नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। 2024 के मानसून सीजन के दौरान भारी बारिश के कारण भारत के कई इलाकों में भयंकर बाढ़ और भूस्खलन हुआ। बारिश के कारण सबसे पहले असम राज्य में और बाद में अगस्त के अंत में भारत के गुजरात में भी भारी बाढ़ आई जिससे जान-माल का काफी नुकसान हुआ। वहीं दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में सूखे की स्थिति में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है और पश्चिमी व मध्य भारत के कुछ हिस्सों में भी यही स्थिति है। बदलते जलवायु परिवर्तन का आलम यह है कि देश में जहां सूखा पड़ता था, अब वहां बाढ़ आ रही है। चरम जलवायु घटनाओं का स्वरूप बदल रहा है। जल चक्र पर भी इसका असर पड़ रहा है। बीते समय में चरम घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। इन्हीं घटनाओं से होने वाले नुकसान को कम करने और इसका मुकाबला करने के लिए केंद्र सरकार ने मिशन मौसम शुरू किया है। ‘मिशन मौसम’ के तहत सरकार टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके मौसम की भविष्यवाणी को बेहतर बनाने का काम करेगी। हर साल चक्रवात, बाढ़, सूखा और हीटवेव जैसे जलवायु परिवर्तन से उपजी आपदाओं के चलते करीब 10,000 लोगों की मौत हो जाती है। ‘मिशन मौसम’ की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मौसम की सटीक भविष्यवाणी से इनमें से कई लोगों की जान बचाई जा सकती है।

सरकार ने ‘मिशन मौसम’ के लिए 2,000 करोड़ रुपए का बजट रखा है। इस मिशन का मुख्य लक्ष्य भारत के मौसम विभाग को अपग्रेड करने का है ताकि देश में मौसम की सटीक भविष्यवाणियां की जा सकें। इतना ही नहीं ये सरकार को आपदा के आने से पहले तैयार होने और उसके बाद जनजीवन को जल्द से जल्द सुचारू करने में भी मदद करेगा। मिशन "मौसम प्रबंधन" तकनीकों का पता लगाएगा और इसमें कृत्रिम रूप से बादलों को विकसित करने के लिए एक प्रयोगशाला बनाना, रडार की संख्या में 150 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि करना और नए उपग्रह, सुपर कंप्यूटर और बहुत कुछ जोड़ना शामिल है। भारतीय मौसम वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अगले पांच सालों में उनके पास इतनी विशेषज्ञता होगी कि वे न केवल बारिश को बढ़ा सकेंगे बल्कि कुछ क्षेत्रों में ओलों और बिजली के साथ-साथ इसे भी रोक सकेंगे।

भारत सरकार में रेल, संचार और इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव के मुताबिक, वेदर फॉरकास्टिंग टेक्नोलॉजी में कई बदलाव किए जा रहे हैं। हाल ही में कई नए राडार, सेटेलाइट के बेहतर इनपुट और तस्वीरें मिलनी शुरू हुई हैं। इससे मौसम की सही भविष्यवाणी आसान हुई है। मौसम और क्लाइमेट की सटीक भविष्यवाणी को संभव करने के लिए भारत सरकार ने मिशन मौसम की शुरुआत की है

इस मिशन के तहत 200 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इससे डेटा मॉडलिंग, अगली पीढ़ी के रेडार और सेटेलाइट, एआई आदि पर निवेश किया जाएगा। वहीं विश्व की प्रतिष्ठित संस्थाओं से समझौते किए जाएंगे। ऐसे में हम आने वाले पांच से छह वर्षों में हम बेहद कम समय में सटीक मौसम की भविष्यवाणी कर सकेंगे।

कृषि अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉक्टर ज्ञान प्रकाश मिश्रा कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते देश के कई इलाकों में कभी भारी बारिश हो जाती है तो कभी सूखा पड़ जाता है। इससे किसानों को बड़ा नुकसान होता है। इसको देखते हुए मिशन मौसम केंद्र सरकार का एक बड़ा कदम है। इस मिशन के तहत 2026 तक सुपर कंप्यूटर और उपग्रण प्रणालियों को और आधुनिक बनाया जाएगा।

