ओम बिरला। विधायी निकायों को पर्यवेक्षण, विधि-निर्माण एवं वित्तीय जवाबदेही सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी गई है। इस तथ्य के दृष्टिगत कि भारत में दशकों से एक कार्यशील और मजबूत संसदीय लोकतंत्र है, विधायिका में अनुशासन और शिष्टाचार बनाए रखना और महत्वपूर्ण हो गया है। यदि सदन में व्यवधान नियमित घटना बन जाए तो इससे न केवल करदाताओं के पैसे की भारी बर्बादी होती है, बल्कि हमारे संस्थानों की नकारात्मक छवि भी बनती है, जिसके चलते लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का विश्वास घट सकता है। विधायिका में अनुशासन और शिष्टाचार का अभाव हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। देश में विधानमंडलों के पीठासीन अधिकारियों का शीर्ष निकाय अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन (एआइपीओसी) ने विधानमंडलों में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों के विकास में अहम भूमिका निभाई है। इसने रचनात्मक विमर्श और संवाद के जरिये विधानमंडलों के समक्ष समस्याओं के समाधान निकाले हैं, जिनमें अनुशासन और मर्यादा का मुद्दा भी शामिल है।

एक शताब्दी से अधिक की अपनी यात्रा के दौरान इस सम्मेलन द्वारा विधानमंडलों में मर्यादा और गरिमा से जुड़े अनेक मुद्दों पर विमर्श हुआ है। नवंबर, 2001 में हुए सम्मेलन में ‘संसद और राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों के विधानमंडलों में अनुशासन और शिष्टाचार” विषय पर गहन चर्चा हुई। उसमें इस विषय पर सर्वसम्मति से एक संकल्प और आचार संहिता स्वीकार की गई। एआइपीओसी के प्रयासों के फलस्वरूप एक तदर्थ आचार समिति का गठन किया गया, जो 2015 से लोकसभा की स्थायी समिति बन गई है। इसकी सिफारिशों का सदस्यों के आचरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। संसदीय मर्यादा के अंतर्गत कुछ नियम, परिपाटियां और शिष्टाचार शामिल हैं, जिनका पालन सदस्यों को विधायी सदन में करना होता है। सार्थक विचार-विमर्श और निर्णय लेने हेतु अनुकूल परिवेश बनाने के लिए आवश्यक है। संसदीय शिष्टाचार के कुछ महत्वपूर्ण पहलू ऐसे हैं जिन्हें लेकर सभी पक्षों की सहमति है, जैसे अध्यक्ष पीठ के प्रति सम्मान का प्रदर्शन, अन्य सदस्यों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन, सदन में चर्चाधीन विषयों पर संगत भाषण, सदन में अनुशासित आचरण, अन्य सदस्यों के भाषण में व्यवधान न डालना, सदन के अंदर शोर न करना तथा सदन में किसी भी प्रकार की अव्यवस्था न उत्पन्न करना।

‘सदस्य का आचरण’ शब्द को पूर्ण रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। यह निर्धारित करने की शक्ति सभा के पास होती है कि क्या किसी सदस्य ने अशोभनीय व्यवहार किया है या कोई ऐसा व्यवहार किया है, जो एक संसद सदस्य के लिए अनुचित है। सभा में सदस्यों के गरिमापूर्ण और मर्यादित आचरण को सुनिश्चित करने के लिए लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों में कई प्रविधान हैं। सदस्यों का व्यवहार ऐसा होना चाहिए, जिससे संसद और उसके सदस्यों की गरिमा बढ़े। सदस्यों का आचरण संसदीय परंपराओं या उन मानकों के विपरीत न हो, जिनकी संसद सदस्यों से अपेक्षा की जाती है। संसदीय विशेषाधिकार सदस्यों को बिना किसी भय या व्यवधान के सदन में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में सक्षम बनाते हैं। संविधान प्रदत्त संसदीय विशेषाधिकार अमूल्य हैं, इसलिए सदस्यों को सदन में इनका उपयोग इस प्रकार करना चाहिए, ताकि सदन के समय का सार्थक उपयोग हो और सदन के माध्यम से लोकहित के अधिकतम कार्य प्रभावी रूप से किए जा सकें।

लोकसभा अध्यक्ष को संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुरूप निष्पक्ष और व्यवस्थित कार्यवाही सुनिश्चित करने तथा चर्चा के दौरान सभी प्रकार के विचारों की अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करने के लिए व्यापक शक्तियां और जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं। अध्यक्ष न केवल सभा की बैठकों का संचालन करता है, बल्कि उस पर समुचित नियम, परिपाटियां, परंपराएं और एक स्वस्थ संसदीय संस्कृति विकसित करने की जिम्मेदारी भी होती है। उसके व्यापक उत्तरदायित्वों को देखते हुए लोकसभा द्वारा अध्यक्ष को नियमों के अंतर्गत अनुशासनात्मक शक्तियां भी प्रदान की गई हैं, ताकि संसद जनता के हित में अपने संवैधानिक अधिदेश को पूरा करने में सक्षम हो सके।

सदन में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखना अध्यक्ष का एक महत्वपूर्ण दायित्व है। इसके लिए उसे नियमों और परंपराओं के तहत पर्याप्त अधिकार प्रदान किए गए हैं। जब कोई सदस्य अनुचित या अपमानजनक टिप्पणी करता है तो अध्यक्ष हस्तक्षेप कर सकता है और सदस्य से उस टिप्पणी को वापस लेने के लिए कह सकता है या वाद-विवाद के दौरान प्रयुक्त किए गए किन्हीं अपमानजनक या अभद्र शब्दों को हटाने का आदेश दे सकता है। अध्यक्ष अनुचित आचरण करने वाले किसी सदस्य को सदन से बाहर जाने का आदेश भी दे सकता है और यदि सदस्य अध्यक्षपीठ की अवहेलना करता है और सभा की कार्यवाही में लगातार व्यवधान उत्पन्न करके घोर अव्यवस्था उत्पन्न करता है तो अध्यक्ष किसी सदस्य को निलंबित भी कर सकता है। सदन की प्रतिष्ठा और गरिमा को बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सदस्य अध्यक्ष पीठ के निर्देशों का अनुसरण करें। आसन पर बैठने के पश्चात अध्यक्ष किसी दल विशेष या विचारधारा विशेष का नहीं होता, बल्कि संसदीय लोकतंत्र का निष्पक्ष प्रहरी होता है। संसदीय संस्थाओं की उच्च मर्यादा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि सदस्य किसी भी परिस्थिति में अध्यक्ष के प्राधिकार पर प्रश्न न उठाएं और उसके निर्देश की अवहेलना न करें।

विधानमंडल परिसर के अंदर उत्पन्न सभी मुद्दों पर अंतिम निर्णय अध्यक्ष का होता है और विधायिका के प्रभावी कामकाज के लिए आवश्यक है कि सभी सदस्य अध्यक्ष के आदेश का पालन करें। सदस्यों को अध्यक्ष को एक व्यक्ति के रूप में न देखते हुए एक संस्था के रूप में देखना चाहिए, जो संसद के विशेषाधिकारों एवं शक्तियों का प्रतीक है। सदस्यों को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नागरिकों द्वारा संसद सदस्यों को आदर्श माना जाता है। इसलिए विधायिका के सदस्यों का आचरण गरिमापूर्ण, अनुशासित, अनुकरणीय और दोषरहित होना चाहिए। प्रत्येक जनप्रतिनिधि के लिए संविधान की भावना से संसद के सदनों में आचरण के उच्च मानक बनाए रखना अनिवार्य है।

(लेखक लोकसभा अध्यक्ष हैं)