श्रीराम चौलिया। वर्ष 2014 से अब तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आठ बार केवल एक देश की यात्रा की है और वह है अमेरिका। अमेरिका को प्राथमिकता के पीछे मोदी का सोच यह है कि उससे भारत के उत्थान हेतु जितने लाभ प्राप्त होते हैं, उतने अन्य कहीं से प्राप्त नहीं होते। भारत के मुख्य लक्ष्य हैं-आर्थिक विकास, तकनीकी प्रगति, सैन्य शक्ति में बढ़ोतरी और भूराजनीतिक संतुलन। इन सबकी पूर्ति में अमेरिका की अहम भूमिका है। व्यापार में आज अमेरिका भारत का सबसे बड़ा साझेदार है। दोनों देशों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का सालाना कारोबार लगभग 200 अरब डालर का है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने अनुमान लगाया है कि 2030 तक यह व्यापार तीन गुना बढ़ सकता है। अन्य वाणिज्यिक साझेदारों के मुकाबले अमेरिका के साथ भारत को व्यापार अधिशेष होने की भी संतुष्टि है। भारत की राष्ट्रीय आय का करीब 50 प्रतिशत व्यापार से आता है और इसीलिए अमेरिका से भारत की आर्थिक उन्नति का सीधा संबंध है। आगामी दशकों में भारत को विशाल अर्थव्यवस्था बनाने के लिए अमेरिका के साथ व्यापार और विदेशी निवेश निर्णायक होंगे।

हालांकि भारत में विदेशी निवेश के मोर्चे पर सिंगापुर और मारीशस को प्रथम एवं द्वितीय स्थान दिया जाता है, लेकिन वास्तव में तीसरे स्थान पर विराजमान अमेरिका ही हमारे देश में ठोस विदेशी पूंजी लेकर आता है। अमेरिकी निवेश से भारत में केवल सेवाओं को ही फायदा नहीं हुआ है, बल्कि औद्योगीकरण में भी उसकी अहम भूमिका है। मोटर वाहन, रसायन, इलेक्ट्रानिक्स, खाद्य प्रसंस्करण, स्वच्छ ऊर्जा, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी और रक्षा जैसे विभिन्न विनिर्माण क्षेत्रों में अमेरिकी निवेशक भारत में सक्रिय हैं। उनके द्वारा लाखों भारतीयों को रोजगार मिल रहा है। प्रधानमंत्री मोदी, जिन्होंने स्वयं के बारे में कहा है कि ‘गुजराती होने के नाते व्यापर मेरे खून में है’, भलीभांति जानते हैं कि अमेरिका जैसे संपन्न देश में बसे पूंजीपतियों को आकर्षित करके भारत लाने में ही राष्ट्र का हित है।

अपने हर अमेरिकी दौरे में वह वहां के व्यापार जगत के दिग्गजों संग मिलते-जुलते हैं और उन्हें भारत में निवेश को प्रेरित करते हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआइ, क्वांटम कंप्यूटिंग, सेमीकंडक्टर और जैव प्रौद्योगिकी यानी बायोटेक जैसे अत्याधुनिक व्यवसायों में महारत हासिल करने वाले देश वैश्विक शक्ति समीकरण में ऊंचे स्थान पर रहेंगे। ऐसी उभरती हुई तकनीकी के मामले में भी अमेरिका शीर्ष पर है। इसी को देखते हुए मोदी सरकार ने अमेरिका के साथ महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकी पहल (आइसेट) के अंतर्गत अनेक तकनीकों के सहविकास और सहनिर्माण पर जोर दिया है। ऐसी तकनीक के दोहरे उपयोग होते हैं और उनसे सैन्य आधुनिकीकरण भी होता है। यह उल्लेखनीय है कि तकनीकों के सहनिर्माण का उपक्रम दोनों पक्षों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नेतृत्व में चलाया जा रहा है।

इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि अमेरिका ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन को संवेदनशील प्रौद्योगिकी देना रोक दिया है, जबकि ऐसी प्रौद्योगिकी को वह भारत के साथ साझा करने को तत्पर है। इस दोहरी रणनीति का कारण अमेरिका की यह चिंता है कि चीन आर्थिक और सैन्य ताकत में उससे आगे निकल जाएगा और पश्चिमी उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को नष्ट कर देगा। भारत लोकतंत्र होने के

नाते और शक्ति में चीन से अपेक्षाकृत कमतर होने के कारण अमेरिका के अभिजात्य वर्ग और आम जनता को खतरा नहीं लगता। इसीलिए अमेरिका भारत पर अंतरराष्ट्रीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं और नियमों जैसी बाधाओं को दूर करने में सहायक रहा है। अमेरिका-चीन संबंधों में कटुता ने अमेरिका-भारत सामरिक साझेदारी को नया आयाम दिया है। अमेरिका अपतटीय संतुलन (आफशोर बैलेंसिंग) रणनीति के तहत भारत और अन्य मैत्रीपूर्ण देशों को समृद्ध और सशक्त करके चीन पर अंकुश लगाने की मंशा रखता है। वामपंथी और गुटनिरपेक्षता को लेकर आग्रही विश्लेषकों ने इसे लेकर यही चेतावनी दी है कि भारत को अमेरिका के रचे हुए खेल में प्यादा बनकर चीन से दुश्मनी नहीं मोल लेनी चाहिए, पर मोदी सरकार ने इस दृष्टिकोण को तवज्जो नहीं दी है, क्योंकि चीन आए दिन आक्रामकता दिखाता रहता है। उससे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रत्यक्ष खतरा है।

वर्तमान स्थितियों में भारत के लिए एशिया पर हावी होने के लिए प्रयासरत चीन और अपनी क्षमताओं को मजबूत करते अमेरिका के बीच तटस्थ रहने का सवाल ही नहीं पैदा होता। इसमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि चीन भारत का सामरिक प्रतिस्पर्धी है, जबकि अमेरिका भारत का सामरिक साझेदार है। मोदी सरकार की विदेश नीति ने चीन और अमेरिका के मामले में दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है, लेकिन इस विषय पर भारत में स्पष्टता नहीं बन पाई है। यहां कई समीक्षक और नागरिक घरेलू राजनीति के नजरिये से अमेरिका को परखते हैं। अमेरिका के कुछ सरकारी संस्थान भारत के आंतरिक विषयों पर आलोचना करते रहते हैं। इसी तरह वहां का मीडिया तथा बुद्धिजीवी वर्ग मोदी सरकार और संघ परिवार के विरुद्ध दुष्प्रचार करता रहता है। इसके चलते कई भारतीय अमेरिका को अनुचित हस्तक्षेप और अवांछित कृत्यों के लिए दोषी ठहराते हैं।

कुछ विश्लेषकों के अनुसार अमेरिका गुप्त अभियानों के माध्यम से भारत में सत्ता परिवर्तन की भी कोशिश कर रहा है। लगता है कि ऐसे आलोचक भारत की लोकतांत्रिक क्षमता पर उतना भरोसा नहीं रखते, जितना उन्हें रखना चाहिए। ऐसे लोगों में वैश्विक भूराजनीति का ज्ञान भी नहीं है। उनकी संवेदनशीलता अंतरराष्ट्रीय राजनीति से परे है। भावुक होकर अमेरिका को भारत का दुश्मन करार देना और उसे चालबाज कहना आसान है, किंतु वैश्विक पटल पर भारत के उत्थान के लिए अमेरिका की मित्रता अनिवार्य है। यह अवश्य मानना पड़ेगा कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे पड़ोसियों के मामलों को लेकर भारत और अमेरिका के बीच अपेक्षित तालमेल नहीं रहा। फिर भी, समग्रता में देखा जाए तो अमेरिका की दोस्ती हमारे लिए कारगर रही है और आगे भी रहेगी। विदेश नीति में राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखकर हमें इस मैत्री को संभालकर आगे ले जाना होगा।

(स्तंभकार अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ एवं ‘फ्रेंड्स: इंडियाज क्लोजेस्ट स्ट्रैटेजिक पार्टनर्स’ के लेखक हैं)