इससे किसानों के लिए सटीक भविष्यवाणी समय रहते की जाएगी। इस मिशन में किसी भी क्षेत्र में कृत्रिम बारिश कराने और बारिश रोकने की विशेषज्ञता भी विकसित की जाएगी। बेहतर मौसम पूर्वानुमान और कृत्रित बारिश किसानों को बाढ़ और सूखे जैसे हालात से बचाने में मदद करेगी। इसके अलावा वैज्ञानिक आकाशीय बिजली गिरने और बादल फटने जैसी घटनाओं को भी नियंत्रित कर सकेंगे। इससे खेती में होने वाले नुकसान को रोकने में काफी मदद मिलेगी। ये सारी जानकारी पंचायत स्तर पर देने की भी तैयारी की जा रही है।

इसकी आवश्यकता क्यों है?

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार मौसम का पूर्वानुमान चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इसकी कई वजह है। वायुमंडलीय प्रक्रियाओं की जटिलता और वर्तमान अवलोकन और मॉडल रिज़ॉल्यूशन में सीमाओं के कारण आकलन करना काफी मुश्किल होता जा रहा है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन वातावरण को और अधिक अव्यवस्थित बना रहा है, जिसके परिणामस्वरूप अलग-अलग स्थानों पर भारी वर्षा और स्थानीय स्तर पर सूखा पड़ रहा है, जो बाढ़ और सूखे की एक साथ चुनौतियों का सामना कर रहा है। बादल फटना, आंधी, बिजली गिरना और तूफ़ान भारत में सबसे कम समझी जाने वाली मौसम की घटनाओं में से हैं। मंत्रालय का कहना है कि इन जटिल पैटर्न को समझने के लिए बादलों के भीतर और बाहर, सतह पर, ऊपरी वायुमंडल में, महासागरों के ऊपर और ध्रुवीय क्षेत्रों में होने वाली भौतिक प्रक्रियाओं का गहन ज्ञान होना आवश्यक है।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी के निदेशक डॉक्टर आर कृष्णन कहते हैं कि, मिशन मौसम भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की ओर से विकसित भारत बनाने की दिशा में देश को वेदर रेडी और क्लाइमेट स्मार्ट बनाने के लिए एक बड़ा कदम है। मिशन मौसम के जरिए देश में मौसम और क्लाइमेट की सटीक भविष्यवाणी की क्षमता काफी बढ़ जाएगी। मिशन मौसम के तहत मौसम की सही भविष्यवाणी के लिए रडार और सेटलाइट जैसे उपकरण बढ़ाए जाएंगे जिससे मिले डेटा का इस्तेमाल यूनिफाइड अर्थसिस्टम मॉडल के जरिए किया जाएगा। ये मॉडल मिशन मौसम के तहत पूरी तरह से भारत में ही विकसित किया जा रहा है। इस मॉडल के जरिए हम मौसम की सटीक भविष्यवाणी कर सकेंगे।

सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट के प्रिंसिपल प्रोगाम मैनेजर, एयर पॉल्यूशन कंट्रोल, विवेक चट्टोपाध्याय कहते हैं कि हम देश में वायु प्रदूषण एक बड़ी चुनौती बन चुका है। मौसम की सटीक भविष्यवाणी से इस चुनौती से आसानी से निपटा जा सकता है। इसमें मिशन मौसम की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। दरअसल सर्दियों के पहले पराली जलाए जाने पर हवा के जरिए पराली का धुआं उत्तर भारत के अलग अलग हिस्सों में पहुंचता है। मिशन मौसम के जरिए हवा के रुख और आर्द्रता का सही आंकलन कर प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए तत्काल कदम उठाए जा सकेंगे। बहुत अधिक प्रदूषण होने पर कृत्रिम बारिश की भी मदद ली जा सकेगी।

अगले पांच सालों में क्या होगा?

केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव एम रविचंद्रन ने कहा कि पांच साल का मिशन दो चरणों में लागू किया जाएगा। पहला चरण, जो मार्च 2026 तक होगा। इसमें अवलोकन नेटवर्क का विस्तार करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। इसमें लगभग 70 डॉपलर रडार , उच्च प्रदर्शन वाले कंप्यूटर जोड़ना और 10 पवन प्रोफाइलर और 10 रेडियोमीटर स्थापित करना शामिल है। इसकी तुलना में, चीन के पास 217 रडार और 128 विंड प्रोफाइलर हैं, और अमेरिका के पास 160 रडार और 100 विंड प्रोफाइलर हैं। दूसरे चरण में अवलोकन क्षमताओं को और बढ़ाने के लिए उपग्रहों और विमानों को जोड़ने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। पूरे पांच साल की अवधि में, मंत्रालय और इसके संस्थान - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग, भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान और राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र - मौसम और जलवायु प्रक्रियाओं और भविष्यवाणी क्षमताओं की अपनी समझ को बेहतर बनाने और मौसम प्रबंधन प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के लिए काम करेंगे ।

मिशन मौसम से क्या लाभ होगा ?

मिशन मौसम से ज्यादा बारिश, बाढ़, बादल फटने और सूखा पड़ने जैसी मुसीबतों से बचा जा सकता है। इस मिशन से कृषि, आपदा प्रबंधन, रक्षा, एविएशन, एनर्जी, वाटर रिसोर्सेज और टूरिज्म सहित कई सेक्टर्स को फायदा होगा।

इसके तहत एडवांस्ड सेंसरों का इस्तेमाल किया जाएगा। इसके साथ ही नेक्स्ट जेनरेशन रडार और सैटेलाइट सिस्टम तैनात किए जाएंगे। हाई कैपेसिटी के सुपर कंप्यूटर का इस्तेमाल किया जाएगा। जीआईएस बेस्ड ऑटोमेटिक सपोर्टेड सिस्टम का इस्तेमाल किया जाएगा।

क्लाउड चैंबर क्या है और मिशन मौसम मौसम प्रबंधन के बारे में क्या कहता है?

मंत्रालय ने कहा है कि बढ़ते तापमान के संदर्भ में बादलों के भीतर होने वाली प्रक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए मिशन के तहत अगले डेढ़ साल के भीतर पुणे में भारतीय मौसम विज्ञान संस्थान में एक "क्लाउड चैंबर" स्थापित किया जाएगा । एम रविचंद्रन ने कहा, "हम आईआईटीएम की प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से बादल बनाएंगे और प्रयोग करेंगे। उनके अनुसार, बादल का बेस आमतौर पर धरती की सतह से एक से डेढ़ किलोमीटर दूर तक होगा। लेकिन इनकी उंचाई 12 से 13 किलोमीटर तक की हो सकती है। इसलिए मिशन मौसम के तहत उंचाई पर हो रहे बदलावों के लिए देश को तैयार किया जा रहा है। इसमें नमी, हवाओं की गति और तापमान का आकलन होगा। बादलों के घनत्व को कम करने के लिए, अधिक बारिश वाले बादलों को ऐसे इलाकों की तरफ भेजने की कोशिश होगी जहां बारिश कम हो रही है।

इससे वैज्ञानिकों को इन प्रक्रियाओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी और वे यह पता लगा सकेंगे कि किस प्रकार के बादलों का बीजारोपण किया जा सकता है (एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें बादलों में पदार्थ मिलाकर वर्षा की जाती है), बीजारोपण के लिए कौन सी सामग्री का उपयोग किया जाना चाहिए और वर्षा को बढ़ाने या रोकने के लिए कितनी मात्रा में बीजारोपण की आवश्यकता है।" उन्होंने कहा कि क्लाउड चैंबर से प्राप्त जानकारी मौसम मॉडल के पैरामीटराइजेशन को बेहतर बनाने में भी मदद करेगी। रविचंद्रन ने कहा, "हमारा लक्ष्य अगले पांच वर्षों में बारिश और ओलावृष्टि को कृत्रिम रूप से बढ़ाना या दबाना है। उसके बाद, हम बिजली जैसी अन्य मौसम संबंधी घटनाओं पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।"

मौसम प्रबंधन की जरूरत क्यों ?

