नई दिल्ली, एस.के.सिंह। आम बजट में अब सिर्फ दो हफ्ते रह गए हैं। खास बात यह है कि 2024 के आम चुनाव से पहले यह आखिरी पूर्ण बजट होगा। इसलिए माना जा रहा है कि इसमें कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक फोकस किया जाएगा। खेत और गांव पर फोकस का कारण भी है। देश की 70% आबादी अब भी ग्रामीण है। ऐसे में सवाल उठता है कि कृषि के लिए बजट में क्या कदम उठाए जाने चाहिए। देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 14% योगदान करने वाले इस सेक्टर में हाल के समय में तेज बदलाव हुए हैं। यह सेक्टर पारंपरिक खेती से बागवानी और पशुपालन की तरफ बढ़ रहा है। किसान भी टेक्नोलॉजी को अपना रहे हैं, भले ही अभी यह शुरुआती चरण में है।

विशेषज्ञों का कहना है कि खेती की जमीन सीमित है, लेकिन आबादी में इजाफा हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी भारत की भूमिका बढ़ रही है। इन दोनों जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को कृषि में उत्पादकता बढ़ानी पड़ेगी। यह टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से ही संभव है। इसलिए उन्होंने कृषि से जुड़े क्षेत्रों के लिए बजट आवंटन बढ़ाने और ऐसी नीतियां बनाने के सुझाव दिए हैं जिनसे टेक्नोलॉजी के उपयोग को बढ़ावा मिले। उनका कहना है कि हमारी आयात और निर्यात नीति में स्थिरता होनी चाहिए। किसी भी कमोडिटी की आयातित कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से कम कीमत पर नहीं होनी चाहिए।

टेक्नोलॉजी का बढ़ रहा प्रयोग

फूड प्रोसेसिंग, बागवानी, पशुपालन, ऑर्गेनिक खेती, फूलों की खेती, डेयरी जैसे क्षेत्रो में मांग बढ़ रही है। डेलॉय इंडिया के पार्टनर आनंद रामनाथन का सुझाव है कि सरकार को इन क्षेत्रों के लिए बजट आवंटन बढ़ाना चाहिए। इसके अलावा एआई, मशीन लर्निंग, रिमोट सेंसिंग, बिग डाटा, ब्लॉकचेन, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, ड्रोन तथा रोबोट का प्रयोग कृषि में बढ़ रहा है। हालांकि अभी यह शुरुआती चरण में है। जागरूकता की कमी और किसानों की छोटी जमीन इसमें बड़ी बाधा है। इसलिए सरकार को उचित ईकोसिस्टम तैयार करना चाहिए।

रामनाथन का कहना है कि फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन (FPO) को मजबूत करने से नई टेक्नोलॉजी अपनाने में मदद मिलेगी। वे स्टार्टअप को कम ब्याज पर कर्ज देने की भी बात कहते हैं, क्योंकि इससे कृषि समस्याओं के नए सॉल्यूशन आ सकते हैं। कृषि टेक्नोलॉजी पर 2022 के बजट में पीपीपी मोड में किसानों को डिजिटल और हाइटेक सेवाएं उपलब्ध कराने, किसानों की मदद के लिए ड्रोन का इस्तेमाल और एग्री स्टार्टअप की फाइनेंसिंग के लिए फंड लांच करने की घोषणाएं की गई थीं।

कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करना जरूरी

पंजाब और हरियाणा ने अपनी एपीएमसी को आधुनिक बनाने के लिए निवेश किया, लेकिन ऐसा अन्य राज्यों में नहीं दिखा। पूर्व केंद्रीय कृषि सचिव सिराज हुसैन जागरण प्राइम से कहते हैं, “आज भी कृषि उपज के मूल्यों की जानकारी का स्रोत एपीएमसी हैं। जिन राज्यों में एपीएमसी का ढांचा कमजोर है वहां किसानों को मूल्यों की सही जानकारी नहीं मिल पाती है। सरकार को टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके इसे दुरुस्त करना चाहिए। ई-नाम को मजबूत करने से किसानों को रियल टाइम में जानकारी भी मिल सकती है।”

