एक मार्गदर्शक आचार्य का जाना: सीखा गए विचारों, शब्दों और कर्मों की पवित्रता
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी को देश की भाषाई विविधता पर बहुत गर्व था। वह हमेशा युवाओं को स्थानीय भाषाएं सीखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने स्वयं भी संस्कृत प्राकृत और हिंदी में कई रचनाएं कीं। एक संत के रूप में वह शिखर तक पहुंचने के बाद भी जिस प्रकार जमीन से जुड़े रहे यह उनकी महान रचना ‘मूक माटी’ में दिखाई पड़ती है।
नरेन्द्र मोदी। जीवन में हम बहुत कम ऐसे लोगों से मिलते हैं, जिनके निकट जाते ही मन-मस्तिष्क एक सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है। ऐसे व्यक्तियों का स्नेह और उनका आशीर्वाद, हमारी बहुत बड़ी पूंजी होता है। संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज मेरे लिए ऐसे ही थे। उनके समीप अलौकिक आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता था।
आचार्य जी जैसे संतों को देखकर यह अनुभव होता था कि कैसे भारत में अध्यात्म किसी अमर और अजस्र जलधारा के समान अविरल प्रवाहित होकर समाज का मंगल करता रहता है। आज मुझे उनसे हुआ संवाद बार-बार याद आ रहा है। पिछले साल नवंबर में छत्तीसगढ़ में डोंगरगढ़ के चंद्रगिरी जैन मंदिर में उनके दर्शन करने जाना मेरे लिए परम सौभाग्य की बात थी। तब मुझे इसका अंदाजा नहीं था कि आचार्य जी से मेरी यह आखिरी मुलाकात होगी। उस दौरान उन्होंने पितातुल्य भाव से मेरा ख्याल रखा और देश सेवा में किए जा रहे प्रयासों के लिए मुझे आशीर्वाद भी दिया। देश के विकास और विश्व मंच पर भारत को मिल रहे सम्मान पर उन्होंने प्रसन्नता भी व्यक्त की थी। उनका जाना उस अद्भुत मार्गदर्शक को खोने के समान है, जिन्होंने मेरा और अनगिनत लोगों का मार्ग निरंतर प्रशस्त किया है।
भारतवर्ष की यह विशेषता रही है कि यहां की पावन धरती ने निरंतर ऐसी महान विभूतियों को जन्म दिया है, जिन्होंने लोगों को दिशा दिखाने के साथ-साथ समाज को भी बेहतर बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसी महान परंपरा में आचार्य विद्यासागर जी का प्रमुख स्थान है। उन्होंने वर्तमान के साथ ही भविष्य के लिए भी एक नई राह दिखाई। उनके जीवन का हर अध्याय, अद्भुत ज्ञान, असीम करुणा और मानवता के उत्थान के लिए अटूट प्रतिबद्धता से सुशोभित है। आचार्य जी सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र की त्रिवेणी थे।
करुणा, सेवा और तपस्या से परिपूर्ण आचार्य जी का जीवन भगवान महावीर के आदर्शों का प्रतीक और जैन धर्म की मूल भावना का सबसे बड़ा उदाहरण रहा। हर व्यक्ति के लिए उनका प्रेम यह बताता है कि जैन धर्म में ‘जीवन’ का महत्व क्या है। उन्होंने सत्यनिष्ठा के साथ यही सीख दी कि विचारों, शब्दों और कर्मों की पवित्रता कितनी बड़ी होती है। उन्होंने हमेशा जीवन के सरल होने पर जोर दिया। उनके जैसे व्यक्तित्व के कारण ही आज दुनिया को जैन धर्म और भगवान महावीर के जीवन से जुड़ने की प्रेरणा मिलती है। वह जैन समुदाय के साथ ही अन्य समुदायों के भी बड़े प्रेरणास्रोत रहे।
विद्याधर से आचार्य विद्यासागर जी बनने तक की उनकी यात्रा ज्ञान प्राप्ति और उस ज्ञान से पूरे समाज को प्रकाशित करने की उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दिखाती है। उनका दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा ही एक न्यायपूर्ण और प्रबुद्ध समाज का आधार है। सच्चे ज्ञान के मार्ग के रूप में स्वाध्याय और आत्म-जागरूकता के महत्व पर उनका विशेष जोर था। उनकी इच्छा थी कि हमारे युवाओं को ऐसी शिक्षा मिले, जो हमारे सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हो। वह कहा करते थे कि चूंकि हम अपने अतीत के ज्ञान से दूर हो गए हैं, इसलिए वर्तमान में हम अनेक बड़ी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। अतीत के ज्ञान में वह आज की अनेक चुनौतियों का समाधान देखते थे। जल संकट को लेकर वह भारत के प्राचीन ज्ञान से अनेक समाधान सुझाते थे।
