीय दूसरे देशों में रह रहे थे। संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका और सऊदी अरब में भारतीय बड़ी तादाद में हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी बड़ी संख्या में लोग खाड़ी देश जाते हैं। हालांकि तीनों देशों के माइग्रेंट वर्करों के सामने आर्थिक शोषण, विदेश जाने के लिए भारी-भरकम कर्ज और काम की जगह शोषण जैसी समस्याएं होती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय सबसे ज्यादा संयुक्त अरब अमीरात जाते हैं। उसके बाद उनका ठिकाना अमेरिका और सऊदी अरब होता है। उसके बाद मेक्सिको से अमेरिका जाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा 1.1 करोड़ है। फिर सीरिया है जहां गृह युद्ध के कारण लोगों ने भाग कर तुर्किए में शरण ली। अंतरराष्ट्रीय माइग्रेंट में दसवें स्थान पर भारत आने वाले बांग्लादेशी हैं। उनकी संख्या 20 लाख से अधिक बताई गई है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में इकोनॉमिक्स विभाग के सीनियर प्रोफेसर प्रो. सुरेंद्र कुमार कहते हैं, इस समय भारतीय सबसे अधिक मध्य पूर्व के देशों में जा रहे हैं, लेकिन उनमें अधिकतर उच्च प्रशिक्षित नहीं होते।
इन्फोमेरिक्स रेटिंग्स के चीफ इकोनॉमिस्ट डॉ. मनोरंजन शर्मा भी कहते हैं कि मध्य पूर्व, अफ्रीका, अरब, अमेरिका आदि जगहों पर बड़ी तादाद में भारतीय हैं। लेकिन अधिकतर भारतीय दूसरे देशों में छोटी नौकरियां कर रहे हैं। उच्च पदासीन लोगों का प्रतिशत कम है।
माइग्रेंट के लिए डेस्टिनेशन देश के तौर पर अमेरिका सबसे ऊपर है, जहां 2020 में 4.34 करोड़ विदेशी रह रहे थे। यह वहां की आबादी का 13.1% है। संयुक्त अरब अमीरात में 84.3 लाख विदेशी हैं, लेकिन यह वहां की आबादी का 85.3% है। भारत में 1995 में 66.9 लाख विदेशी माइग्रेंट थे, 2020 में इनकी संख्या घट कर 44.8 लाख रह गई। इस मामले में भारत का स्थान चौथे से 13वें पर आ गया है।
माइग्रेंट की परिभाषा विभिन्न देशों में अलग है। संयुक्त राष्ट्र इसे दो श्रेणी में बांटता है- शॉर्ट टर्म और लांग टर्म। दूसरे देश में तीन माह से एक साल से कम अवधि तक रहने वाले को शॉर्ट टर्म माइग्रेंट और एक साल या अधिक समय तक रहने वाले को लांग टर्म माइग्रेंट माना जाता है।
दुनियाभर के माइग्रेंट ने 831 अरब डॉलर की रकम स्वदेश भेजी
रिपोर्ट में वर्ल्ड बैंक के हवाले से बताया गया है कि वर्ष 2022 में अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों ने 831 अरब डॉलर की रकम अपने देश भेजी। इसमें से 64.7 अरब डॉलर कम और मध्य वर्ग के देशों को मिला। ग्लोबल रेमिटेंस वर्ष 2000 में 128 अरब डॉलर था। इस तरह दो दशक में यह 6.5 गुना हो गया है। रेमिटेंस की रकम 2022 में एफडीआई और सरकारों की तरफ से दी जाने वाली राशि (ओडीए) से ज्यादा थी।
विदेश में पैसे कमा कर स्वदेश भेजने वालों में भारतीय कमोबेश हर साल शीर्ष पर होते हैं। वर्ष 2000 से 2022 तक के आंकड़े देखें तो सिर्फ 2005 में भारतीय तीसरे स्थान पर थे। बाकी हर साल वे नंबर 1 पर रहे। भारत एक मात्र देश है जिसने रेमिटेंस के रूप में 100 अरब डॉलर का आंकड़ा पार किया है।
