प्राइम टीम, नई दिल्ली। वर्ल्ड बैंक प्रेसिडेंट अजय बंगा का एक बयान इन दिनों चर्चा में है। उन्होंने कहा, “ऐसे समय जब दुनिया भर की कंपनियां चाइना प्लस वन नीति के तहत अपने सप्लाई चेन को डाइवर्सिफाई करने के लिए मैन्युफैक्चरिंग की वैकल्पिक जगह तलाश रही हैं, भारत के पास इस अवसर को भुनाने के लिए तीन से पांच साल का वक्त है। यह अवसर 10 साल के लिए नहीं रहेगा।” दरअसल, वैश्विक कंपनियां निवेश के लिए चीन के विकल्प के तौर पर आकर्षक जगह की तलाश में हैं। जागरण प्राइम ने इस बारे में विशेषज्ञों से बात की। उनका कहना है कि हाल में कुछ कंपनियों ने भारत में निवेश किया है, लेकिन चीन से निकलने वाली कंपनियों की तुलना में यह बहुत कम है। हमें बेहतर बिजनेस वातावरण बनाने के साथ नियम-कानूनों में स्थिरता लानी होगी, क्वालिटी पर फोकस करना होगा तथा पूंजी की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने जैसे कदम उठाने होंगे।

बंगा की बात से सहमति जताते हुए बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं, “यह सही है कि भारत के लिए अवसर अगले 3 साल के लिए ही है, क्योंकि दूसरे देश भी प्रतिस्पर्धा में हैं। हमें बेहतर बिजनेस वातावरण बनाना होगा।” पीरामल एंटरप्राइजेज के मुख्य अर्थशास्त्री देबोपम चौधरी के मुताबिक, “भारत 1990 के दशक में निर्यात आधारित ग्रोथ मॉडल को अपनाने में चीन से पीछे रह गया। मौजूदा चाइना प्लस वन नीति हमारे लिए दूसरा मौका लेकर आई है। एक संतुलित और निर्यातोन्मुखी विकास की रणनीति अपनाना सही नजरिया हो सकता है। इस रणनीति से हम भारत की युवा आबादी का भी लाभ उठा सकते हैं।”

भारत के अब तक के कदम और उनके फायदे

हाल के वर्षों में भारत ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं। सड़क और बिजली की स्थिति में सुधार हुआ है। नई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए टैक्स की दर घटाकर 17% (सरचार्ज-सेस समेत) की गई है। वर्ल्ड बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में 2014 में भारत 142वें स्थान पर था, 2019 में 190 देशों में भारत 63वें स्थान पर आ गया। लोगों को स्किल्ड बनाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। करीब कानूनी 3500 प्रावधानों को डिक्रिमिनलाइज किया जा चुका है। मेक इन इंडिया और प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) जैसे अभियानों से मैन्युफैक्चरिंग में तेजी आई है। भारत ने 13 देशों/क्षेत्रों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) अथवा क्षेत्रीय व्यापार समझौते (आरटीए) किए हैं। कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपियन यूनियन के साथ एफटीए की बात चल रही है। अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस तथा संयुक्त अरब अमीरात समेत कई देशों की कंपनियों ने भारत में अपना निवेश बढ़ाने की घोषणा की है।

भारत में कच्चे माल की उपलब्धता है, इसलिए भी यह मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों की पसंदीदा जगह बन सकता है। नई मैन्युफैक्चरिंग नीति में 2025 तक जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी बढ़ाकर 25% करने का लक्ष्य है। वर्ष 2030 तक भारत की एक ट्रिलियन डॉलर के वस्तुओं की निर्यात क्षमता विकसित करने की योजना है। एक अनुमान के मुताबिक भारतीय मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर विश्व अर्थव्यवस्था को वर्ष 2030 तक हर साल 500 अरब डॉलर का योगदान कर सकता है।

नेशनल इन्फ्राट्रक्चर पाइपलाइन के जरिए भारत ने भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में काफी निवेश किया है। इससे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की लागत कम होने की उम्मीद है। हाल में भारत ने एफडीआई नीति में उदारीकरण और लैंड पूल का गठन जैसे कदम भी उठाए हैं, जिनसे निवेश आकर्षित करने में मदद मिली है। वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार देश में अब तक 634.44 अरब डॉलर का एफडीआई इक्विटी के रूप में आया है। इसमें सबसे ज्यादा 16% निवेश सर्विस सेक्टर में हुआ। दूसरे नंबर पर कंप्यूटर हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर सेगमेंट है, जिसमें करीब 15% निवेश हुआ है। वित्त वर्ष 2022-23 में 46 अरब डॉलर का एफडीआई इक्विटी इन्फ्लो हुआ, जबकि 2021-22 में 58.7 अरब डॉलर का निवेश हुआ था।

