एस.के. सिंह/अनुराग मिश्र, नई दिल्ली। जी-20 के अध्यक्ष के रूप में भारत को एक बड़ी कामयाबी मिलती दिख रही है। भारत के प्रस्ताव पर समूह के सदस्य देश अफ्रीकन यूनियन को स्थायी सदस्य बनाने पर सहमत हो गए हैं। इसकी घोषणा शिखर बैठक के दौरान किए जाने की संभावना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 के सदस्य देशों के नेताओं को जून में ही इस आशय का अनुरोध पत्र भेजा था। अफ्रीकन यूनियन को यूरोपियन यूनियन की तर्ज पर सदस्य का दर्जा हासिल होगा। जी-20 का सदस्य बनने पर अफ्रीकी देश जलवायु परिवर्तन और कर्ज जैसे मसलों पर अपनी बात ज्यादा जोरदार तरीके से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रख सकेंगे। नाइजीरिया ने इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को देते हुए कहा कि जी-20 में अफ्रीकन यूनियन को शामिल किया जाना एक महत्वपूर्ण कदम है। अभी जी-20 में 19 देश और यूरोपियन यूनियन शामिल हैं। जी-20 की शिखर बैठक 9 और 10 सितंबर को नई दिल्ली में होगी।

अफ्रीकन यूनियन को जी-20 का पूर्ण सदस्य बनाने पर भारत का जोर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने 8 नवंबर 2022 को जी-20 के लिए लोगो और थीम के अनावरण के अवसर पर कहा था, “हम अपनी जी-20 अध्यक्षता की रूपरेखा ग्लोबल साउथ के उन सभी मित्रों के साथ मिल कर बनाएंगे जो विकास के पथ पर दशकों से भारत के सहयात्री रहे हैं।” बाद में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कहा था कि भारत की कोशिश सभी देशों को साथ लेकर चलने और विकासशील व गरीब देशों का प्रतिनिधित्व करने की होगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) प्रमुख क्रिस्टलीना जॉर्जीवा ने कहा है कि ऐसे समय जब विश्व अलग-अलग खेमे में बंट रहा है, भारत जी-20 की अध्यक्षता का इस्तेमाल विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने के लिए कर रहा है।

हर स्तर पर अफ्रीकी देशों की हिस्सेदारी बढ़ेगी

मुंबई यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर डा. रेणु मोदी जागरण प्राइम से कहती हैं कि अफ्रीकन यूनियन को शामिल करना बेहद आवश्यक है। “इससे ग्लोबल साउथ में भारत की लीडरशिप मजबूत होगी। भारत ने संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ग्लोबल साउथ के मुद्दे उठाए भी हैं। प्रेसीडेंसी हासिल करने के बाद इस साल जनवरी में भारत ने वर्चुअल तरीके से वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट का आयोजन किया जिसमें लगभग 125 देशों ने हिस्सा लिया। भारत को अफ्रीकी देशों को सहयोग करने की आवश्यकता है।” जी-20 के एजेंडे में क्लाइमेट चेंज, क्लाइमेट फाइनेंस, सस्टेनेबल डेवलपमेंट, फूड सिक्योरिटी, फाइनेंशियल इनक्लूजन जैसे मुद्दे हैं। अफ्रीका का क्लाइमेट एमिशन (उत्सर्जन) अन्य देशों की तुलना में कम है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में अफ्रीकन स्टडीज के प्रोफेसर और अफ्रीकाइंडियाडॉटओरजी के एडिटर सुरेश कुमार कहते हैं, “आतंकवाद, क्लाइमेट चेंज, पर्यावरण, फाइनेंस, ग्लोबल इकोनॉमी जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सभी देशों को साथ काम करना है। इसी संदर्भ में जब हम अफ्रीका की बात करते हैं साउथ अफ्रीका, नाइजीरिया, मिस्र की इकोनॉमी मजबूत है। भारत ने अफ्रीकन यूनियन को हर स्तर पर प्राथमिकता दी है। अफ्रीका के जी-20 में शामिल होने से उनकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हिस्सेदारी बढ़ेगी।”