इन्फोमेरिक्स रेटिंग्स के चीफ इकोनॉमिस्ट डॉ. मनोरंजन शर्मा कहते हैं, “यूरोपियन और अन्य देशों में बचत पर जोर अधिक नहीं दिया जाता, लेकिन बचत करना भारतीयों के संस्कार में है। उनके घर से बाहर जाने का मूल कारण पैसा कमाना ही होता है। इसलिए कम वेतन होने के बाद भी वे कुछ न कुछ बचा जरूर लेते हैं और स्वदेश पैसे भेजते हैं।”
जिन देशों से रेमिटेंस जाता है, उनमें अमेरिका लगातार शीर्ष पर बना हुआ है। वहां से 2022 में दूसरे देशों को 79.15 अरब डॉलर की रकम भेजी गई। चीन ने 2020 में टॉप 10 में जगह बनाई और 2022 में वह पांचवें स्थान पर रहा। रेमिटेंस पाने वालों में वह फिलहाल भारत और मेक्सिको के बाद तीसरे स्थान पर है।
भारतीयों का कौशल बढ़ाने की जरूरत
प्रो. सुरेंद्र कुमार ज्यादा संख्या में भारतीयों को विदेश भेजने की बात कहते हैं। उनके मुताबिक, “रिपोर्ट में बताया गया है, भारतीय माइग्रेंट यहां की आबादी का सिर्फ 1.3% हैं। यह बड़ी संख्या नहीं है। अगर यह अनुपात दोगुना भी हो जाए तो भारत में श्रमिकों की कमी नहीं होगी।” लेकिन इसके लिए वे भारतीय वर्कफोर्स को दो तरीके से तैयार करने की बात कहते हैं। “एक तो अमेरिका और यूरोप जैसे देशों के अनुसार, जहां उच्च कौशल वालों की डिमांड है। इसके लिए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में क्वालिटी शिक्षा सुनिश्चित करनी पड़ेगी और आईआईटी जैसे संस्थानों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी। दूसरी जरूरत मध्य पूर्व के देशों की है जिन्हें ज्यादातर कम कौशल वाले लोग चाहिए। इसके लिए हमें अपने आईटीआई को सशक्त करना होगा।”
भविष्य के लिए मनोरंजन शर्मा सलाह देते हैं कि लोगों की स्किल अपग्रेड करने की नितांत आवश्यकता है “ताकि लोग अच्छे स्तर की नौकरियां कर सकें। उदाहरण के तौर पर केरल की नर्सों की मांग दुनिया में हर जगह है। इसने एक ब्रांड बना लिया है। चौथी औद्योगिक क्रांति को आगे बढ़ाने और विदेशों से रेमिटेंस बढ़ाने के लिए ये उपाय आवश्यक हैं।”
शर्मा ने बैंकिंग, आईटी, बीमा, इलेक्ट्रिक वाहन, सौर ऊर्जा, वित्तीय सेवाएं, ई-बिजनेस, उपभोक्ता उत्पाद और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुएं, भवन निर्माण, रिटेल, बीपीओ/केपीओ, साइबर सुरक्षा और एआई में युवाओं को कुशल बनाने की जरूरत बताई।
ग्रेटर नोएडा स्थित शारदा यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लॉ में इकोनॉमिक्स के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विश्वजीत प्रकाश बताते हैं कि वैश्विक प्रवासी प्रवाह में भारत का योगदान लगभग 8% है। युवाओं में स्किल डेवलपमेंट के साथ लेबर उत्पादकता बढ़ाने को जरूरी बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे अगले दो-तीन वर्षों में भारतीय दुनिया में उच्चतम गुणवत्ता वाला मानव पूंजी उपलब्ध कराने वाला देश बन सकता है। वे एक और जरूरी बात बताते हैं, “माइग्रेंट जब देश लौटते हैं तो अपने अनुभव और कार्यक्षमता के अनुरूप काम हासिल नहीं कर पाते। इसे भी सशक्त करने की जरूरत है।”