2018-19 के बजट में सरकार ने 22,000 ग्रामीण हाट को ग्रामीण एग्रीकल्चरल मार्केट्स (ग्राम) में बदलने की घोषणा की थी। योजना के तहत उन हाटों का इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर किया जाना था। हुसैन कहते हैं, “वह अच्छा कॉन्सेप्ट था, उसे मजबूत बनाने की जरूरत है।”

मध्य प्रदेश के पूर्व कृषि सचिव और समुन्नति एग्रो के डायरेक्टर प्रवेश शर्मा कहते हैं, “एग्रीकल्चर मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर में नए सिरे से निवेश करना पड़ेगा। मंडी व्यवस्था की हम चाहे जितनी आलोचना कर लें, आज भी किसान को यही लगता है कि वह अपनी उपज लेकर मंडी में जाएगा तो किसी न किसी भाव बिक ही जाएगा।”

शर्मा के अनुसार, देश में हर साल 30 करोड़ टन से अधिक फल-सब्जियों का उत्पादन हो रहा है। बड़े शहरों को छोड़ दें तो फल-सब्जियों के लिए उचित मंडियां ही नहीं हैं। उत्पादन बढ़ा है, लेकिन मंडियों का इन्फ्रास्ट्रक्चर वही है जो 30 साल पहले था। आज भी मंडियों में हजारों में किसान कतार में मिलेंगे। दिल्ली की आजादपुर मंडी में रोजाना 8000 ट्रकों की एंट्री होती है, लेकिन वहां का इन्फ्रास्ट्रक्चर इसके लायक नहीं है।

शर्मा का सुझाव है, “10 बड़े शहरों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की मंडियां बनानी चाहिए। भले ही ये पीपीपी प्रोजेक्ट के तहत बनें। किसी भी उद्योगपति को उसका जिम्मा दिया जाए, इससे किसानों को फर्क नहीं पड़ता। उन्हें सुविधा मिलनी चाहिए।”

रामनाथन सप्लाई चेन विकसित करने पर जोर देते हुए कहते हैं कि एडवांस प्रोसेसिंग स्टोरेज और डिस्ट्रीब्यूशन सुविधाएं विकसित करके प्रोडक्ट की वैल्यू बढ़ाई जा सकती है। इससे नुकसान कम होगा और आमदनी बढ़ेगी। इसके लिए वे छोटे कोल्ड स्टोरेज निर्माण और प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित करने में उद्यमियों को आर्थिक मदद का सुझाव देते हैं। उनका कहना है कि सरकार को सिंचाई, लॉजिस्टिक्स, वेयरहाउस जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना होगा।

कृषि और ग्रामीण क्षेत्र पर खर्च बढ़ सकता है

ब्रोकरेज फर्म यूबीएस का अनुमान है कि अगले बजट में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र पर खर्च 10 अरब डॉलर (लगभग 80 हजार करोड़ रुपये) बढ़ाया जा सकता है। ब्रोकरेज फर्म की अर्थशास्त्री तन्वी गुप्ता जैन का अनुमान है कि सरकार सब्सिडी पर खर्च कम करके मनरेगा तथा ग्रामीण आवास और सड़क आदि पर खर्च बढ़ाएगी।

सरकार फूड प्रोसेसिंग सेक्टर के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव (PLI) की घोषणा कर चुकी है। विमानों से कृषि उपज की ढुलाई को बढ़ावा देने के लिए कृषि उड़ान 2.0 स्कीम घोषित की गई है। रामनाथन के अनुसार कृषि उपज का निर्यात बढ़ाने के लिए सरकार को डॉक्यूमेंटेशन की प्रक्रिया आसान करनी चाहिए। भारत से आयात करने वाले विकसित देशों की जरूरतों के मुताबिक खाद्य सुरक्षा मानक अपनाए जाएं तो उससे भी कृषि निर्यात बढ़ाने में मदद मिलेगी।

