जागरण संपादकीय: बाकू सम्मेलन पर टिकीं निगाहें, जलवायु परिवर्तन पर सबका ध्यान
मिस्र में हुए कॉप 27 में नुकसान एवं क्षतिपूर्ति कोष की पहल हुई थी लेकिन उसमें पर्याप्त योगदान न होने से उसकी उपयोगिता सीमित बनी हुई है। ऐसे में यह उचित ही होगा कि विकासशील देश उस नुकसान एवं क्षतिपूर्ति मुआवजे पर भी जोर दें जिसकी चर्चा तो बहुत हुई थी लेकिन उस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए।
आदित्य सिन्हा। समूचा विश्व जलवायु परिवर्तन की गंभीर होती समस्या का समाधान तलाशने में जुटा है। ऐसे में, सभी की नजरें अजरबैजान के बाकू पर लगी हैं। बाकू में काप-29 सम्मेलन आयोजन होने जा रहा है। कांफ्रेंस आफ पार्टीज यानी कॉप सम्मेलन विश्व भर के नेताओं, कार्यकर्ताओं और उद्यमियों से लेकर तमाम अंशभागियों का ऐसा सालाना सम्मेलन है, जहां जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर मंत्रणा की जाती है।
संयुक्त राष्ट्र की इस पहल के बाकू सम्मेलन में वार्षिक जलवायु फाइनेंसिंग टारगेट और बहुपक्षीय कार्बन क्रेडिट सिस्टम में प्रगति के साथ ही जलवायु परिवर्तन जोखिम के लिहाज से नाजुक देशों के प्रति वित्तीय प्रतिबद्धता जैसे अहम समझौतों पर कुछ सहमति बनाने के प्रयास होने के आसार हैं। कहने को तो इस सम्मेलन में सर्वानुमति को प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत यही दर्शाती है कि लक्ष्यों की प्राप्ति में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई और सफलता के लिए कार्रवाई की गति तेज करनी होगी।
मौजूदा यथास्थिति के पीछे व्यापक रूप से यही मान्यता है कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पा रहे। ऐतिहासिक रूप से अपने उत्सर्जन दायित्व के बावजूद कुछ विकसित देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं उपलब्ध करा रहे हैं।
इसमें देरी से विकासशील देशों की ऐसी क्षमताएं प्रभावित हो रही हैं, जिनसे वे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रभावी रणनीति बना सकें। उनके लिए अपनी आर्थिक वृद्धि और पर्यावरणीय निरंतरता के साथ संतुलन बिठाना मुश्किल हो रहा है। विकसित देशों को इस विसंगति की ओर ध्यान देकर पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास करने चाहिए।
जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की राह में विकासशील देशों की राह में सबसे प्रमुख अवरोध वित्तीय संसाधनों का अभाव है। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद विकसित देशों का योगदान आवश्यक स्तर से कम है। वर्ष 2022 में विकसित देशों ने 115.9 अरब डालर उपलब्ध कराए और पहली बार 100 अरब डालर के वार्षिक लक्ष्य का आंकड़ा पार हुआ।
हालांकि यह अभी भी कम है, क्योंकि अगर विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्य हासिल करने हैं तो 2030 तक हर साल दो ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर राशि की आवश्यकता होगी। कर्ज का अंबार विकासशील देशों की राह में एक और बाधा बना हुआ है। तमाम विकासशील देश कर्ज के बोझ से ऐसे कराह रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए उनके पास संसाधन बहुत सीमित हो जाते हैं।
वर्ष 2011 से 2022 के बीच उन देशों की संख्या 22 से बढ़कर 59 हो गई, जिनका कर्ज उनकी जीडीपी के 60 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया। स्वाभाविक है कि यह वित्तीय बोझ पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उनके प्रयासों एवं प्रतिबद्धता को प्रभावित करता है। इसमें तीसरी बाधा निजी पूंजी से जुड़ी सीमित पहुंच की है।