रविचंद्रन का कहना है कि मौसम प्रबंधन की मौजूदा हालातों में काफी आवश्यकता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि "अगर दिल्ली में लगातार बारिश हो रही है, जिससे बाढ़ आ सकती है, तो क्या मैं बारिश को रोक सकता हूं? बादलों को थोड़ा और बीज देकर, बारिश को रोका जा सकता है। इसी तरह, सूखाग्रस्त क्षेत्र में, यह वर्षा को बढ़ाकर सूखे को रोकने में मदद कर सकता है।" क्लाउड सीडिंग में संघनन को बढ़ावा देने के लिए हवा में पदार्थों को फैलाना शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप वर्षा होती है। क्लाउड सीडिंग के लिए उपयोग किए जाने वाले सबसे आम पदार्थों में सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड और सूखी बर्फ (ठोस कार्बन डाइऑक्साइड) शामिल हैं। ये एजेंट वर्षा कराने में मददगार होते हैं। मौसम परिवर्तन की इस तकनीक का उपयोग दुनिया के कई हिस्सों में किया गया है, मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में जहां पानी की कमी या सूखे की स्थिति है। क्लाउड सीडिंग तकनीक को अपनाने वाले कुछ देशों और राज्यों में अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया और यूएई शामिल हैं। हालांकि, क्लाउड सीडिंग की प्रभावशीलता और पर्यावरणीय प्रभाव चल रहे शोध का विषय बने हुए हैं। भारत पहले से ही कृत्रिम वर्षा बनाने की तकनीक के साथ प्रयोग कर रहा है, जिसमें विमान का उपयोग करके क्लाउड सीडिंग शामिल है, और महाराष्ट्र और अन्य जगहों पर कुछ पायलट प्रोजेक्ट किए हैं। यह क्लाउड एरोसोल इंटरेक्शन एंड प्रीसिपिटेशन एन्हांसमेंट एक्सपेरीमेंट (CAIPEEX) नामक एक शोध कार्यक्रम के माध्यम से क्लाउड माइक्रोफिजिकल विशेषताओं का अध्ययन करने के लिए किया जा रहा है।

नेशनल सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्टिंग के प्रमुख डॉक्टर वीएस प्रसाद कहते हैं कि मिशन मौसम के तहत हम अगली पीढ़ी के रडार और सेटेलाइट सिस्टम का इस्तेमाल करेंगे। इसके जरिए हम मौसम की सटीक भविष्यवाणी कर सकेंगे।

खास तौर पर हम एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स का अनुमान लगा सकेंगे। जलवायु परिवर्तन के चलते एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इस मिशन के तहत हम भविष्य की मौसम की चुनौतियों निपटने के लिए बेहतर तरीके से तैयार होंगे।

लगातार बढ़ती जा रही है गर्मी

वैज्ञानिकों के मुताबिक आने वाले समय में झुलसा देने वाली गर्मी भरे दिन और बढ़ेंगे। पर्यावरण और डेवलपमेंट के मुद्दों पर काम करने वाली संस्था इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंड (IRADe) की एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले दिनों में हीट वेव के दिनों और तीव्रता में वृद्धि देखी जाएगी। वहीं गर्मी बढ़ने के साथ आर्द्रता में भी वृद्धि होगी। इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंड और कनाडा की संस्था इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर की ओर से दिल्ली और राजकोट के शहरों के लिए हीटवेव दिनों की संख्या में वृद्धि का विश्लेषण किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में दिल्ली में 49 दिनों तक हीट वेव दर्ज की गई जो 2019 में बढ़ कर 66 दिनों तक पहुंच गई जो एक साल में लगभग 35% की वृद्धि को दर्शाता है। वहीं 2001 से 10 के आंकड़ों पर नजर डालें तो हीट वेव के दिनों में 51% की वृद्धि दर्ज हुई। वहीं राजकोट की बात करें तो 2001-10 के बीच कुल 39 दिन हीट वेव दर्ज की गई। वहीं ये संख्या 2011 से 21 के बीच बढ़ कर 66 दिनों तक पहुंच गई।