प्रो. सुरेंद्र कहते हैं, अगर हम ज्यादा कौशल वाले लोगों को विदेश भेजेंगे तो उन्हें अच्छी नौकरियां मिलेंगी, वेतन ज्यादा मिलेगा और देश में रेमिटेंस भी बढ़ेगा। रेमटेंस बढ़ने का मतलब है देश की आय बढ़ना। इससे खपत बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी।
माइग्रेशन से डेस्टिनेशन देश को भी फायदा
रिपोर्ट में माइग्रेशन के कई सकारात्मक पहलू बताए गए हैं। यह श्रमिकों की सप्लाई के साथ मांग भी बढ़ाता है। जिन देशों की आबादी घट रही है, उनके लिए माइग्रेशन आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण है। ऐसे देशों में माइग्रेशन राष्ट्रीय आय बढ़ाने के साथ जीवनशैली का स्तर भी बढ़ा सकता है। यह सकारात्मक प्रभाव सिर्फ उच्च-कौशल वाले सेक्टर में नहीं, बल्कि कम स्किल वाले कामों में भी दिखता है। माइग्रेशन का एक और सकारात्मक पक्ष है। इनोवेशन, पेटेंट, कला और विज्ञान के क्षेत्र में पुरस्कार, स्टार्टअप और सफल कंपनियों के पीछे अनेक प्रवासी मिल जाएंगे।
जिन देशों की आबादी तेजी से बढ़ रही है, वहां दूसरे देशों से आने वाले युवा पेंशन व्यवस्था पर बोझ भी कम करते हैं। स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर कम होने और वेतन में कमी जैसे इसके नकारात्मक प्रभाव भी हैं, लेकिन ज्यादातर रिसर्च बताती हैं कि नकारात्मक प्रभाव तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं।
युद्ध, जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापन
बड़ी संख्या में लोग युद्ध, हिंसा, राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण भी विस्थापित हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण अपने ही देश में एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले पाकिस्तान, फिलिपींस, चीन, भारत, बांग्लादेश, ब्राजील और कोलंबिया में ज्यादा हैं। कुछ वैज्ञानिकों का आकलन है कि वर्ष 2050 तक 21.6 करोड़ लोग अपने ही देश में विस्थापित होंगे।
युद्ध तथा अन्य मानवीय संकटों के कारण माइग्रेट करने वालों को आर्थिक मदद की भी जरूरत पड़ती है। लेकिन मदद की तुलना में जरूरत ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। नतीजा, मदद करने वाले अनेक देशों को अपने यहां विकास पर खर्च घटाना पड़ रहा है। युद्ध का जोखिम हाल के दशकों में उतना नहीं रहा जितना अभी है। वर्ष 2022 में दुनिया ने सेनाओं पर रिकॉर्ड 2240 अरब डॉलर खर्च किए। यह बताता है कि विश्व में भू-राजनीतिक तनाव बढ़ रहा है और शांति कम हो रही है।
अंतरराष्ट्रीय माइग्रेशन से दुनिया के कुछ हिस्सों में आबादी में भी परिवर्तन हुआ है। अधिक आय वाले देशों में वर्ष 2000 से 2020 के दौरान 8 करोड़ से ज्यादा माइग्रेंट आए, जबकि इस दौरान वहां 6.62 करोड़ लोगों की मौत हुई। अधिक आय वाले देशों में कई दशकों तक जनसंख्या वृद्धि मुख्य रूप से प्रवासियों के कारण होगी।
दो दशक में तीन गुना हुए अंतरराष्ट्रीय छात्र
पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या दो दशक में तीन गुना हुई है। रिपोर्ट में यूनेस्को के हवाले से बताया गया है कि वर्ष 2001 में यह संख्या 22 लाख से कुछ अधिक थी, जो 2021 में 60 लाख से अधिक हो गई। इनमें 47% छात्राएं और 53% छात्र हैं। वर्ष 2021 में चीन से सबसे ज्यादा 10 लाख छात्र विदेश पढ़ने गए। दूसरे स्थान पर भारत रहा जहां से 5.08 लाख छात्र गए। अन्य प्रमुख देशों में वियतनाम, जर्मनी और उज्बेकिस्तान हैं।