प्रमुख देश कर चुके हैं समर्थन

अमेरिका और जापान ने दिसंबर 2022 में अफ्रीकी देशों के साथ बैठक में अपनी सहमति जताई थी। इसी हफ्ते, बुधवार को ऑस्ट्रेलिया ने एक बयान जारी कर कहा कि वह भी भारत के प्रस्ताव का समर्थन करता है। इसी साल मई में जापान में जी-7 देशों की बैठक में इटली ने भी ऐसा ही कहा था। उससे पहले मई में अफ्रीकन यूनियन के मुख्यालय इथियोपिया में जर्मनी के चांसलर ओलफ स्कोल्ज ने यूनियन को जी-20 की स्थायी सदस्यता देने का समर्थन करते हुए कहा था कि लगातार बिखरते और बहुध्रुवीय विश्व में अफ्रीकी देशों को अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। रूस की जी-20 शेरपा श्वेतलाना लुकास ने कहा है कि इस सम्मेलन में अफ्रीकन यूनियन को पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल किया जाएगा। इससे ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों की बात अधिक दमदार तरीके से रखी जा सकेगी।

अफ्रीकी देशों के साथ बैठक

चर्चा है कि यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधि अफ्रीकी देशों के नेताओं से जी-20 के दौरान अलग बैठक करेंगे। इसमें विश्व खाद्य सुरक्षा पर रूस-यूक्रेन युद्ध के असर की चर्चा हो सकती है। युद्ध से अफ्रीकी देशों को खाद्यान्न की सप्लाई सबसे अधिक प्रभावित हुई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में खाद्यान्न की बढ़ी कीमत से भी उन्हें अधिक जूझना पड़ रहा है। खाद्य सुरक्षा के अलावा यूरोप-अफ्रीका बैठक में इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पर भी चर्चा होने के आसार हैं।

दिसंबर 2022 में अमेरिका ने भी अफ्रीकी देशों के नेताओं के साथ बैठक की थी। उसके बाद जनवरी 2023 में अमेरिका की वित्त मंत्री जैनेट येलेन ने इन देशों का 10 दिनों का दौरा किया था। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इसी साल जुलाई में सेंट पीटर्सबर्ग में अफ्रीकी देशों के साथ बैठक की थी। तब पुतिन ने अफ्रीकन यूनियन के जी-20 में शामिल होने का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था। पुतिन की उस बैठक में 49 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे, जिनमें 17 देशों के प्रमुख थे। चीन ने अफ्रीका में भारी-भरकम निवेश कर रखा है। इसलिए इस बात की संभावना कम ही है कि वह इस संगठन में अफ्रीकन यूनियन को शामिल करने के प्रस्ताव का विरोध करेगा।

अफ्रीका के साथ भारत के संबंध

विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा है कि भारत के लिए अफ्रीका का उदय वैश्विक पुनर्संतुलन के लिहाज से महत्वपूर्ण है। अफ्रीका के साथ भारत की विकास साझेदारी में डिजिटल, हरित, स्वास्थ्य देखभाल, खाद्य सुरक्षा और जल पर विशेष ध्यान दिया जाएगा, जो अफ्रीका की प्राथमिकताओं के अनुरूप है।

डॉ. रेणु मोदी कहती हैं, “अफ्रीका ऐतिहासिक समय से हमारा सहयोगी रहा है। भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पाने के लिए अफ्रीकी देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।” सुरेश कुमार कहते हैं, “अफ्रीका के साथ आने से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के लिए भारत की दावेदारी मजबूत होगी। अटलांटिक महासागर में पोचिंग हो रही है। सुरक्षा के लिहाज से भी भारत-अफ्रीका की साझेदारी अहम है।”