एफपीओ के लिए परेशानी बना मैट

2018-19 के बजट में एफपीओ के लिए 5 साल तक टैक्स में छूट का प्रावधान किया गया था। उसके बाद 2019-20 में प्रावधान किया गया कि अगले 5 वर्षों में 10,000 नए एफपीओ खोले जाएंगे। मध्य भारत कंसोर्टियम ऑफ एफपीओ के सीईओ योगेश द्विवेदी का कहना है कि नए एफपीओ को टैक्स छूट का लाभ नहीं मिल सकेगा। यह सुविधा जारी रहनी चाहिए।

टैक्स में छूट के बावजूद एफपीओ को 18% न्यूनतम वैकल्पिक कर (MAT) देना पड़ता है। द्विवेदी के अनुसार इसे खत्म किया जाना चाहिए। विकल्प के तौर पर इनकम की सीमा तय की जा सकती है, जिससे कम इनकम वाले एफपीओ पर मैट नहीं लगेगा। उनका कहना है कि एफपीओ का रजिस्ट्रेशन करने से पहले जांच-परख की जानी चाहिए। हो यह रहा है कि एक ही व्यापारी परिवार के कई लोग मिलकर एफपीओ बना रहे हैं।

एफपीओ के सामने बैंक कर्ज की भी समस्या है। द्विवेदी के अनुसार एफपीओ के क्रेडिट की गारंटी सरकार देती है, फिर भी बैंक उनसे दो साल की बैलेंस शीट मांगते हैं या टर्नओवर के अनुपात में कर्ज देने की बात कहते हैं। उनका कहना है कि एफपीओ को प्रायरिटी सेक्टर लेंडिंग की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। पर्याप्त कर्ज नहीं मिलने के कारण ही छोटे किसानों की संस्थाएं अभी इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट में आगे नहीं आ रही हैं। अभी इन स्कीमों का फायदा बड़े किसानों की संस्थाएं उठा रही हैं।

एफपीओ का कॉन्सेप्ट था कि जो छोटे किसान सरप्लस उपज पैदा करते हैं, उन्हें अपनी उपज बाजार में बेचने में आसानी हो। लेकिन द्विवेदी के अनुसार वास्तविकता इसके विपरीत है। “कुछ जगहों पर कॉरपोरेट को एफपीओ बनाने की जिम्मेदारी दे दी गई है। वे तो पहले अपना फायदा देखेंगे।”

वे एफपीओ को मंडी टैक्स में छूट की बात भी कहते हैं, तभी वे बड़े व्यापारियों के सामने टिक पाएंगे। उनका कहना है कि सिर्फ समान प्लेटफॉर्म बना देने भर से काम नहीं चलेगा, क्योंकि उस प्लेटफॉर्म पर एक तरफ बड़े व्यापारी हैं तो दूसरी तरफ छोटे किसान।

पोषण के हिसाब से टैक्स लगे

राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय संयोजक वीएम सिंह की राय थोड़ी अलग है। वे कहते हैं, “अगर किसानों को एमएसपी की गारंटी मिल जाए तो बजट में और किसी प्रावधान की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। फर्टिलाइजर या अन्य इनपुट के दाम चाहे जितने बढ़ जाएं, लागत में उस पूरे मूल्य को शामिल करते हुए उसका डेढ़ गुना कीमत किसानों को मिल जाए। अगर यह प्रावधान हो तो किसानों को न सस्ते कर्ज की जरूरत पड़ेगी न सस्ती बिजली की।”

भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ मानव संसाधन विकास पर फोकस करने की बात कहते हैं। उनके मुताबिक, सरकारी संस्थानों में लोग कम हैं, इस वजह से मंत्रालयों और नीति आयोग जैसे पॉलिसी थिंक टैंक को साझेदारी करनी पड़ती है। ऐसे में साझीदार के प्रभाव में नीतियां बनती हैं।

