जागरण संपादकीय: आर्थिक सुधारों पर बने राजनीतिक सहमति, देश को मिलेगी विकास की गति
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ कुछ मामलों में ऊंची आर्थिक वृद्धि के अनुकूल नहीं रह गई है। विरोधी को मात देने की लिए ऐसी लुभावनी घोषणाओं का दौर चल निकला है जिसके चलते कुछ राज्य दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए हैं। सामाजिक न्याय रेवड़ियां बांटकर नहीं बल्कि आर्थिक रूप से सशक्त बनने पर ही संभव है।
जीएन वाजपेयी। अनिश्चित वैश्विक परिदृश्य में भी भारतीय अर्थव्यवस्था तेज गति से वृद्धि कर रही है। इस समय वृद्धि की जो रफ्तार है, उसके आधार पर भारत 2030 तक सात ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की आर्थिकी बनकर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। वृहद आर्थिक स्थायित्व, युवा आबादी, गतिशील एवं जीवंत लोकतंत्र और तटस्थ भू-राजनीतिक दृष्टिकोण जैसे पहलुओं के चलते भारत विदेशी निवेशकों के लिए निवेश के पसंदीदा ठिकाने के रूप में उभरा है।
इसके बावजूद निरंतर तेज वृद्धि के लिए भूमि, श्रम और कृषि के मोर्चे पर तत्काल सुधारों की आवश्यकता है। तभी देश 2047 तक विकसित राष्ट्र बन सकता है। अच्छी बात है कि देश के कुछ राज्यों में विकास को लेकर प्रतिस्पर्धा दिख रही है। इन राज्यों की सरकारें निवेशकों के प्रति उदारता दिखाने में कोताही नहीं कर रहीं। याद रहे कि उद्यमी अधिकतम लाभ अर्जित करने के लिए ही अपनी पूंजी और कौशल को दांव पर लगाकर प्रयास करते हैं।
किसी उद्योग या इलाके में निवेश के फैसले पर पहुंचने के लिए कई पहलू प्रभावी होते हैं। इसमें उस इलाके तक पहुंच, उद्यम चलाने की लागत, मानव संसाधन उपलब्धता, निवेश, जीवन एवं संपत्ति की सुरक्षा के अलावा शासन एवं कर व्यवस्था, नियमन और कानून के स्तर पर निरंतरता जैसे पहलू बहुत निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कुल मिलाकर, न्यूनतम जोखिम के साथ अधिकतम लाभ ही निवेश का आधार मंत्र बनता है।
भारतीय राज्यों में आर्थिक स्तर पर कई असमानताएं दिखती हैं। गोवा और सिक्किम जैसे राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी को देखें तो करीब 7,169 डालर के साथ यह राष्ट्रीय औसत से लगभग तीन गुना अधिक है। वहीं बिहार की जीएसडीपी 1,000 डालर से भी नीचे यानी राष्ट्रीय औसत से तीन गुना कम है। अप्रैल-जून, 2024 के शहरी युवा रोजगार स्थिति के आंकड़े दर्शाते हैं कि बिहार में पुरुषों की श्रम भागीदारी दर 32.9 प्रतिशत, जबकि महिलाओं की महज 5.3 प्रतिशत रही।
यह देश में श्रम भागीदारी का सबसे निचला स्तर रहा। जबकि महाराष्ट्र में पुरुषों में यह दर 55.2 प्रतिशत तो महिलाओं में 22.9 प्रतिशत रही। रोजगार की दर राज्य की अर्थव्यवस्था की सेहत को दर्शाती है। अधिक संपन्न राज्य में यह दर काफी ऊंची है। ऐसी विषमता बड़े पैमाने पर आंतरिक पलायन और सामाजिक व्यग्रता बढ़ाने के साथ ही राष्ट्रीय चिंता को बढ़ाती है। विषमता की यह स्थिति एकाएक नहीं बनी।
इसके पीछे तत्कालीन सरकारों का वह रवैया मुख्य रूप से जिम्मेदार है कि उन्होंने उद्यमियों का भरोसा जीतने का प्रयास नहीं किया। शासन की गुणवत्ता, राजनीतिक अस्थिरता और कुछ मामलों में कानून एवं व्यवस्था की लचर स्थिति सबसे बड़े कारक रहे। राज्य को आर्थिक वृद्धि के पंख लगाकर ही विषमता को दूर किया जा सकता है। यह विषमता राजनीतिक स्तर पर भी मुद्दा बन जाती है। इस मोर्चे को दुरुस्त करने का दारोमदार भी राजनीतिक बिरादरी पर है।