उप-सहारा अफ्रीका के 48 देशों के साथ भारत का व्यापार हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2020-21 में द्विपक्षीय व्यापार 46.82 अरब डॉलर का था, जो 2022-23 में 82.13 अरब डॉलर हो गया। यानी सिर्फ दो वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार में करीब 75% की वृद्धि हुई है। इस साल जून में वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने 15 अफ्रीकी देशों के राजदूतों के साथ बैठक में कहा था कि भारत पूरे अफ्रीका के साथ या वहां के देशों के साथ अलग-अलग मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर बातचीत के लिए तैयार है।

अफ्रीका को इतना महत्व क्यों

अफ्रीकन यूनियन 55 देशों का संगठन है। इसकी स्थापना जुलाई 2002 में हुई थी। उससे पहले ऑर्गेनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनिटी था। मई 1963 में 32 अफ्रीकी देशों के प्रमुखों ने इथोपिया के अदिस अबाबा में ऑर्गेनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनिटी के गठन की घोषणा की थी। उसका अस्तित्व 1999 तक था। वैश्विक मामलों में अफ्रीकन यूनियन की भूमिका बदलते बहुध्रुवीय विश्व में महत्वपूर्ण होती जा रही है। हर खेमा अपनी वजहों से अफ्रीकी देशों को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा है। एक तो इन देशों में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है, जिससे दूसरे देशों को यहां बड़ा बाजार नजर आ रहा है। इसके अलावा वहां के खनिज तथा रेयर अर्थ मटेरियल की खदानों पर भी सबकी नजर है।

दिसंबर 2022 से पहले अमेरिका और अफ्रीका के नेताओं का सम्मेलन करीब एक दशक पहले हुआ था। 2015 के बाद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने अफ्रीकी देशों का दौरा नहीं किया। डोनाल्ड ट्रंप ने तो इन देशों के प्रति कोई रुचि ही नहीं दिखाई थी। इस दौरान अफ्रीकी देशों के साथ अमेरिका का व्यापार भी कम हुआ। यह 2008 में 142 अरब डॉलर का था जो 2021 में घटकर सिर्फ 64 अरब डॉलर रह गया।

पश्चिमी देशों को अफ्रीकी यूनियन के महत्व का अंदाज तब हुआ जब पिछले साल मार्च में यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग हुई। रूस के खिलाफ प्रस्ताव पर अफ्रीकन यूनियन के 25 देशों ने उस वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। उसके बाद ही पश्चिम देश अफ्रीका को अपने पाले में लेने की कोशिश करने लगे। हालांकि इस दौरान रूस और चीन भी अपने संबंध प्रगाढ़ करने की कोशिश करते रहे।

चीन कर रहा राजनीतिक इस्तेमाल

हाल के वर्षों में चीन ने अफ्रीका में अपनी मौजूदगी तेजी से बढ़ाई है। बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के जरिए चीन ने अफ्रीका में अपने आर्थिक हित बढ़ाए हैं। वर्ष 2021 में चीन और अफ्रीका के बीच व्यापार 254 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था। चीन ने अफ्रीका के अनेक रेयर अर्थ पदार्थों के खदानों के अधिकार भी हासिल किए हैं। चीन अपने इस आर्थिक प्रभाव का इस्तेमाल राजनीतिक स्तर पर भी कर रहा है। उसने यह सुनिश्चित किया है कि अफ्रीकी देश ताइवान की सरकार को स्वतंत्र रूप से मान्यता न दें। चीन, ताइवान को अपना हिस्सा बताता है।

सुरेश कुमार कहते हैं, चीन और भारत की नीति अलग है। चीन तरह-तरह के हथकंडों से अपनी नीति लागू करवाता है। भारत ने स्किल डेवलपमेंट, कैपिसिटी बिल्डिंग, शिक्षा, खनिज आदि के क्षेत्रों में उनकी क्षमताओं का विकास करने की कोशिश की है। जब जी-20 में भारत ने अफ्रीकी यूनियन का प्रस्ताव दिया तो चीन की आंख की किरकिरी बन गया। चीन लोन देकर अफ्रीकी देशों में मनमानी कर रहा है जबकि भारत वहां कैपिसिटी बिल्डिंग का काम कर रहा है। चीन के राष्ट्रपति के न आने की वजहों में से यह भी एक है।