चीन में निवेश क्यों हुआ

करीब चार दशक से चीन दुनिया भर की कंपनियों के लिए निवेश की सबसे बड़ी जगह बना हुआ है। इसके कई कारण हैं। एक तो वहां मजदूरी कम थी, वहां कुशल श्रमिक बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं, साथ ही ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (31वां स्थान) में भी बेहतर है। चीन ने लगभग हर क्षेत्र में मैन्युफैक्चरिंग की विशेषज्ञता हासिल की और मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा लॉजिस्टिक सिस्टम तैयार किया है। इसलिए 1990 और 2000 के दशक में अनेक वैश्विक कंपनियों ने अपना मैन्युफैक्चरिंग प्लांट चीन में स्थापित किया अथवा अपने प्रोडक्ट की आउटसोर्सिंग वहां से की। इस तरह चीन ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बन कर उभरा। दुनिया की 30% मैन्युफैक्चरिंग अकेले चीन करता है। लेकिन हाल में ऐसी कई घटनाएं हुईं जिनसे कंपनियां चीन का विकल्प तलाशने को मजबूर हुई हैं।

चीन से बाहर क्यों जाना चाहती हैं कंपनियां

‘चाइना प्लस वन’ की शुरुआत तो 2013 में हुई थी, लेकिन इसमें तेजी पिछले पांच साल में आई है। 2018 और 2019 में जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने चीन से आयात पर शुल्क बढ़ाया था। उसके बाद दोनों देशों के बीच ट्रेड वॉर शुरू हो गई। अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन से सामान मंगवाना महंगा हो गया और वे वैकल्पिक मैन्युफैक्चरिंग पार्टनर तलाशने लगीं। ताइवान पर चीन के रवैये से भू-राजनैतिक तनाव बढ़ने के आसार हैं। इसलिए भी कंपनियां चीन से इतर सप्लाई चेन तैयार करना चाहती हैं। चीन ने हाल के वर्षों में टेक्नोलॉजी में काफी तरक्की की है। पश्चिमी देश इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हैं। इसलिए कई देशों ने हुआवे और जेडटीई जैसी कंपनियों को प्रतिबंधित कर दिया है।

चीन उच्च-मध्य आय वाले देशों की श्रेणी में आ गया है और वहां मजदूरी काफी बढ़ गई है। औसत वेतन बढ़ने से कंपनियों की लागत से बढ़ गई है। इसलिए वे सस्ते श्रम वाले विकल्प तलाश रही हैं। 2010 से 2016 के दौरान वहां न्यूनतम वेतन में 30% से अधिक की वृद्धि हुई है। कुछ इलाकों में तो इस दौरान न्यूनतम वेतन दोगुना हुआ है। चीन की एक बच्चे की नीति के कारण युवा क्वालिफाइड कामगारों की संख्या कम होने लगी है। इंडस्ट्री को स्किल्ड लोग कम मिल रहे हैं।

इन सबसे भी ज्यादा जिस फैक्टर ने काम किया, वह है कोविड-19 महामारी। महमारी के दौरान पता चला कि दुनिया चीन पर कितनी ज्यादा निर्भर है। जीरो कोविड पॉलिसी के चलते चीन के कई प्रमुख शहरों में लंबे समय तक लॉकडाउन रहा और कई महीने तक विभिन्न चीजों की सप्लाई बाधित रही। अब कंपनियां ग्लोबलाइजेशन और लोकलाइजेशन के बीच संतुलन बनाना चाहती हैं- यानी ग्लोकल। यह ग्लोकल मॉडल चीन की राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित रखने का एक माध्यम भी है।

चीन से कहां जा रही हैं कंपनियां

कंटेनर लॉजिस्टिक्स सेक्टर के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म कंटेनर एक्सचेंज की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य में ज्यादातर कंपनियां अपने मैन्युफैक्चरिंग हब टार्गेट मार्केट के करीब स्थापित करेंगी। वे अपना उत्पादन किसी एक जगह पर केंद्रित न रख कर कई देशों में फैलाएंगी। हाल में एपल, फॉक्सकॉन, सैमसंग समेत अनेक वैश्विक कंपनियों ने भारत में अपने प्लांट लगाए हैं या उनका विस्तार किया है, लेकिन यह भारत की क्षमता की तुलना में बहुत कम है। जापानी इन्वेस्टमेंट बैंक नोमुरा के एक अध्ययन के अनुसार अप्रैल 2018 से अगस्त 2019 के दौरान 56 कंपनियां चीन से बाहर गईं, जिनमें से सिर्फ तीन भारत आईं, 26 कंपनियां वियतनाम, 11 ताइवान, 8 थाईलैंड और दो इंडोनेशिया गईं। अभी एपल के 90% आईफोन, आईपैड और मैकबुक चीन में बनते हैं। हाल में उसने भारत और वियतनाम में इनकी असेंबली के लिए फैक्ट्रियां लगाई हैं। ग्लोबल डिमांड पूरी करने के लिए वह यहां अपनी क्षमता बढ़ाना भी चाहती है। अमेरिकी बैंक जेपी मॉर्गन का आकलन है कि 2025 तक चीन में बनने वाले एपल के प्रोडक्ट का अनुपात घटकर 75% रह जाएगा। एपल 20% आईपैड, 5% मैकबुक और 20% वियतनाम में बनाना चाहती है।