पढ़ाई के लिए छात्र सबसे ज्यादा अमेरिका जाते हैं। 2021 में वहां जाने वालों की संख्या 8.33 लाख, इंग्लैंड की 6.01 लाख, ऑस्ट्रेलिया की 3.78 लाख, जर्मनी की 3.76 लाख और कनाडा जाने वालों की 3.18 लाख थी। यूनेस्को की वेबसाइट पर दी जानकारी के अनुसार 2022 में इंग्लैंड में 6.75 लाख और ऑस्ट्रेलिया में 3.82 लाख विदेशी छात्र आए। अमेरिका, जर्मनी और कनाडा के 2022 के आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं।
वर्ष 2022 में दुनिया में 3.53 करोड़ रिफ्यूजी थे। इनमें से 41% लोग 18 साल से कम उम्र के थे। इनके अलावा 54 लाख ने शरणार्थी के रूप में रहने के लिए आवेदन कर रखा था। यूक्रेन पर रूस के हमले के कारण दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा विस्थापन हुआ है। रूस ने फरवरी 2022 में हमला शुरू किया था और उसी साल के अंत तक 57 लाख यूक्रेनी नागरिक अपना देश छोड़ कर जाने को मजबूर हुए। रिफ्यूजी के स्रोत के रूप में सीरिया (65 लाख) के बाद यूक्रेन दूसरे स्थान पर रहा।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के पीछे प्रेरक शक्ति बनेगा भारत
शारदा यूनिवर्सिटी की स्कूल ऑफ लॉ की एसोसिएट प्रोफेसर डा. उर्मिला यादव कहती है कि भारत, लगभग 1.4 बिलियन लोगों के साथ दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, यहां आर्थिक स्थितियों की एक विस्तृत श्रृंखला है। विदेश यात्रा से मजदूरों के वेतन में दोगुनी बढ़ोतरी हो सकती है, खासकर इसलिए क्योंकि 90% से अधिक भारतीय कामगार असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। चार मुख्य भारतीय प्रवासन राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और केरल हैं। जब बाहर से धन प्राप्त करने की बात आती है, तो भारत पहले स्थान पर है। प्रवासी अपने परिवारों या समुदायों को जो नकदी या वस्तु हस्तांतरण वापस भेजते हैं, उन्हें प्रेषण कहा जाता है। विश्व अर्थव्यवस्था के बढ़ते अंतर्संबंध के परिणामस्वरूप प्रेषण अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन का एक महत्वपूर्ण पहलू बन गया है।
वह कहती है कि यदि भारत के नागरिकों की क्षमताओं को उचित और आकर्षक कौशल प्रशिक्षण के माध्यम से विकसित किया जाए तो भारत विश्व को लगभग 4 से 5 करोड़ लोगों का कार्यबल प्रदान कर सकता है। अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों को प्राप्त करने, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विस्तार करने, स्थानीय क्षेत्रों में अत्याधुनिक तकनीकों को पेश करने और औद्योगिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए, भारतीय अर्थव्यवस्था को एक प्रशिक्षित श्रम शक्ति की आवश्यकता है। यह उन कंपनियों में निवेश और स्थापना के माध्यम से हो सकता है, जिन्हें भारत में कार्यबल की आवश्यकता है, भारत में काम के ऑफशोर के माध्यम से, या अन्य देशों में श्रमिकों के अस्थायी या स्थायी आंदोलन के माध्यम से। आने वाले दशकों में, भारतीय श्रम वैश्विक अर्थव्यवस्था के पीछे प्रेरक शक्ति होगा।