अफ्रीकी देशों में निवेश

दिसंबर 2022 की बैठक में अमेरिका ने तीन वर्षों के दौरान आर्थिक, स्वास्थ्य और सुरक्षा के क्षेत्र में 55 अरब डॉलर की मदद अफ्रीकी देशों को देने का वादा किया। हालांकि यह चीन के निवेश की तुलना में बहुत कम है। रूस ने अफ्रीका में निवेश तो कम किया, लेकिन उसने शिक्षा, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में संबंध मजबूत किए हैं। सेंट पीटर्सबर्ग की बैठक में पुतिन ने कई अफ्रीकी देशों को मुफ्त में अनाज सप्लाई करने और कर्ज माफ करने का ऑफर दिया था। पुतिन ने कहा कि अफ्रीकी नेता बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देने और नवउपनिवेशवाद से लड़ने पर सहमत हुए हैं। पुतिन की उस बैठक में 49 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे, जिनमें 17 देशों के प्रमुख थे। बैठक से कुछ दिनों पहले ही रूस ने संयुक्त राष्ट्र और तुर्की की मध्यस्थता में ब्लैक सी ग्रेन इनीशिएटिव को आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था। यूक्रेन बड़े अनाज निर्यातकों में है और ब्लैक सी यानी काला सागर के रास्ते वह खाद्यान्नों का निर्यात करता रहा है।

अफ्रीकी संसाधनों का दोहन न हो

जी-20 से ठीक पहले अफ्रीकी देशों ने अपना पहला जलवायु सम्मेलन आयोजित किया, जो बुधवार 6 सितंबर को खत्म हुआ। नैरोबी घोषणापत्र नाम से जारी बयान में सभी अफ्रीकी देशों के लिए कर्ज में राहत की मांग की गई है ताकि ये देश जलवायु संकट से निपटने में बड़ी भूमिका निभा सकें। घोषणापत्र में क्लाइमेट फाइनेंस पर फोकस किया गया है। इसके अलावा ग्लोबल कार्बन टैक्स की बात कही गई है। वर्ल्ड बैंक जैसे मल्टीलेटरल बैंकों में अफ्रीका तथा अन्य देशों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की मांग भी की गई है। जी-20 में अफ्रीकन यूनियन को शामिल किए जाने के बाद ये मुद्दे भी उठने की उम्मीद की जा रही है।

डॉ. रेणु कहती हैं, अफ्रीका में चीन और भारत का कोई कंपटीशन नहीं है। दोनों अपने तरीके और मूल्यों के आधार पर काम कर रहे हैं। अफ्रीका में हर देश के लिए जगह है। भारत और चीन के अलावा यूरोपियन यूनियन, तुर्की, सिंगापुर और मिडिल ईस्ट आदि देश यहां कारोबार कर रहे हैं। वे कहती हैं, “आने वाले समय में अफ्रीका दुनिया का ब्रेड बास्केट बन सकता है। अफ्रीकी देश संसाधन समृद्ध हैं, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि उनके संसाधनों का दोहन न हो, उनका सही तरीके से इस्तेमाल हो। इससे किसी तरह के विवाद की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। ग्रीन डेवलपमेंट को ध्यान में रखकर उनके संसाधनों को इस्तेमाल करना होगा।”

वे कहती हैं, अफ्रीकी देश चाह भी रहे हैं कि दूसरे देश उनके यहां आकर निवेश करें। अफ्रीकी राष्ट्राध्यक्ष सबसे पहले भारत आए थे। उन्होंने लोगों को अपने यहां निवेश करने के लिए आमंत्रित किया है। अफ्रीकी देशों के पास लोग हैं, संसाधन हैं पर तकनीक और फाइनेंस का अभाव है। भारत के डीपीआई (डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर) को अफ्रीकी देश अपना रहे हैं। अफ्रीकी देश भारत से इस मायने में प्रभावित भी हैं कि बीते सात दशकों में भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी इकोनॉमी बन गया।