दरअसल, बहुराष्ष्ट्रीय कंपनियां भारत के अलावा इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, फिलीपींस, बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों में भी मैन्युफैक्चरिंग प्लांट स्थापित करने के विकल्प तलाश रही हैं। इन देशों ने कई मुक्त व्यापार समझौते किए हैं। वियतनाम कम टेक्नोलॉजी वाली इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफैक्चरिंग और आईटी इंडस्ट्री पर फोकस कर रहा है। उसने सैमसंग तथा इंटेल जैसी कंपनियों से बड़ी डील भी की है। मलेशिया टेक्सटाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्री पर फोकस कर रहा है। थाईलैंड का फोकस इलेक्ट्रॉनिक्स तथा ऑटोमेटिव मैन्युफैक्चरिंग और इंडोनेशिया का कम्युनिकेशन इंडस्ट्री पर है। इन देशों में लेबर कॉस्ट कम होने के साथ एक अहम बात यह भी है कि ये देश अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम लिंकेज भी उपलब्ध करा रहे हैं, जैसा चीन ने किया। वियतनाम और मलेशिया ने इस अवसर को भुनाने के लिए हाई स्किल्ड वर्कफोर्स भी तैयार किए हैं।

चीन से बाहर जाने में मुश्किलें

बहुराष्ट्रीय कंपनियां भले चाइना प्लस वन नीति के तहत दूसरे देशों में मैन्युफैक्चरिंग के विकल्प तलाश रही हैं, लेकिन उनके लिए भी चीन में मैन्युफैक्चरिंग एकदम बंद करना मुमकिन नहीं होगा, क्योंकि वे चीन पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। चीन का मजबूत सप्लाई चेन नेटवर्क, इन्फ्रास्ट्रक्चर और लोगों की विशेषज्ञता उनके लिए अहम है। कंपनियां जानती हैं कि कोई एक देश फिलहाल चीन की जगह नहीं ले सकता, क्योंकि वहां के सप्लायर्स ने कई दशकों में विशेषज्ञता हासिल की है। इसलिए इंटेल ने भले ही वियतनाम में नया प्लांट लगाया, लेकिन उसका बड़ा बिजनेस अब भी चीन से ही आता है। एक अनुमान के अनुसार, एपल को भी चीन से अपना उत्पादन 10% कम करने में 8 वर्ष लग सकते हैं।

भारत के लिए बड़ा मौका

इस साल मई के पहले सप्ताह में लॉस एंजिलिस में आयोजित मिल्कन इंस्टीट्यूट के 26वें ग्लोबल कॉन्फ्रेंस की एक पैनल चर्चा में वर्कफोर्स मैनेजमेंट स्टार्टअप बेटरप्लेस के सह-संस्थापक और सीईओ प्रवीण अग्रवाल ने कहा, “जब आप भारत को एक अवसर के रूप में देखते हैं तो सिर्फ आईटी के नजरिए से मत देखिए। आईटी निश्चित रूप से ड्राइविंग फोर्स है, लेकिन भारत को मैन्युफैक्चरिंग के नजरिए से भी देखिए क्योंकि यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा ड्राइविंग फोर्स बनने जा रहा है।” यह चर्चा चाइना प्लस वन रणनीति में चीन के विकल्प तलाशने पर केंद्रित थी। उस चर्चा में इस बात पर सहमति बनी कि अगर भारत चाइना प्लस वन अवसर को सही तरीके से भुनाता है तो यह चीन से भी बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। यहां आबादी तो बड़ी है ही, टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में टैलेंट भी बड़ी संख्या में उपलब्ध है।

यह सही है कि चीन के विकल्प के तौर पर अनेक कंपनियां वियतनाम गई हैं, लेकिन जैसा कि फियो महानिदेशक अजय सहाय कहते हैं, “ये बहुत छोटी इकोनॉमी हैं। ये चीन जितनी जरूरत पूरी नहीं कर सकते हैं। आबादी और टैलेंट के लिहाज से भारत में ही यह क्षमता है।” भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग में बेहतर विकल्प बन सकता है। भारत की करीब 65% आबादी 35 साल से कम उम्र की है। इनमें खपत, बचत और निवेश तीनों बढ़ाने की क्षमता है। चीन की तुलना में कम मजदूरी भी भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाती है।