बढ़ती गर्मी का मक्का, गेहूं, धान पर सबसे ज्यादा असर

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर रिसर्च प्रोफेसर फिजा अहमद कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज ने कृषि पर बड़ा प्रभाव डाला है। इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं। उनके अनुमान के मुताबिक 2030 तक मक्के की फसल के उत्पादन में 24 फीसदी तक गिरावट की आशंका है। गेहूं भी इसकी वजह से काफी प्रभावित हो रहा है। वह बताते हैं कि अगर तापमान में चार डिग्री सेंटीग्रेड का इजाफा हो गया तो गेहूं का उत्पादन पचास फीसद तक प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा धान की पैदावार में भी गिरावट आ सकती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के क्रॉप साइंस के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. टी.आर.शर्मा कहते हैं कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो असर हमारी थाली पर पड़ेगा। अगर हमें अपने खाने और फसलों को बचाना है तो अनुसंधान पर लगातार खर्च करना होगा। डॉ. शर्मा कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज का असर हर फसल पर पड़ रहा है। ठंड ज्यादा पड़ रही है, बारिश असमान हो रही है, इसका साफ असर फसलों पर देखने में आ रहा है। फसलों में नई-नई बीमारियां क्लाइमेट चेंज की वजह से हो रही हैं। बीते कुछ सालों में धान और मक्का की फसल पर इसका प्रभाव पड़ा है। हाल में हुई अधिक बारिश की वजह से पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में धान की काफी फसल बर्बाद हुई।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने देश के 573 ग्रामीण जिलों में जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि पर खतरे का आकलन किया है। इसमें कहा गया है कि 2020 से 2049 तक 256 जिलों में अधिकतम तापमान 1 से 1.3 डिग्री सेल्सियस और 157 जिलों में 1.3 से 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की उम्मीद है। इससे गेहूं की खेती प्रभावित होगी। गौरतलब है कि पूरी दुनिया की खाद्य जरूरत का 21 फीसदी गेहूं भारत पूरी करता है। वहीं, 81 फीसदी गेहूं की खपत विकासशील देशों में होती है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेज एंड वीट रिसर्च के प्रोग्राम निदेशक डॉ. पीके अग्रवाल के एक अध्ययन के मुताबिक तापमान एक डिग्री बढ़ने से भारत में गेहूं का उत्पादन 4 से 5 मीट्रिक टन तक घट सकता है। तापमान 3 से 5 डिग्री बढ़ने पर उत्पादन 19 से 27 मीट्रिक टन तक कम हो जाएगा। हालांकि बेहतर सिंचाई और उन्नत किस्मों के इस्तेमाल से इसमें कमी की जा सकती है।

मध्य प्रदेश में जबलपुर स्थित जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर एग्रोमेट्रोलॉजी डॉक्टर मनीष भान कहते हैं कि एक दशक पहले तक मार्च महीने में तापमान बढ़ना शुरू होते थे। इससे गेहूं की फसल को पकने में मदद मिलती थी। वहीं पिछले कुछ सालों में फरवरी में ही तापमान तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में गेहूं में दाने बनने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है। दाने छोटे रह जाते हैं और उत्पज घट जाती है। इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के इंफ्रो कॉप मॉडल और फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डिसिजन सपोर्ट सिस्टम फॉर एग्रो टेक्नॉलिजी ट्रांस्फर दोनों बताते हैं कि 2025 तक औसत तापमान डेढ़ डिग्री तक बढ़ सकता है। इससे 120 दिन वाली गेहूं की फसल 100 दिन में ही तैयार हो जाएगी। इससे दानों को मोटा होने का समय ही नहीं मिलेगा। गर्मी बढ़ने से पौधे में फूल जल्दी आ जाएंगे। ऐसे में फसल को दाना छोटा हो जाएगा और फसलें 120 दिन वाली फसल 100 दिन में ही तैयार हो जाएगी।

हर दशक औसत 1.22% घट रही मानूसन की बारिश, फसलों के लिए बढ़ा संकट

मौसम विभाग (IMD) के जर्नल मौसम में हाल में ही छपे एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि हर दशक में बारिश के दिनों में औसतन 0.23 फीसदी कमी दर्ज की गई है। ध्ययन के मुताबिक आजादी के बाद से अब तक देश में बारिश का समय लगभग डेढ़ दिन कम हो गया है। यहां बारिश के एक दिन का मतलब ऐसे दिन से है जिस दिन कम से कम 2.5 मिलीमीटर बारिश हुई हो। वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले एक दशक में एक्सट्रीम इवेंट्स भी काफी तेजी से बढ़े हैं।