उनका कहना है कि किसान उपभोक्ताओं की मांग और सरकारी इन्सेंटिव के हिसाब से फसलें उपजाते हैं। अर्थात टैक्स से खपत प्रभावित हो सकता है। इसलिए पोषण के हिसाब से प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों पर टैक्स लगाया जाना चाहिए। ज्यादा नमक और चीनी वाले पदार्थों पर अधिक टैक्स लगे। जाखड़ के अनुसार किसी भी कृषि उपज का आयात उसके न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर नहीं होना चाहिए।

कृषि एक्सटेंशन मशीनरी बढ़ाना जरूरी

प्रवेश शर्मा के अनुसार, हाल के वर्षों में कृषि उत्पादन का पैटर्न बदला है। अब हमारे किसानों को फल, सब्जी, डेयरी, पोल्ट्री आदि से काफी आमदनी होने लगी है। लेकिन इनके लिए कृषि एक्सटेंशन (सलाह सेवा) मशीनरी नहीं है। ऐसे में किसान निजी कंपनियों के पास जाने के लिए मजबूर होते हैं।

उन्होंने कहा, अमेरिकी हाइब्रिड टमाटर का बीज दो लाख रुपये किलो है। उस बीज को खरीदने के बाद किसान को क्या उपाय करने चाहिए, यह उसे नहीं मालूम। यह किसी न किसी को बताना पड़ेगा। अगर सरकार इस दिशा में कदम उठाए तो गांव में लोगों को रोजगार भी मिलेगा। उन्हें प्रशिक्षण देखकर एक्सटेंशन एजेंट बनाया जा सकता है।

किसानों को संस्थागत कर्ज की व्यवस्था हो

छोटे किसानों की कुछ समस्याएं दशकों पुरानी हैं। प्रवेश शर्मा कहते हैं, छोटे और सीमांत किसानों को अब भी पर्याप्त संस्थागत कर्ज नहीं मिल पाता है। वे जरूरत का 60-70% पैसा साहूकार या कारोबारी से लेते हैं। कर्ज का पैसा एडजस्ट करने के लिए किसान को उसी व्यापारी को अपना माल बेचना पड़ता है। बीज और खाद के लिए भी उसे यही करना पड़ता है।

शर्मा के अनुसार किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) के बावजूद पंजाब-हरियाणा में किसानों को जरूरत का आधा पैसा बाहर से ही उठाना पड़ता है। झारखंड जैसे राज्यों में यह अनुपात 70-80% है। वे कहते हैं, पंजाब-हरियाणा में किसानों को बैंक पैसा दे देते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि किसानों को एमएसपी का पैसा मिल जाएगा, लेकिन जहां किसानों को एमएसपी नहीं मिलता उनके लिए काफी दिक्कत है।

फल-सब्जी के किसानों को ज्यादा मुश्किल आती है। उन्हें किसान क्रेडिट कार्ड का फायदा नहीं मिल पाता है, जबकि पिछले छह वर्षों से देश में फल-सब्जियों के उत्पादन का मूल्य अनाज, दलहन और तिलहन से ज्यादा हो गया है।

2015-16 की 10वीं कृषि जनगणना के अनुसार देश में 14.6 करोड़ किसान परिवार हैं। इनमें से 86.2 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ये कुल खेती योग्य जमीन के 45.6 प्रतिशत हिस्से पर खेती करते हैं। देश के कुल कृषि उत्पादन में इनकी हिस्सेदारी 50% से ज्यादा है।

शर्मा के अनुसार इन छोटे किसानों को कर्ज देने के लिए नई संस्थाओं को प्रोत्साहित करना पड़ेगा। एनबीएफसी को कुछ इन्सेंटिव देना पड़ेगा ताकि वे इस क्षेत्र में आएं। इसके और रास्ते भी तलाशे जा सकते हैं। वे कहते हैं, “इस दिशा में काफी दिनों से कोई नई पहल नहीं हुई है। बैंकों की शाखाएं बंद होती जा रही हैं और कोई नया ढांचा बना नहीं। सहकारी वित्तीय संस्थाओं का बुरा हाल है।”