चीन में गूगल और फेसबुक जैसे ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध है लेकिन भारत के युवाओं के बीच ये काफी लोकप्रिय हैं। टेलीकॉम रेगुलेटर ट्राई के अनुसार अप्रैल में भारत में 85 करोड़ ब्रॉडबैंड ग्राहक थे। डिजिटल स्किल के मामले में भारतीय बेहतर हैं। अंग्रेजी का ज्ञान भी भारतीयों को चीनी नागरिकों से बेहतर बनाता है। जुलाई 2022 में भारत, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन समेत 18 देशों ने एक सामूहिक सप्लाई चेन बनाने की स्ट्रैटजी घोषित की थी। उसका फायदा भी भारत को मिल सकता है।

चीन की तरह भारत के पक्ष में जो सबसे प्रमुख बात जाती है, वह है यहां का विशाल घरेलू बाजार। इंडोनेशिया, थाईलैंड और वियतनाम की तुलना में भारत इस मामले में बेहतर पोजीशन में है। लॉजिस्टिक्स कंपनी टोल ग्रुप के 350 कंपनियों के एक सर्वे में आधी से अधिक कंपनियों ने कहा कि उनके प्रोडक्ट की मैन्युफैक्चरिंग चीन में होती है। करीब एक चौथाई कंपनियों ने कहा कि वे तीन साल में कुछ मैन्युफैक्चरिंग चीन से बाहर लेकर जाएंगी। करीब 32% कंपनियों ने वियतनाम और 30% ने भारत जाने की बात कही। हालांकि कोई कंपनी पूरी तरह चीन को छोड़ना नहीं चाहती।

एपल, सैमसंग, फॉक्सकॉन और विजट्रॉन जैसी कंपनियों ने सप्लाई चेन डायवर्सिफाई करने के लिए कुछ मैन्युफैक्चरिंग भारत में शिफ्ट की है। इससे इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में निवेश बढ़ा है। विशेषज्ञों के अनुसार, चीन ने स्टील उत्पादन क्षमता काफी ज्यादा बढ़ा ली थी, जिसे अब वह कम करना चाहता है। यह भारतीय कंपनियों के लिए उत्पादन और निर्यात बढ़ाने का अवसर हो सकता है। जून 2022 में अमेरिका ने मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप में चीन के जिनजियांग से कॉटन तथा इसके उत्पादों के आयात पर रोक लगा दी थी। चीन तीन दशक से केमिकल इंडस्ट्री में अगुवा रहा है, लेकिन प्रदूषण कम करने के लिए वहां अनेक केमिकल प्लांट बंद किए गए हैं। यह सब भारत के लिए मौका है।

भारत को क्या करना चाहिए

बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं, “नियम-कानूनों में स्थिरता जरूरी है, उनमें जल्दी-जल्दी बदलाव नहीं होने चाहिए। ऐसा करने से गलत संदेश जाता है, जैसा टैक्स नियमों को लेकर हुआ। एफडीआई को विशेष ट्रीटमेंट देना मुश्किल हो सकता है, लेकिन उस पर विचार किया जा सकता है। यह समान अवसर के तर्क के विपरीत है, फिर भी यह ऐसी पहेली है जिसे सुलझाना पड़ेगा। पीएलआई स्कीम का इस्तेमाल प्रोडक्टिविटी और क्वालिटी सुधारने में किया जाना चाहिए ताकि हम उत्पादन और निर्यात बढ़ा सकें।”

पीरामल एंटरप्राइजेज के मुख्य अर्थशास्त्री देबोपम चौधरी पूंजी प्रवाह की बात करते हैं, “भारत की विकास की क्षमता का पूरा इस्तेमाल करने में निवेश हमेशा बाधक रहा है। इसलिए रणनीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें पर्याप्त पूंजी और कर्ज प्रवाह के लिए प्रावधान हो। भारत को निर्माताओं और उद्यमियों को कर्ज देने के लिए विभिन्न स्रोतों की जरूरत है, ताकि बैंकिंग प्रणाली पर भार कम हो। कर्ज का पर्याप्त प्रवाह पीएलआई जैसे कदमों के पूरक के तौर पर काम करेगा।”

विशेषज्ञों के अनुसार लागत कम करने के लिए इकोनॉमी ऑफ स्केल अपनाना, यानी बड़े पैमाने पर उत्पादन करना भी जरूरी है। चीन में फैक्ट्रियों का आकार बहुत बड़ा है, इसलिए उनकी लागत कम आती है। भारत में ज्यादातर कंपनियां छोटे और मझोले आकार की हैं। वे कहते हैं, अगर भारत इन बाधाओं को पार कर ले तो अगले कुछ वर्षों में चीन की चार दशक की सरपरस्ती को तोड़ सकता है।