आईएमडी जर्नल मौसम में प्रकाशित ये अध्ययन 1960 से 2010 के बीच मौसम के डेटा के आधार पर किया गया है। अध्ययन में पाया गया कि बारिश के लिए जिम्मेदार लो क्लाउड कवर देश में हर दशक में लगभग 0.45 फीसदी कम हो रहा है। खास तौर पर मानसून के दिनों में इनमें सबसे ज्यादा, 1.22 प्रतिशत कमी आई है।

मौसम विभाग के अध्ययन के मुताबिक 1971 से 2020 के बीच आंकड़ों पर नजर डालें तो दक्षिण पश्चिम मानसून देश की कुल बारिश में लगभग 74.9 फीसदी की हिस्सेदारी रखता है। इसमें से जून महीने में लगभग 19.1 फीसदी बारिश होती है। वहीं जुलाई में लगभग 32.3 फीसदी और अगस्त में लगभग 29.4 फीसदी बारिश होती है। सितंबर महीने में औसतन 19.3 फीसदी बारिश दर्ज की जाती है।

उत्पादकता पर असर

मौसम के बदलाव से एक तरफ जहां लोगों में पर्यावरण खराब होने से बीमारियां बढ़ रही है तो दूसरी तरफ आर्थिक और शारीरिक हानि भी हो रही है। हाल ही में एक रिपोर्ट में सामने आया है कि मौसम में हो रहे लगातार बदलाव की वजह से हर देश में रोजाना काम का कई घंटों का नुकसान होता है। नेचर जनरल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में इसकी वजह से काम में 14 वर्किंग दिन (आकलन 12 वर्किंग घंटों के आधार पर) का नुकसान हो जाता है।

नेचर जनरल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में मौसम में हो रहे परिवर्तन की वजह से तीस फीसद काम का घाटा उठाना पड़ता है। मौसम वैज्ञानिकों ने चेताया है कि अगर यहीं हालात बनें रहे तो आने वाले समय में यह नुकसान बढ़ सकता है।

रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग्लोबल वॉर्मिंग की मौजूदा स्थिति के अनुसार सालाना 100 बिलियन घंटों का नुकसान होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि रिपोर्ट में वर्किंग घंटों का आकलन दिन में 12 घंटों के आधार पर किया गया है। अध्ययन में इसे सुबह सात बजे से लेकर शाम सात बजे तक माना गया है। निकोलस स्कूल ऑफ द इंवायरनमेंट, ड्यूक यूनिवर्सिटी के ल्यूक ए पार्संस ने ई-मेल के माध्यम से बताया कि भारत का लेबर सेक्टर काफी बड़ा है। ऐसे में इसका घाटा भी अधिक होगा। पार्संन ने कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग में अगर आने वाले समय में दो डिग्री का ईजाफा होता है तो काम की क्षति दोगुनी यानी 200 बिलियन घंटे सालाना हो जाएगी। इससे करीब एक माह के वर्किंग घंटों का नुकसान हो जाएगा जो एक बड़ा घाटा होगा। इसका सीधा असर किसी देश की इकोनॉमी पर भी पड़ेगा। पार्संस ने चेताते हुए कहा कि मौजूदा हालातों में जिस दर से ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी हो रही है उसको ध्यान में रखते हुए हमने 4 डिग्री तापमान में बढ़ोतरीका आकलन किया है। इस स्थिति में भारत को 400 बिलियन वर्किंग घंटों का नुकसान होगा। पार्संस ने कहा कि इसके कारण भारत को 240 बिलियन डॉलर की परचेजिंग पावर पेरिटी (क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के जरिए यह पता लगाया जाता है कि दो देशों के बीच मुद्रा की क्रयशक्ति में कितना अंतर या समता है। यह करेंसी एक्सचेंज रेट तय करने में भी भूमिका निभाती है।) का नुकसान उठाना पड़ता है।