उनका यह भी विश्वास था कि शिक्षा वही है, जो स्किल डेवलपमेंट और इनोवेशन पर ध्यान केंद्रित करे। आचार्य जी ने कैदियों की भलाई के लिए भी विभिन्न जेलों में काफी कार्य किया। कितने ही कैदियों ने उनके सहयोग से हथकरघा का प्रशिक्षण लिया। उनका इतना सम्मान था कि कई कैदी रिहाई के बाद अपने परिवार से पहले आचार्य जी से मिलने जाते थे।
आचार्य जी को देश की भाषाई विविधता पर बहुत गर्व था। वह हमेशा युवाओं को स्थानीय भाषाएं सीखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने स्वयं भी संस्कृत, प्राकृत और हिंदी में कई रचनाएं कीं। एक संत के रूप में वह शिखर तक पहुंचने के बाद भी जिस प्रकार जमीन से जुड़े रहे, यह उनकी महान रचना ‘मूक माटी’ में दिखाई पड़ती है। वह अपने कार्यों से वंचितों की आवाज भी बने। वास्तव में उन्होंने उन क्षेत्रों में विशेष प्रयास किया, जहां उन्हें ज्यादा कमी दिखाई पड़ी। उन्होंने शारीरिक स्वास्थ्य को आध्यात्मिक चेतना के साथ जोड़ने पर बल दिया, ताकि लोग शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से स्वस्थ रह सकें।
मैं विशेष रूप से भावी पीढ़ियों से यह आग्रह करूंगा कि वे राष्ट्र निर्माण के प्रति विद्यासागर जी की प्रतिबद्धता के बारे में व्यापक अध्ययन करें। वह मतदान के प्रबल समर्थकों में से एक थे और मानते थे कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति है। उनका कहना था-‘लोकनीति लोभसंग्रह नहीं, बल्कि लोकसंग्रह है।’ इसलिए नीतियों का निर्माण निजी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि लोगों के कल्याण के लिए होना चाहिए।
आचार्य जी का गहरा विश्वास था कि एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण उसके नागरिकों के कर्तव्य भाव के साथ ही परिवार, समाज और देश के प्रति गहरी प्रतिबद्धता की नींव पर होता है। उन्होंने लोगों को ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और आत्मनिर्भरता जैसे गुणों को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया। आज जब हम विकसित भारत के निर्माण की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं, तब कर्तव्यों की भावना और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। एक ऐसे कालखंड में जब दुनियाभर में पर्यावरण पर कई तरह के संकट मंडरा रहे हैं, तब आचार्य जी का मार्गदर्शन हमारे बहुत काम आने वाला है। उन्होंने एक ऐसी जीवनशैली अपनाने का आह्वान किया, जो प्रकृति को होने वाले नुकसान को कम करने में सहायक हो। यही तो ‘मिशन लाइफ’ है, जिसका आह्वान भारत ने वैश्विक मंच पर किया है। उन्होंने अर्थव्यवस्था में कृषि को सर्वोच्च महत्व देते हुए खेती में आधुनिक तकनीक अपनाने पर भी बल दिया। मुझे विश्वास है कि वह नमो ड्रोन दीदी अभियान की सफलता से बहुत खुश होते।
आचार्य जी देशवासियों के मन-मस्तिष्क में सदैव जीवंत रहेंगे। उनकी अविस्मरणीय स्मृति का सम्मान करते हुए हम उनके मूल्यों को मूर्त रूप देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह न सिर्फ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि होगी, बल्कि उनके बताए रास्ते पर चलकर राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त होगा।