अफसोस है कि भारतीय समाज जाति, नस्ल और धर्म जैसे तमाम आधारों पर विभाजित है। लोकतंत्र में लोगों के फैसलों में अक्सर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दे आर्थिक पहलुओं पर हावी हो जाते हैं। इन कारकों के संयुक्त प्रभाव का ही परिणाम है कि चुनावी सफलता के लिए मिश्रित समीकरणों को साधना पड़ता है। जीत का फार्मूला तैयार करने की मजबूरी में कुछ समझौते करने पड़ जाते हैं, जिससे हितों के टकराव और राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनती है।
ऐसी स्थिति में कुछ स्वयंभू सामाजिक संगठन सामने आ जाते हैं, जो अपने समर्थन की आड़ में वारे-न्यारे करने लगते हैं। भारतीयों ने कहने को तो अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो वाली नीति का तिरस्कार किया, लेकिन व्यवहार में कथित सामाजिक न्याय के नाम पर परत दर पर विभाजन को और महीन करते गए। इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता कि आर्थिक रूप से विपन्न लोगों की दुश्वारियों का अंत ही अफर्मेटिव एक्शन यानी आरक्षण जैसी किसी व्यवस्था के मूल में होना चाहिए।
इसलिए अनुकूल नीतियों का बनाया जाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए क्या कदम उठाए जाएं, उन्हें लागू करने का क्या उपयुक्त तरीका हो सकता है और उनके संभावित परिणामों जैसे पहलुओं पर संसद एवं राज्य विधानमंडलों में व्यापक विमर्श होना चाहिए। तैयार योजना के प्रभावी कार्यान्वयन और संभावित परिणामों को लेकर सरकार को जवाबदेह बनाया जाना भी उतना ही आवश्यक है।
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ कुछ मामलों में ऊंची आर्थिक वृद्धि के अनुकूल नहीं रह गई है। विरोधी को मात देने की लिए ऐसी लुभावनी घोषणाओं का दौर चल निकला है, जिसके चलते कुछ राज्य दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए हैं। सामाजिक न्याय रेवड़ियां बांटकर नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से सशक्त बनने पर ही संभव है। याद रहे कि लोकलुभावनवाद वंचितों का भला करने के बजाय अक्सर नारेबाजी में सिमटकर राज्य के लिए आर्थिक मुश्किलों को आमंत्रण देने वाला साबित होता है।
वैसे भी, अर्थव्यवस्था की ऊंची वृद्धि और आप्टिमल फैक्टर प्रोडक्टिविटी में सीधा संबंध है। चूंकि भूमि, श्रम और पूंजी जैसे उत्पादन के तीन कारकों में से भूमि और श्रम सुधारों की बाट जोह रहे हैं। भूमि और श्रम सुधारों को भावनात्मक रंग दिया जाता है और इसमें आम सहमति नहीं बन पा रही है। यह भी एक कारण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी क्षमताओं के अनुरूप तेजी नहीं पकड़ पा रही।
स्थिति यह है कि चाहे जिसकी सरकार हो, विपक्ष में रहने वाला दल किसी भी सुधार का न केवल विरोध करता है, बल्कि उसकी आड़ में भावनात्मक राग अलापता है। इससे वंचितों का ही नुकसान हो रहा है। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि भारतीय मतदाता समझदार हो रहे हैं।
तमाम उदाहरणों से जुड़े साक्ष्य दर्शाते हैं कि केवल ‘अतिशय कल्याणवाद’ ही वोट देने का प्रभावी आधार नहीं बनता। गरीबी के उन्मूलन और साझा समृद्धि के युग का प्रवर्तन करने के दृष्टिकोण से राजनीतिक परिपक्वता प्रदर्शित करने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता। यह केवल ऊंची आर्थिक वृद्धि की ओर उन्मुख करने वाली आम सहमति और सुधारों से जुड़े सभी संभावित कदमों के प्रभावी कार्यान्वयन से ही संभव हो सकता है।
(लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)