चूंकि जलवायु परिवर्तन से जुड़े उपक्रमों में प्रतिफल कम होने के साथ ही कई जोखिम भी जुड़े होते हैं तो निजी निवेशक अक्सर उनमें निवेश से कतराते हैं। वर्ष 2022 में निजी क्षेत्र द्वारा इस मद में केवल 21.9 अरब डालर ही जुटाए जा सके जो आवश्यकता के अनुपात में बहुत कम है। एडाप्टेशन यानी नई तकनीकी को अपनाने में फंडिंग की कमी भी एक बड़ी बाधा बनी हुई है।
इस मद में वर्ष 2021 में विकासशील देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय फंडिंग 21.3 अरब डालर रही जबकि इसके लिए सालाना 215 से 387 अरब डालर की आवश्यकता है। यह अंतर कई देशों की स्थिति को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति और नाजुक बना सकता है। पांचवीं बाधा आर्थिक कमजोरी और बुनियादी ढांचे की कमी से जुड़ी है।
अधिकांश विकासशील देश अस्थिर आर्थिकी वाले देश हैं, जहां बुनियादी ढांचा भी समुन्नत नहीं। इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की दृष्टि से इनकी स्थिति नाजुक बन जाती है। जबकि निवेशकों के लिए ये कम आकर्षक होते हैं। उदाहरण के लिए अफ्रीका विश्व का केवल दो से तीन प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की तमाम चुनौतियों के साथ ही ऊर्जा की किल्लत से भी जूझ रहा है। स्वाभाविक है कि ग्रीन ट्रांजिशन यानी हरित संक्रमण की उसकी राह कठिन बनी हुई है।
स्पष्ट है कि कार्बन उत्सर्जन में कम योगदान के बावजूद विकासशील देश ही जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक तपिश झेल रहे हैं। विकसित देशों के वादों से भी वे आजिज आ चुके हैं। खासतौर से ग्रीन क्लाइमेट फंट यानी जीसीएफ जैसी संकल्पना का पूरी तरह साकार न होना विकासशील देशों को कचोटता है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि विकासशील देशों को इस मामले में विकसित देशों की मंशा पर ही संदेह होने लगे।
कई विकासशील देशों की दलील है कि वे अभी भी गरीबी, तमाम बीमारियों और लचर बुनियादी ढांचे जैसी समस्याएं झेल रहे हैं, जिनके समाधान के लिए उन्हें ऊर्जा एवं संसाधनों की दरकार है। वहीं, विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में अपने पुराने और भारी योगदान को अनदेखा करते हुए विकासशील देशों पर जल्द से जल्द उत्सर्जन कम करने के लिए ऐसा दबाव डालते हैं कि वे उनकी गति से ताल मिलाएं।
इस प्रकार विकासशील देशों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं का संज्ञान लिए बिना ही अमीर देशों द्वारा लक्ष्य तय किया जाना भी असंतोष का एक कारण बन रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जलवायु परिवर्तन से उपजी प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं ने उन देशों एवं समुदायों को बहुत ज्यादा क्षति पहुंचाई है, जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए अपेक्षाकृत कम जिम्मेदार हैं।
मिस्र में हुए कॉप 27 में नुकसान एवं क्षतिपूर्ति कोष की पहल हुई थी, लेकिन उसमें पर्याप्त योगदान न होने से उसकी उपयोगिता सीमित बनी हुई है। ऐसे में यह उचित ही होगा कि विकासशील देश उस नुकसान एवं क्षतिपूर्ति मुआवजे पर भी जोर दें, जिसकी चर्चा तो बहुत हुई थी, लेकिन उस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए। बाकू में विकासशील देशों को इसके लिए अपनी आवाज बुलंद करनी होगी, क्योंकि यह न केवल न्याय के दृष्टिकोण से, अपितु उनके अस्तित्व के लिहाज से भी बेहद अहम है।
(लेखक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)