कोऑपरेटिव के जरिए कृषि विकास के उपाय हों

हालांकि कोऑपरेटिव मॉडल को विभिन्न क्षेत्रों में अपनाकर भी बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। अमूल इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। लेकिन इसके लिए कोऑपरेटिव व्यवस्था में भी बदलाव जरूरी हैं। कोऑपरेटिव्स की राष्ट्रीय संस्था सहकार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. डी.एन. ठाकुर कहते हैं सरकार को बजट में कोऑपरेटिव के माध्यम से फूड मैनेजमेंट पर फोकस करना चाहिए। इससे सरकार का पैसा बचेगा और लोग भी जुड़ेंगे।

वे कहते हैं, कोऑपरेटिव पहले भी प्रासंगिक थे और आज बढ़ती आबादी के साथ उनकी प्रासंगिकता ज्यादा हो गई है। अगर इन्हें ठीक से चलाया जाए तो इनमें बाजार को ड्राइव करने की क्षमता होती है। सरकार को केवल फैसिलिटेटर की भूमिका में रहते हुए सहकारी क्षेत्र में क्षमता निर्माण, एफिशिएंसी और प्रबंधन क्षमता बेहतर करने पर फोकस करना चाहिए। कोऑपरेटिव में सरकार की इक्विटी नहीं होनी चाहिए, इसके कामकाज का जिम्मा प्रोफेशनल लोगों के हाथों में होना चाहिए।

ठाकुर का मानना है कि कृषि विकास का सबसे समुचित माध्यम कोऑपरेटिव है। गांव में ही भंडारण सुविधा विकसित कर उसे नेशनल ग्रिड से जोड़ा जा सकता है। वहां से स्थानीय से लेकर ग्लोबल स्तर तक सप्लाई की जा सकती है।

ठाकुर कोऑपरेटिव के लिए टैक्स में छूट के पक्षधर हैं। वे कहते हैं, “कोऑपरेटिव के मुनाफे पर टैक्स खत्म होना चाहिए। इसका प्रॉफिट सदस्यों को जाता है और सदस्य अगर टैक्स ब्रैकेट में है तो वह टैक्स देता ही है। वैसे भी, कोऑपरेटिव से सरकार को ज्यादा टैक्स नहीं मिलता। मेरे विचार से टैक्स कंप्लायंस का बोझ कलेक्शन से ज्यादा है।” उनका कहना है कि बड़ी कोऑपरेटिव टैक्स के बराबर राशि सामाजिक और ग्रामीण विकास में खर्च करें। छोटी कोऑपरेटिव को टैक्स में पूरी छूट हो।

उनका कहना है कि व्यक्तिगत स्तर पर खेती अब मुनाफे का काम नहीं रह गई है। इसे मुनाफे का बनाने के लिए इकोनॉमी ऑफ स्केल को अपनाना पड़ेगा। इसलिए सरकार को उचित नीतियों और इन्सेंटिव के माध्यम से किसानों को कोऑपरेटिव के तौर पर संगठित करने में मदद करनी चाहिए।

इस भूमिका के लिए जरूरी है कि कोऑपरेटिव को सस्ता कर्ज मिले। इसके लिए सरकार सभी तरह की सब्सिडी और ग्रामीण योजनाओं को खत्म करके उसी पैसे का एक बड़ा फंड बना सकती है। वह फंड कोऑपरेटिव और ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले कार्यों के लिए क्रेडिट गारंटी के तौर पर काम करे। पांच साल में इस फंड का आकार इतना बड़ा हो जाएगा कि आगे सरकार को उसके लिए नया प्रावधान करने की जरूरत ही नहीं रहेगी।