मौसम की आपदा की वजह से लोग छोड़ रहे घर

कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट इनएक्शन : डिस्प्लेसमेंट एंड डिस्ट्रेस माइग्रेशन रिपोर्ट में कहा गया है कि मौसम से जुड़ी आपदाओं की वजह से 2050 तक 4.5 करोड़ भारतीय अपनी जगहों से विस्थापित हो जाएंगे। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 तक 1.4 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक सूखा, समुद्री जलस्तर के बढ़ने, जल संकट, कृषि और इकोसिस्टम को हो रहे नुकसान के चलते लोग विस्थापन को मजबूर है। रिपोर्ट के अनुसार 1998 से 2017 तक भारत को भूकंप, सुनामी, तूफान, तापमान, बाढ़ और सूखा की वजह से 79.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ है। जैसे-जैसे हालात बिगड़ेंगे यह नुकसान और बढ़ेगा। 2020 में मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा की गई एक रिसर्च इस बात की तसदीक करती है कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम न उठाए गये तो 2050 तक दक्षिण एशियाई देश को अपनी जीडीपी का 2 फीसदी नुकसान होगा। यह नुकसान उत्तरोत्तर बढ़ता जाएगा और सदी के अंत तक बढ़कर 9 फीसदी हो जाएगा। इसमें जलवायु से जुड़ी चरम आपदाओं से होने वाले नुकसान को नहीं जोड़ा गया है, वरना यह आंकड़ा इससे कहीं अधिक होता।

आपदा से आर्थिक नुकसान

रिपोर्ट के अनुसार, 1998 से 2017 तक भारत को भूकंप, सुनामी, तूफान, तापमान, बाढ़ और सूखे की वजह से 79.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ है, जैसे-जैसे हालात बिगड़ेंगे यह नुकसान और बढ़ेगा।

2012 के राष्ट्रीय मौसम मानसून से कैसे अलग

अगर मिशन का उद्देश्य सिर्फ़ इतना ही होता, तो यह 2012 में शुरू किए गए राष्ट्रीय मानसून मिशन से बहुत अलग नहीं होता । उस अभ्यास का सार मौसम मॉडल विकसित करके मानसून का पूर्वानुमान लगाने के लिए एक नया दृष्टिकोण विकसित करना था जो गहन कंप्यूटिंग पर निर्भर करता था। इसकी बदौलत, भारत के पास एक ऐसा अम्ब्रेला मौसम मॉडल है जिसे कई समय-सीमाओं पर पूर्वानुमान बनाने के लिए बदला जा सकता है - दैनिक से लेकर मौसमी मानसून पूर्वानुमान तक। मानसून से परे, इस तरह के मॉडल को हीटवेव, कोल्डवेव और स्थानीय पूर्वानुमानों के लिए अनुकूलित किया जा सकता है।

नए मिशन से जुड़े प्रस्तावों में से एक आईआईटीएम में 'क्लाउड-सिमुलेशन चैंबर' स्थापित करना है, जो बारिश के बादलों को मॉडल करने में मदद करेगा। फिर वे बादलों को सीडिंग करने और उनसे बारिश को नियंत्रित करने के लिए उनमें बदलाव करने जैसे विभिन्न "मौसम हस्तक्षेपों" का परीक्षण करेंगे। बिजली को नियंत्रित करने की भी योजना है। जैसा कि आंकड़े बताते हैं, भारत में बाढ़ और भूस्खलन के बाद, बिजली गिरना प्रकृतिजनित मौतों का सबसे बड़ा कारण है। हालांकि ऐसा क्यों है, इसके पीछे कई सामाजिक-आर्थिक कारक हैं, लेकिन मौसम विज्ञानी कहते हैं कि उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वे बादल की विद्युत विशेषताओं को इस तरह से बदल पाएंगे कि आसमान से जमीन पर बिजली गिरने की घटनाएं कम होंगी। अन्य देशों में ऐसे प्रयोग किए गए हैं, इसकी व्यवहार्यता पर बहुत अनिश्चितता है। वायुमंडलीय विज्ञान में मौलिक शोध में निवेश करना एक स्वागत योग्य कदम है।