तिरुपति के विश्व प्रसिद्ध बालाजी मंदिर में प्रसाद के रूप में वितरित किए जाने वाले लड्डुओं को तैयार करने में पशुओं की चर्बी और मछली के तेल का इस्तेमाल किए जाने का मामला जितना सनसनीखेज है, उतना ही आस्था पर आघात करने वाला भी। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने पहले यह बयान जारी किया कि तिरुपति मंदिर में मिलने वाले लड्डुओं को बनाने में ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें पशुओं की चर्बी मिली रहती थी, फिर उन्होंने गुजरात की एक सरकारी प्रयोगशाला से मिली रपट के आधार यह कहा कि लड्डुओं को बनाने में जिस घी का उपयोग होता था, उसमें सचमुच पशुओं की चर्बी, मछली के तेल आदि का प्रयोग होता था।

यदि उक्त रपट सही है तो इससे अधिक आघातकारी, अनैतिक एवं अधार्मिक और कुछ हो ही नहीं सकता। केवल इतने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि इस मामले में केंद्र सरकार ने भी दखल दिया है, क्योंकि हिंदुओं की आस्था से खिलवाड़ करने वाला यह प्रकरण गहन जांच की मांग करता है। यह पता चलना ही चाहिए कि सच्चाई क्या है? यह कहा जा रहा है कि तिरुपति मंदिर के लड्डुओं को बनाने में जिस घी का इस्तेमाल किया जाता था, उसकी आपूर्ति करने वाली कंपनी उसे 320 रुपये प्रति किलो के हिसाब से उपलब्ध कराती थी। क्या यह संभव है?

आज दूध की औसत कीमत 50 रुपये प्रति लीटर है और एक किलोग्राम घी तैयार करने में आमतौर पर 20-25 लीटर दूध की खपत होती है। यदि दूध गाय का हो तो खपत और अधिक होती है। आखिर ऐसे में कोई तीन-चार सौ रुपये किलो के हिसाब से घी कैसे उपलब्ध करा सकता है? यदि कोई यह दावा करे कि वह घी बनाने की प्रक्रिया में निकलने वाले मट्ठे जैसे सह उत्पाद की बिक्री करके कम दाम पर घी उपलब्ध करा सकता है तो यह गणित भी गले नहीं उतरता, भले ही कितनी भी मात्रा में घी का उत्पादन क्यों न किया जाए। अच्छा हो कि तिरुपति का मामला सामने आने के बाद किसी की ओर से यह स्पष्ट किया जाए कि जो डेरी कंपनियां सात-आठ सौ रुपये किलो में घी बेचती हैं, उनका घी वास्तव में कितना शुद्ध होता है?

बात केवल तिरुपति मंदिर में मिलने वाले देसी घी से बने लड्डुओं की ही नहीं है, क्योंकि अन्य मंदिरों और साथ ही बाजार में कथित तौर पर शुद्ध देसी घी से तैयार सामग्री मिलती है। यदि देश में कहीं पर भी चार-पांच सौ रुपये किलो में देसी घी मिल रहा है तो यह संभव ही नहीं कि उसमें किसी तरह की मिलावट न हो। तिरुपति मंदिर का मामला यह भी बता रहा है कि हिंदुओं के मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की आवश्यकता है। यदि अन्य समुदाय अपने धार्मिक स्थलों की देखभाल कर सकते हैं तो फिर हिंदू समाज क्यों नहीं कर सकता?